हमारा समाज अपने व्यक्तियों की उपलब्धियों एवं सफलता के मानकों का समय-समय पर निर्धारण करता रहता है। कुछ परिस्थितियों में ये मानता है कि समाज के नियम सर्वोपरि हैं तो अन्य में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व दिया जाता है। कहीं पर पितृसत्ता स्वीकार्य होती है तो कहीं मातृसत्ता। किन्हीं परिस्थितियों में आर्थिक उन्नति सर्वोपरि होती है तो कहीं सामाजिक प्रस्थिति। परन्तु इनमें सबसे महत्वपूर्ण क्या है ये निर्धारण कौन करेगा? एक समय था जब आर्थिक उन्नति से अधिक नैतिक उन्नति को महत्व दिया जाता था एक पुरुष कितना धन कमाता है इससे अधिक इसे महत्व दिया जाता था कि वह कितना अधिक व्यावहारिक और सदाचारी है। आज मानक बदल गए हैं अब व्यक्ति श्रेष्ठ तब है जब वह अपनी आजीविका से अधिक धनोपार्जन करने में सक्षम है। सामाजिक प्रस्थिति आर्थिक स्थिति पर आधारित हो गई है। कुछ समय पहले स्त्री की शीलता उसकी मर्यादा तथा सहनशीलता उसका सबसे प्रमुख गुण था जिसके आधार पर उसे श्रेष्ठता की श्रेणी में रखा जाता था, परन्तु अब स्त्री की श्रेष्ठता उसकी आधुनिक सोच, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक व्यवहार पर आधारित होती है। ऐसे नियम समाज द्वारा ही बनाए जाते हैं परन्तु समाज भी तो हमसे ही बनता है तो अंततः ये नियम हम स्वयं ही बनाते हैं उन्हें श्रेष्ठ बताते हैं और फिर उन्हें बदलने के साथ साथ नए नियमों का निर्माण भी हम ही करते हैं। ये समाज इसकी मान्यताएँ इसका व्यवहार, यहाँ घटने वाली घटनाएँ तथा उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले परिणाम, सभी हमारे द्वारा किए गए कर्मों पर ही निर्भर करते हैं। अर्थात जो कुछ भी हम करते हैं वही हमें दिखाई देता है और वही हमें प्रभावित करता है। तो यह समझने में क्या समस्या है कि अंततः जो कुछ भी है वो हम ही हैं केवल हम। और कुछ नहीं। व्यक्तिगत भी और सामाजिक भी..।
यह कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज से इतर या तो वह ईश्वर है या निरा पशु। यदि इसे भी सत्य मान लें तो भी ईश्वर भी ईश्वर इसीलिए है क्योंकि वह हमारा ईश्वर है यदि इस सृष्टि की, हमारी, रचना न हुई होती तो ईश्वर होते हुए भी ईश्वर को ईश्वर कहने वाला कोई नहीं होता। और यदि पशु की बात करें तो ऐसा तो वन्य जीवन का अध्ययन करने वालों को ज्ञात होगा कि पशुओं का भी अपना समाज होता है। वे भी आपसी सहयोग और समझ रखते हैं। बंदरों का झुण्ड और स्यारों की एक साथ आवाज इसकी पुष्टि करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाज हर जगह होता है, हर किसी का होता है, चाहे वह मानव हो अथवा पशु। और ईश्वर तो सर्वव्यापी हैं ही, चाहे किसी एक कण को देखा जाए या समस्त सृष्टि को। हमारा मानव होना हमें श्रेष्ठ बनाता है क्योंकि हममें विवेक होता है। और यह विवेक हमें इसलिए प्राप्त है ताकि हम अपने कर्मों का आकलन कर सकें। उन्हें सही या गलत की श्रेणी में बाँट सकें।अन्यथा कर्म तो सभी को करने पड़ते हैं चाहे मानव हो अथवा पशु। पशु द्वारा कर्म उसके तत्कालिक उद्देश्य, उसकी व्यक्तिगत आवश्यकतओं पर आधारित उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है। परन्तु मनुष्य का कर्म केवल उसकी व्यक्तिगत आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं होता अपितु अपने आस-पास के जीवों को प्रभावित करने वाला, उन्हें सुरक्षा, स्वतंत्रता एवं महत्व देने वाला भी होता है। और ऐसा करने के लिए ही मनुष्य को विवेक प्रदान किया गया है।अपने विवेक द्वारा अपने कर्मों के सही या गलत प्रभाव का आकलन करने के बाद ही कदम बढ़ाना मानव धर्म है। हमें स्वयं के साथ-साथ समाज के विषय में सोचने और व्यवहार करने का उत्तरदायित्व दिया गया है। सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा प्रत्येक कर्म समाज को प्रभावित करता है, इसी कारण मनुष्य के समाज को अत्यधिक महत्व दिया जाता है।