मॉरिसन : फिल्म नहीं एक यात्रा है विश्वास और भरोसे की
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बहुत बहुत दिनों बाद ऐसी अद्भुत फिल्म देखी जो प्रकृति, पेड़, पहाड़, गांव शहरों की यात्रा करवाती है वह भी पूरे अंदर से, बाहर बाहर से नहीं। इसके साथ चलती है नकारात्मक मूल्यों, धोखे, चालाकी, अर्धसत्य की कहानी। निर्देशक सुधीश शंकर की फिल्म में खूबसूरती से कविता रच देते हैं। ऐसी कविता जिसका हर शब्द, बिंब और भाव आपको बांध लेता है। फिर थ्रिल, चौंकाने वाले घटनाक्रम और कहानी के समांतर चलती तीन कहानियां। बेहद सहजता और दिलचस्पी से पर्दे पर आती हैं कि आप बंधे रह जाते हैं। फिर टर्न एंड ट्विस्ट का ऐसा सिलसिला चलता है जो आखिर तक आपको बांधे रखता है।
कहानी और अभिनय
----------------------- अधिक पात्र नहीं हैं महज दो मुख्य पात्रों के सहारे अस्सी प्रतिशत फिल्म चलती है बाकी पात्र धीरे धीरे आते जाते हैं, यह भी कथा पटकथा की ताकत है कि सीमित अभिनेताओं के साथ भी सवा दो घंटे फिल्म रोचक और रोमांचक बनी रहती है। संवाद छोटे और टू द प्वाइंट है। एक भी दृश्य अथवा संवाद जरा भी अखरता नहीं।
कहानी प्रारंभ होती है एक छोटे मोटे चोर दया से (फवाद फाजिल) ने क्या डूबकर यह किरदार जिया है।वह सामान्य, थोड़ा सा लालची और हाथ साफ करने वाले किरदार में डूब जाते हैं । फिर पूरी फिल्म में उनकी थोड़ी सी दादागिरी, भोलापन, चालाकी, भावुकता आप देखते हैं।
मॉरिसन (विधिवेलु) आयु साठ वर्ष के करीब एक घर में चेन से बंधे हैं। उसी घर में आधी रात को चोरी के इरादे से दया घुसता है। बड़ा सहज दृश्य है जब अधेड़ चोर को जगा हुआ मिलता है और कहता है, "कुमार तुम आ गए?"
वह उसे अपना बेटा समझता है और कहता है, "मुझे अल्जाइमर है इसलिए मेरा बेटा मुझे कमरे में बंद करके बाहर गया है।"
और पैसे चुराने के लालच में चोर दया उसे अपने साथ बाहर atm तक ले जाता है।वहां वह छुपकर देखता है कि मॉरिसन के खाते में पच्चीस लाख रुपए जमा हैं। मॉरिसन उसे पच्चीस हजार रुपए दे देता है और कहता है मुझे बस स्टेड तक छोड़ दो।
लालच का मारा चोर उसे बस स्टेड की जगह अपनी बाइक से ले जाने का प्रस्ताव रखता है।थोड़ी नानुकर के बाद बाइक यात्रा प्रारंभ होती है।
यहां से तमिलनाडु के मीनाक्षी मंदिर, मदुरै, गांव, कस्बों और हाइवे को निर्देशक दिखाता चलता है। कई दिलचस्प प्रकरण होते हैं जैसे बाइक से बकरी मर जाती है तो कस्बे वाले घेरते हैं। वृद्ध के पास पैसे नहीं तो चोर एटीएम कार्ड मांग पिन पूछकर जाता है। पर उन्हें पिन याद नहीं क्योंकि याद्दाश्त चली गई है।
चोर ही पैसे देता है। फिर आगे वह अपने एक मित्र के यहां त्रिचूर का कार्यक्रम बनाते हैं। रास्ते में होटल में स्टे करना, खाना ड्रिंक आदि के पैसे पच्चीस लाख रुपए के लालच में चोर ही देता है। यहां वह चालाकी से बुजुर्ग के एटीएम की फोटो लेकर अपने दोस्त को भेज देता है, जो इसके डुप्लीकेट कल तक बनाकर देगा। फिर पिन लगाकर वह पैसे चुरा सकेगा।
आगे एक धार्मिक आश्रम में वह अपने मित्र से मिलने भी जाते हैं। वहां वह दया को कुमार, अपना बेटा समझ मिलवाते भी हैं। कहानी अभी आधी ही होती है।
दर्शक, हम और आप भी, इसके आगे की यात्रा की सहज कल्पना करते हैं कि किस तरह चोर आगे इन्हें धोखा देगा या लूट लेगा?
निर्देशकीय कौशल और बेहतरीन लिखी पटकथा आगे की सारी कहानी को इतने रोचक, रोमांचक मोड़ देती है मानो हम हवाई जहाज में लगातार ऊपर और ऊपर जा रहे हैं।
चौंकाने वाला रोमांचक घटनाक्रम
--------------------- चोर का दोस्त उसे समय समय पर मदद करता है। उधर पुलिस विभाग तीन हत्याओं की जांच कर रहा होता है। जो उन्हीं लोगों की हुई जिनसे मिलने दया और मॉरिसन गए थे।
एक बहुत अमीर उद्योगपति, जिसे वृद्ध ने अपना मित्र बताया है, से मिलने का नंबर दया लेकर आता है।
वह सो जाता है और सुबह दोनों अगले शहर की तरफ चल पड़ते हैं। यहां दया उससे एटीएम नंबर पूछता है जो भूलने की बीमारी के कारण वह सही बता नहीं पाते ।
चोर दया अब उसे अपने गांव ले जाता है जहां उसकी मां रहती है। मां अपने बेटे को दंद फंद छोड़ने को कहती है। मां बेटे का स्नेह देख बुर्जुग कहते हैं, तुम यहीं रुक जाओ मैं आगे बस से चला जाऊंगा। लेकिन दया अभी भी लालच की गिरफ्त में है। वह सुबह उन्हें लेकर अगले स्थान के लिए चलता है। उधर पुलिस को मारे गए लोगों के फोन रिकार्ड से एक नंबर कॉमन दिखता है, वह उसे सर्च करते हैं। उसकी लोकेशन उसी स्थान पर आती है जहां यह दोनों पिछले दिन थे। वहां भी एक खून हो चुका होता है।
अब आगे मार्मिक दृश्य है बाइक पर दया और बुजुर्ग जा रहे हैं साफ सुथरी सड़क पर। तभी फोन आता है, दया की मां का। वह बताती है कि पूजा के आले में दस लाख का चेक रखा हुआ है। दया सुनकर चौंकता है फिर फोन रख पीछे बैठे मॉरिसन से कहता है, आपने क्यों रखा यह चेक? वह कहते हैं मुझे लगा तुम इसके लिए योग्य हो।तुम्हे भी सामान्य जिंदगी जीने का अधिकार है।
कितनी बड़ी साम्यवादी और विनोबा भावे की प्रन्यासशिप की बात निर्देशक सहजता से कह देता है। बुरा युवक भी मजबूरी में, बेरोजगारी में बुरा है।वह भी चाहता है शांत और सीधी जिंदगी जीना पर उसके पास अभाव है धन का। उधर बुजुर्ग के पास धन है तो वह उससे अपनी इच्छानुसार मदद कर सकता है लोगों की, और वह करता है।
रामविलास शर्मा, विख्यात आलोचक अपनी पुस्तक, आस्था और सौंदर्य, में कहते हैं "उच्च वर्ग (एलीट क्लास) ही तय करता है आपके जीवन और कार्य को। बहुसंख्यक लोग अपनी निम्नावस्था को भी अपलिफ्ट करते हैं पर केवल उच्च वर्ग की शैली को देखकर, भले ही ऐसा करते करते उनकी पूरी जिंदगी ही बीत जाए।"
मैं कहता हूं हर एक की अपनी मौलिकता और अपनी लीगेसी है वह उसी पर रहे तो बहुत खुश भी रहेगा और कामयाब भी। क्यों हम दूसरों की होड़ करें?
तभी फिल्म दिखाती है मधु नामक एक बच्ची के यौन शोषण और आत्महत्या को। जिसके शिक्षक ने ही उसे शिकार बनाया।फिर वीडियो बनाकर मजबूर किया अपनी सहेली को लाने में, जिसे आगे दूसरों के पास भी भेजा और फिर विदेश बेच दिया।
गरीब माता पिता कोर्ट केस भी नहीं लड़ पाए और सभी बरी हो गए। पुलिस जब कत्ल की तफ्तीश करती है तो वह कोई भी सुराग या तारतम्य नहीं पाती। क्योंकि कोई मठाधीश, कोई पुलिस वाला, उद्योगपति, बस ड्राइवर तो कोई सामान्य शिक्षक वह भी अलग अलग शहर। पुलिस नहीं पकड़ पा रही।
यह सांकेतिक ढंग से बच्चियों के यौन शोषण के व्यापक ढंग को उजगार करता है।किस तरह हर वर्ग, व्यक्ति ने यौन शोषण किया।
अगले शहर के होटल में जब वृद्ध मॉरिसन बाथरूम में होते हैं तो एटीएम कार्ड बदलने जब दया उनका पर्स निकालता है तो उसमें से बहुत सारे सिम कार्ड गिर जाते हैं। उसे शक होता है। वह उनके आने से पहले पर्स रख देता है। मोबाइल चेक करता है तो उसमें लिखा होता है किसी को संदेश, " मुझे एक बच्ची की घर के काम के लिए जरूरत है। तीन लाख रुपए मैं तुम्हे इसके दूंगा।मिलने आओ इस जगह।"
यह दरअसल इस गिरोह के मुखिया को बुलाने की साजिश थी पर इसे दया समझता है कि यह वृद्ध घटिया और ढोंगी है।
वृद्ध फिर रात को शराब में नींद की दवाई मिलाकर दया को पिलाकर बाहर निकलता है। पर दया दवाई नहीं पीता और चुपके से उसके पीछे जाता है।
आधी रात को चौक पर वह इंतज़ार करता है उस मुख्य विलेन के आने का पर वह नहीं आता।
वह लौट आता है और उससे पहले तेजी से दया भी आकर बैड पर सो जाता है।
अगले दिन वह सारी बातें अपने दोस्त को बताता है और कहता है इसने मुझे इस्तेमाल किया, मुझे धोखा दिया। दोस्त राय देता है कि इसे शहर से बाहर मेरे फॉर्म हाउस पर ले आओ वहां देखते हैं इसको। उधर पुलिस भी मृतकों के मोबाइल से कॉल लोकेशन चेक करती उन्हें ढूंढने निकल पड़ती है।
रोमांचक अंत :_, फिल्म दया के दोस्त के फॉर्म हाउस पर और रोमांचक हो जाती है। जब वृद्ध को पता चलता है कि अंतिम अपराधी उस चौक पर क्यों नहीं आया था? उधर दया अभी तक आया नहीं है। क्या मॉरिसन बच पाएगा? क्या बच्चियों को बेचने वाले नेक्सस का आखिरी दरिंदा सजा पाएगा या नहीं? और यह सारे खून कौन कर रहा है?
इन्हीं प्रश्नों के साथ बेहद चौंकाने वाला क्लाइमेक्स सभी को बांध लेता है। जो प्रारंभ में बुरा और अच्छा दिख रहा था उनकी सच्चाई जानने के बाद वह भूमिकाएं बदल जाती हैं। फिर अंत तक आते आते वह गलत दिख रहे सही हो जाते हैं। असली राक्षस सामने आ जाता है जो शुरू से ही साथ था।
फिल्म नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती है। निर्देशक सुधीश शंकर ने रहस्य, रोमांच के साथ मानवीय संबंधों का ऐसा अद्भुत वितान रचा दिया है जिसे अवश्य ही सराहना मिलेगी।
बेहद खूबसूरती से हमारे लोक, गांव और छोटे शहरों को दिखाती फिल्म। अंत करता हूं विनोद कुमार शुक्ल, जो तेईस दिसंबर, 25 को अनंत यात्रा पर गए, की इन पंक्तियों के साथ, "जो सबकी घड़ी में बज रहा है / वह सबके हिस्से का समय नहीं।"
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(डॉ संदीप अवस्थी, कथाकार, पटकथा लेखक, कवि, देश विदेश से पुरस्कृत
मो 7737407061)