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Deepak Bundela Arymoulik

Deepak Bundela Arymoulik Matrubharti Verified

@deepakbundela7179
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तुम्हारे लिए....!

तुम्हारे लिखे हुए हर लफ्ज़ को
मैं रोज़ दिल से पढ़ता हूँ,
जैसे हर शब्द में कोई
अनकहा इज़हार छुपा हो।

खुद से लड़ता हूँ,
अपनी ही तन्हाइयों को मनाता हूँ,
फिर तुम्हारी एक शायरी पर
दिल की खामोशियों को जगाता हूँ।

मैं लिख देता हूँ
वो सब, जो कह नहीं पाता—
तुम्हारी यादों के सहारे
हर जज़्बात को क़लम बनाता हूँ।

पर तुम हो कि
तवज्जो का एक क़तरा भी नहीं देती…
मानो मेरी हर पुकार
हवा में घुलकर लौट आती हो।

कभी सोचा है?
ये शब्द यूँ ही नहीं बहते,
ये दिल की थकान हैं,
जो तुम्हें पुकारते-पुकारते
कविता बन जाते हैं।

मैं आज भी लिख रहा हूँ…
क्योंकि शायद किसी दिन
तुम्हारी नज़र ठहर जाए
और इन लफ्ज़ों में
मेरी तड़प, मेरी चाहत—
दोनों पढ़ ली जाएँ।

आर्यमौलिक

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तेरी ख़ामोशी ने कुछ ऐसा राज़ बताया है,
कि बातों से ज़्यादा खामोश लम्हों ने रुलाया है।

सिरहन

ये वही सिरहन है…
जब पहली बार दिल में किसी का नाम उतरता है,
धड़कनों की दहलीज़ पर
एक अनजानी सी खनक उभरता है।

ये वही सिरहन है…
जब आँखें किसी को देखकर
खुद-ब-खुद मुस्कुरा उठती हैं,
और पलकें हर झपक में
एक नई दास्तान लिखती हैं।

ये वही सिरहन है…
जब वो सामने हो तो
जुबाँ पर शब्द भी हल्के पड़ जाते हैं,
और छूकर हवा तुम्हें
उसके होने का अहसास कर जाते हैं।

ये वही सिरहन है…
जिसमें दिल अपनी पहली उड़ान भरता है,
प्यार अभी बोली नहीं सीखता…
पर हर सांस में उसका नाम करता है।

यही है प्रेम की वो पहली सिरहन—
जो उम्र भर याद रहती है,
दिल को पहली बार
सचमुच दिल बना देती है।

आर्यमौलिक

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अंगन में खेलती थी गुड़िया, चहकती थी चिड़िया,
आज दोनों की यादों से ही भरता है ये सीलन-सा दामन।

कभी खिलखिलाहट से गूंजता था मेरा बूढ़ा-सा आँगन,
आज खामोशी ऐसे बैठी है जैसे कोई कर्ज़ उतारना हो।

गुड़िया जब दुल्हन बनकर ससुराल चली गयी,
उसके साथ उड़ गयी वो चिड़िया भी,
जो मेरे सिरहाने सुबह की धूप रख जाती थी।

मैं बस चौखट पर बैठा रह जाता हूँ,
हथेलियों में उसके बचपन की गर्माहट दबाए हुए,
कभी उसकी हँसी, कभी उसकी माँग का सिंदूर
इन दीवारों से टकराकर वापस मेरे सीने में गिर पड़ते हैं।

क्या कहूँ… बाप का दिल भी अजीब होता है,
बेटी को विदा करते वक़्त सभी कहते हैं—
“ये खुशी का मौका है।”
पर कोई नहीं जानता कि उस खुशी का आधा हिस्सा
मेरे भीतर रोता हुआ रहता है।

आज जब हवा चलती है,
तो लगता है जैसे गुड़िया दौड़ती हुई आ जाएगी—
“बाबा, देखो मैंने क्या बनाया!”
पर हवा सिर्फ़ सूनेपन को हिलाकर
मुझे याद दिलाती है कि वो लौटी नहीं।

आँगन में पड़ी चारपाई पर
मैं हर शाम सोचता हूँ—
घर बदलने से बचपन नहीं लौटता,
बेटी के जाने से बाबू का मन उजड़ जाता है।

गुड़िया चली गयी तो चिड़िया भी उड़ गयी,
और मैं…
बस उसी उड़े हुए आकाश के नीचे
अपनी अधूरी धड़कनों के साथ बैठा हूँ।

आर्यमौलिक

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ज़ुल्मत-ए-हालात में दब कर भी मुस्कुराता है वो,
अपने टूटे हुए ख़्वाबों को खुद ही समझाता है वो,
किसी को क्या ख़बर उसके दर्द की गहराई की,
हर तमाशे में मज़बूर-सा नज़र आता है वो।

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तप जाता है, खप जाता है वो अपने कर्तव्य निभाने में,
जलता है दीपक-सा हरदम, पर रोशन रहता ज़माने में।
थककर भी जो थमता नहीं, बस सत्य-धर्म की राहों पर,
जीता है वो खुद से ज़्यादा, अपनी फ़र्ज़ की कहानी में।

आर्यमौलिक

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“जब तक दिखाई देते हैं”

यह दुनिया तालियों की गूँज में मुस्कुराती है,
पर तन्हाइयों की ख़ामोशी किसी को सुनाई नहीं देती…
सोशल मीडिया के इस मेले में
हर रिश्ता बस पिक्सल जितना हल्का रह जाता है।

जब तक आपकी तस्वीरें रोज़ चमकती हैं,
लोग आपको अपनी दीवारों पर सजाकर
दिल जैसा दिखता एक निशान दे जाते हैं।
कुछ पल को लगता है
वाह, कितनी मोहब्बत है यहाँ!
पर हक़ीक़त ये है कि
ये मोहब्बत स्क्रीन से बड़ी कभी नहीं होती।

आप ज़रा-सा ठहर जाएँ,
ज़िंदगी की भीड़ में खो जाएँ,
चार दिन दिखें नहीं…
तो ये दुनिया मानो आपको
भूलने की जल्दी में नज़र आती है।

जहाँ कल आपके नाम की चर्चा थी,
आज वहाँ एक नई पोस्ट का शोर है।
जहाँ आपने दिल खोलकर लिखे थे शब्द,
वहीं अब किसी और की मुस्कान तैर रही है।

कभी-कभी लगता है
शायद हम लोग नहीं,
हमारी उपस्थितियाँ पसंद किए जाते हैं—
जब तक हैं, तब तक ज़रूरी;
गायब होते ही
जैसे कभी थे ही नहीं।

पर सच तो यह है कि
दिल की गर्माहट
लाइक्स की गिनती में नहीं मिलती,
और सच्चे लोग
नोटिफिकेशन की तरह
कभी ऑफ़ नहीं होते।

इसलिए जो वक़्त
ख़ुद के साथ बीत जाए
वह सबसे सच्चा होता है।
और जो लोग
बिना आपकी ऑनलाइन छवि के भी
आपको याद रखें
वही आपके हैं,
बाकी सब सिर्फ़ भीड़ हैं।

आर्यमौलिक

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जंगल मत काटो

जहाँ मिटाना है तो जंगलों को काट दो,
क्या सच में इतनी सस्ती है ये धरती,
और ये साँसें भी बाँट दो?

पेड़ खड़े थे चुपचाप हजारों बरसों से,
छाँव में रखते थे हमें अपने हौसलों से,
हमने ही उनके दिल पर कुल्हाड़ी चला दी,
लूट ली धरा की हँसी कुछ लालचों के फ़सलों से।

जहाँ मिटाना है तो नदियों को सुखा दो,
पर याद रखना
सूखी धरा पर आँसू भी उग नहीं पाएँगे,
न कोई गीत, न कोई जीवन लौट आएगा।

आज अगर जंगल काट दोगे,
कल हवा भी साथ छोड़ देगी,
धूप जलेगी चुभती धधकान-सी,
धरती राख की चादर ओढ़ लेगी।

समय है संभल जाओ मानव,
जंगल नहीं,
अपने भीतर के अँधेरों को काटो।
पेड़ बचेंगे तो कल भी साँसें बचेंगी,
वरना ये जीवन पथरीले सन्नाटों में बिखर जाएगा।

आर्यमौलिक

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जो आया मुझे पढ़कर चला गया,
कोई दो लफ़्ज़ लिखकर चला गया,
कोई पन्ने मोड़कर चला गया,
पर जो भी आया — मुझे पूरा न पढ़ सका।

मैं किताब था…
ज़िंदगी के ख़ामोश शेल्फ़ पर रखा,
धूप-छाँव से स्याही धुँधली हुई,
मगर अर्थ अब भी ज़िंदा था।

किसी ने शीर्षक देखा, आगे न बढ़ा,
किसी ने प्रस्तावना में ही दम तोड़ दिया,
किसी को मेरा कवर भाया बहुत,
अंदर के फ़साने ने किसी को रुलाया नहीं।

जो आया, अपने मतलब की पंक्तियाँ चुनी,
बाक़ी अध्यायों को अनकहा छोड़ दिया,
किसी ने मुझे कहानी समझ पढ़ा,
किसी ने मुझे बोझ समझ छोड़ दिया।

मैं हर मोड़ पर एक सच छुपाए था,
हर अध्याय में एक सवाल सोया था,
मगर जो भी पढ़ने बैठा था,
वो ख़ुद की किताब में खोया था।

काश कोई ऐसा भी आया होता,
जो मेरे हर पन्ने से गुज़रता,
मेरी ख़ामोशी के अर्थ पढ़ता,
मेरे टूटे हर्फ़ों को सहेजता।

पर अब भी मैं वहीं रखा हूँ,
उसी धूल, उसी उम्मीद के साथ,
कि कोई तो आएगा एक दिन,
मुझे पूरा पढ़ेगा… आख़िरी पन्ने तक।

आर्यमौलिक

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जो बहुत था, वो भी काम पड़ गया,
दम अहंकार का अब नम पड़ गया।

कलाई पर बांधे थे हमने जो सपने,
वक़्त के पत्थर पर सब घिस पड़ गया।

शब्दों की तलवारें, निगाहों का गुरूर,
एक सच की आंधी में थम पड़ गया।

जो खुद को आसमान समझ बैठा था,
वो बूंद-भर बनकर जमीन पर गिर गया।

कई जीतों का बोझ था कंधों पर,
एक हार में सारा भ्रम ढह गया।

आज शीशे सा साफ़ दिखता है सब,
कल जो धुंध था — वो भ्रम पड़ गया।

सीखा है जीवन का अंतिम फ़लसफ़ा,
जो झुक गया वही ऊँचा उठ गया।

आर्यमौलिक

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