कुछ इश्क़ ऐसे होते हैं,
जो कहे नहीं जाते…
बस जिए जाते हैं।
ये कहानी भी उसी इश्क़ की है —
एक ऐसे प्यार की,
जो शोर नहीं करता,
पर दिल के हर कोने में
धीमे-धीमे गूंजता रहता है।
वो ज़्यादा बोलने वाला लड़का नहीं था।
लोग उसे अक्सर ख़ामोश, अलग-सा,
या फिर अपने ही ख्यालों में डूबा हुआ समझते थे।
लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा
कि जो आदमी कम बोलता है,
उसके अंदर शब्दों का सैलाब भी हो सकता है।
उसकी ख़ामोशी
कमज़ोरी नहीं थी…
वो उसकी आदत थी,
उसकी पहचान थी।
वो अक्सर अकेले बैठकर
आसमान को देखता था।
सितारों से बात करता,
हवा से सवाल पूछता,
और खुद से जवाब छुपा लेता।
क्योंकि उसे पता था —
कुछ जवाब
किसी से कहे नहीं जाते।
और फिर…
उसकी ज़िंदगी में
वो आई।
कोई अचानक तूफ़ान नहीं,
कोई तेज़ रोशनी नहीं,
बस…
जैसे किसी ने
उसकी ज़िंदगी में
धीरे से दिया जला दिया हो।
वो हँसती थी।
खुलकर, बेझिझक।
उसकी हँसी में
कोई चालाकी नहीं थी,
बस सच्चाई थी।
वो बोलती थी —
और बहुत बोलती थी।
छोटी-छोटी बातों पर,
बिना वजह भी।
और वो…
बस सुनता था।
पहली बार किसी ने
उसकी ख़ामोशी को
अजीब नहीं समझा।
उसे याद है,
पहली बार जब
उनकी नज़रें मिली थीं।
वो पल
बस दो सेकंड का था,
लेकिन उन दो सेकंडों में
उसने पूरी कहानी देख ली थी।
वो कुछ कह नहीं पाया।
और शायद
उसे कुछ कहने की ज़रूरत भी नहीं थी।
क्योंकि कुछ नज़रें
खुद ही
बात कर लेती हैं।
दिन बीतते गए।
मुलाक़ातें बढ़ीं।
बातें हुईं…
या शायद
सिर्फ उसकी तरफ़ से।
वो हर दिन
उसे थोड़ा और समझने लगा।
उसकी पसंद,
उसकी नाराज़गी,
उसके सपने।
और वो?
वो शायद
उसे कभी पूरी तरह समझ ही नहीं पाई।
क्योंकि वो
कभी अपनी कहानी
पूरी नहीं सुनाता था।
उसके दिल में
एक डर था।
डर इस बात का नहीं
कि वो मना कर देगी,
डर इस बात का था
कि अगर उसने कह दिया…
तो कहीं
सब बदल न जाए।
क्योंकि
जो जैसा चल रहा था,
कम से कम
वो उसके पास तो थी।
इश्क़
उसके लिए
मांगना नहीं था,
इश्क़
उसके लिए
संभाल कर रखना था।
रातें
उसकी सबसे बड़ी गवाह थीं।
जब सारी दुनिया
सो जाती थी,
तब उसका दिल
जागता था।
वो मोबाइल की स्क्रीन पर
उसका नाम देखकर
मुस्कुरा देता।
और फिर
लिखता…
मिटाता…
फिर लिखता…
और अंत में
कुछ भी नहीं भेजता।
क्योंकि
जो कहना चाहता था,
वो शब्दों में
समाता ही नहीं था।
वो अक्सर सोचता —
“अगर मैं उसे बता दूँ
तो क्या वो समझ पाएगी
मेरी ख़ामोशी के पीछे
छुपा ये शोर?”
पर हर बार
उसका जवाब
उसी ख़ामोशी में
डूब जाता।
फिर एक दिन
वो बदली हुई-सी थी।
उसकी हँसी
थोड़ी कम थी,
आँखों में
कुछ उलझन थी।
उसने पूछा —
“क्या हुआ?”
वो बोली —
“कुछ नहीं…”
लेकिन वो जानता था,
ये “कुछ नहीं”
बहुत कुछ होता है।
धीरे-धीरे
वो दूरी आने लगी
जिसका डर
उसे हमेशा से था।
वो किसी और का
नाम लेने लगी।
और हर बार
उसके दिल में
कुछ टूट-सा जाता।
लेकिन वो
अब भी चुप था।
क्योंकि
उसका इश्क़
ख़ामोश था।
एक दिन
वो चली गई।
कोई लड़ाई नहीं,
कोई शिकवा नहीं।
बस…
एक अधूरी सी
विदाई।
वो उसी जगह बैठा रहा
जहाँ वो अक्सर
साथ बैठते थे।
हवा वही थी,
आसमान वही था,
लेकिन
कुछ बहुत बड़ा
गायब हो चुका था।
उस रात
उसने पहली बार
खुद से कहा —
“काश…
मैं बोल देता।”
लेकिन
काश
हमेशा देर से आता है।
समय बीता।
ज़िंदगी आगे बढ़ी।
वो भी आगे बढ़ा…
या शायद
आगे बढ़ने की कोशिश की।
लोगों के बीच रहता,
हँसता,
काम करता।
लेकिन
रातें
अब भी
उसी की थीं।
कभी-कभी
वो आज भी
उसे देख लेता है।
किसी भीड़ में,
किसी चेहरे में।
और हर बार
दिल वही कहता है —
“तू मेरी थी…”
लेकिन फिर
वो मुस्कुरा देता।
क्योंकि
कुछ इश्क़
मिलने के लिए नहीं होते,
कुछ इश्क़
बस
दिल को
ज़िंदा रखने के लिए होते हैं।
उसका प्यार
अधूरा था,
लेकिन
झूठा नहीं था।
वो आज भी
उसे दुआओं में रखता है।
बिना शिकायत,
बिना उम्मीद।
क्योंकि
उसका इश्क़
ख़ामोश था।
ख़ामोश इश्क़
कभी मरता नहीं…
वो बस
दिल के किसी कोने में
चुपचाप
ज़िंदा रहता है
वो अब भी वहीं बैठा था।
हवा ठंडी हो चली थी,
पर उसके अंदर
कुछ जल रहा था।
शहर की रौशनियाँ
जैसे उसे चिढ़ा रही थीं —
“देखो, सब आगे बढ़ गए…
बस तुम ही रुके हो।”
उसने मुट्ठी खोली।
वो छोटी-सी चीज़
अब भी उसी के हाथ में थी।
एक मामूली-सा सिक्का…
पर उसके लिए
पूरी कहानी।
उसने धीमे से कहा,
“अगर इश्क़ मांगना पड़ता है,
तो शायद वो इश्क़ नहीं होता…”
और फिर पहली बार
उसकी आँखों से
आँसू नहीं गिरे।
बल्कि
थकावट गिरी।
उस रात
वो घर नहीं गया।
छत पर ही
बैठा रहा।
क्योंकि कुछ घर
ईंट-पत्थर के नहीं होते,
कुछ घर
यादों के होते हैं।
और वो जानता था —
अगर आज वो उठा,
तो शायद
कभी वापस
यहीं न आ पाए।
अगली सुबह
अलग थी।
सूरज वही था,
पर उसकी रोशनी
कुछ ज़्यादा तीखी लगी।
उसने आईने में
खुद को देखा।
चेहरा वही था,
पर आँखों में
कुछ बदल गया था।
अब वहाँ
सिर्फ इंतज़ार नहीं था…
थोड़ी-सी
स्वीकृति थी।
दिन बीतने लगे।
वो काम पर जाने लगा,
लोगों से बात करने लगा।
लोगों ने कहा —
“अब तो ठीक लग रहा है।”
किसी ने ये नहीं पूछा
कि ठीक दिखना
और ठीक होना
एक जैसा नहीं होता।
वो कभी-कभी
उसका नाम
टाइप करता…
और फिर
डिलीट कर देता।
पर एक दिन
उसने डिलीट नहीं किया।
उसने सिर्फ इतना लिखा —
“ख़ुश हो?”
और भेज दिया।
जवाब
तीन घंटे बाद आया।
“हाँ।”
बस
एक शब्द।
उस एक शब्द ने
उसे वो सब दे दिया
जो वो सुनना चाहता था।
उसने मोबाइल
सीने से लगा लिया।
क्योंकि
कभी-कभी
ख़ुशी
हमसे दूर रहकर भी
सुकून दे जाती है।
कुछ हफ्तों बाद
वो उसे
सामने से देखता है।
सड़क के उस पार।
वो हँस रही थी।
किसी और के साथ।
उसका दिल
एक पल को
डूबा।
पर फिर
वो मुस्कुरा दिया।
क्योंकि
अब उसे समझ आ गया था —
प्यार
पाने का नाम नहीं,
प्यार
छोड़ पाने का साहस भी है।
उस रात
उसने लिखा।
पहली बार
पूरा।
कोई मैसेज नहीं,
कोई डायरी नहीं।
बस
खुद के लिए।
उसने लिखा —
“मैंने तुझे इसलिए नहीं छोड़ा
कि मेरा प्यार कम था,
मैंने तुझे इसलिए छोड़ा
क्योंकि तुझे
ख़ुश देखना
मेरे लिए
अब भी ज़रूरी था।”
वक़्त
धीरे-धीरे
उसके ज़ख़्मों पर
चुपचाप
मरहम रखने लगा।
अब वो
अकेले बैठता था,
पर अकेला नहीं लगता था।
क्योंकि
उसने अपने अंदर
एक सच्चाई स्वीकार ली थी।
एक दिन
बारिश हुई।
वो बिना छाता
भीगता रहा।
क्योंकि
कुछ आँसू
अब पानी बन चुके थे।
और फिर
कई महीनों बाद…
उसका फोन
बजा।
वही नाम।
वो कुछ पल
बस स्क्रीन को
देखता रहा।
फिर
कॉल उठाई।
“कैसा है?”
उसकी आवाज़
पहले से
थोड़ी भारी थी।
वो बोला —
“अब ठीक हूँ।”
और ये झूठ नहीं था।
वो बोली —
“मिल सकते हैं?”
उसका दिल
एक पल को
फिर से
वही पुराना बन गया।
पर उसने
साँस ली
और कहा —
“हाँ।”
वो उसी जगह मिले
जहाँ सब शुरू हुआ था।
चुपचाप बैठे।
जैसे पहले।
पर अब
ख़ामोशी
असहज नहीं थी।
वो बोली —
“तुमने कभी कहा क्यों नहीं?”
वो मुस्कुराया।
और पहली बार
बोला।
“क्योंकि
मैं चाहता था
तुम मुझे नहीं,
खुद को चुनो।”
उसकी आँखें
भर आईं।
वो बोली —
“काश…
तुम बोल देते।”
वो बोला —
“काश…
तुम समझ जाती।”
कुछ पल
बस हवा थी।
फिर
वो उठी।
“अब चलती हूँ।”
वो खड़ा नहीं हुआ।
क्योंकि
इस बार
रुकना
ज़रूरी था।
वो चली गई।
लेकिन इस बार
उसके जाने से
कुछ टूटा नहीं।
क्योंकि
अब इश्क़
अधूरा नहीं था।
उस रात
उसने छत पर बैठकर
आसमान को देखा।
चाँद
पूरा था।
और वो समझ गया —
कुछ इश्क़
ख़ामोश होकर भी
पूरे हो जाते हैं।