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Madhu Shalini Verma

Madhu Shalini Verma

@madhushaliniverma056780


दस्तक

कभी-कभी तन्हाइयों में,
अंधेरी रात की गहराईयों में,

जब याद तेरी सताती है,
जुदाई तेरा बस रुलाता है,

मैं खुद को समझाती हूँ,
दिल में उसे छुपाती हूँ,

फिर ख्वाहिशें करवट लेती हैं,
हसरतें मुझे जगाती हैं।

मैं उन्हें बहलाती हूँ,
आँखें बंद कर सो जाती हूँ,

फिर तमन्ना शरगोशी करती है,
चाहत मुझे तड़पाती है,

बंद आँखें खुल जाती हैं,
मन भाग-भाग उठता है,

तुम्हारे दर पे दस्तक देता है,
तुम उस दस्तक को सुनते हो,
क्या, तुम उस दस्तक को सुनते हो..???



मधु शलिनी वर्मा

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सपना

क्या देखा है, कभी सपनों को,
गुलाबी से लाल, लाल से कत्थई,
और फिर कत्थई से काला होते हुए?

क्या देखा है कभी, सपनो को सपनों के अंदर,
टूटते हुए, और उन टुकड़ों को, किसी और को,
खुली आंखों के सामने, चुरा के ले जाते हुए?

क्या देखा है, सपनों में तैरना जानने के बाद भी,
खुद को डूबते हुए?
क्या देखा है बिन बंधन के, खुद को बांधे हुए,
और भागना चाहो तो, हाथ-पैर जकड़े हुए?

क्या देखा है सपनो में खुद को इमारत से गिरते हुए?
क्या कभी चिल्लाया है सपनों में, और
लाख कोशिश के बावजूद, आवाज़ निकली ही नही?

क्या है सपना, क्यों है सपना,
सपनो के दुनिया में इन दिनों मैं,
सपनों की हक़ीक़त ढूँढती रहती हूँ।

मधु शलिनी वर्मा

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कसक


अपने सफेद हुये बालों को रंगती, रंगवाती
कंसीलर से चेहरे के दाग-धब्बो को
बार-बार ढकती, पुतवाती
कभी काजल से तो कभी आई लाइनर से
और मस्करे से आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच,
आँखों की झुर्रियों को छुपाती
और खूबसूरत दिखने की चाह में,
लोगों के चेहरे पे आने वाली
व्यंग वाली मुस्कान की वजह बन जाती।

पतिदेव के सोशल मीडिया अकाउंट में,
फीमेल दोस्तों की बढ़ती तदातों को
देखती फिर अनदेखा करती
फिर भी मौका मिलते ही उन सब के
अबाउट अस कॉलम को बार-बार पढ़ती
स्करोल कर हर तस्वीर की जगह
खुद को रखती, तरह-तरह के पोज़ बनाती
सेल्फी लेती, खुद से ही तुलना कर डिलीट करती
मुस्कुराती और खुद को ही बेवकूफ बनाती।


देर रात जब कभी घुटनों और एड़ियों के
दर्द से छटपटा कर अक्सर जाग जाती,
और मोबाइल की रोशनी में प्रियवर को
चैट करते वक्त मुस्कुराते देखती
जल-भून जाती, कोयला बनती
फिर राख बन उड़ती और उड़ाती
सब कुछ देखती पर अनदेखा करती
और खुद से खुद को तस्सली दिलाती
अब तो पच्चीस से ज़्यादा साल गुजार चुके
का दिलासा दे, आँखों को मींचे सपनों में खो जाती।

कोशिश करने पे भी बढ़ते वजन को जब न रोक पाती
अब क्या मुझे शादी करनी है, कह बच्चों को चुप कराती
ओपन पल्लू में ज़्यादा अच्छी लगती हूँ न कहती
तो कभी निकले हुये पेट को दुपट्टे से छुपाती
ग्रुप फ़ोटो लेते हुये बीच में घुस प्यार की आड़ में
मोटापे को कैमरे की नज़रों से न जाने
कितनी बार ढंकती और चुराती
और, खुश होने की कोशिश करते हुये
थोड़ी और भी मायूस सी हो जाती।

कभी दूर से जोड़ो को हाथ थामे आते देखती, और
कुछ पल में ही खुद से दूर निकलता देखती रह जाती
और होड़ लगाने की नाकाम कोशिश मे
हाँफते हुय घुटनों की दर्द से असहाय
कमर पकड़ वहीं पे थक कर बैठ जाती
जिन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया
जिसके साथ जीवन बिताया, उनके तानों से
छटपटाती, घबराती, खुद से बतियाती,
पसीने और आँखों की नमकीन पानी में
बहती जाती और सिर्फ बस बहती ही जाती।

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कॉपीराइट@मधु शलिनी वर्मा

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मैं


मैंने बताना तो चाहा,
तुमने सुना क्यों नहीं?
मैंने जताना तो चाहा,
तुम्हें यक़ी हुआ ही नहीं?

तुम्हें इंतज़ार रहा,
मेरे पलट जाने का।
मैं सोचती रह गयी,
तुमने पुकारा क्यों नहीं?

पल बीतें, मौसम बदले,
वक़्त ठहरा ही नही।
बदलती रहीं तारीखें,
हम बदले क्यों नहीं?

छोड़ देते काश,
अपने "मैं" को हम।
हम सोचते ही रहे,
हमसे हुआ क्यों नही?



मधु शलिनी वर्मा

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हथेली में तो मैं रहती हूँ।


आज कल क़िताबों की दुनिया में,
तुम्हें जी लिया करती हूँ।
तुम हक़ीक़त में जीते हो,
मैं फैंटसी में तुम्हें पा लिया करती हूँ।।

पढ़नी आती है, तुम्हें सबकी किस्मत,
तो, जरूर मेरा भी पढ़ा होगा।
तारीख और वक़्त के हिसाब से,
पलड़ो में जरूर मुझे भी तौल होगा।।

इल्म तो होगा तुम्हे जरूर,
मेरी तीरगी से भरी,
जिंदगी और फ़सानो का।
तभी, कुछ सुनहरे पल बिखेर कर,
खुश हो लेने के लिए,
मुझे अकेला छोड़ा होगा।।

मुमकिन हैं, कभी पढ़ के,
मेरी नही, अपनी क़िस्मत,
तुम मुझे जान पाओगे।
मुकम्मिल होगा ये,
जब तारीखों के साथ,
लकीरों को भी पढ़ना सिख जाओगे।।

क्योंकि छोटी ही सही,
तुम्हारी हथेली में,
मेरे नाम की भी इक लकीर है।
तारीखे झूठी हो सकती है,
लकीरें तोें बस सच की
हीं जुबां बोलती हैं।।

और गर फिर भी,
दिलो-ओ-दिमाग में,
मैं तुम्हारे आती नहीं हूँ।
हमसफ़र, हमदम, हमराज़,
या दोस्त भी कहलाती नही हूँ।।

तो, फिर चलो,
ये सोच के ही खुश हो रहती हूँ।
तुम्हारे दिल मे न सही,
हथेली में तो मैं रहती हूँ।।


मधु शलिनी वर्मा

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