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तुझसे मिलने की चाहत अब आदत बन गई है, तेरी हर बात मेरी इबादत बन गई है। अब तुझसे दूर रहना मुमकिन नहीं, क्योंकि तू ही मेरी मोहब्बत बन गई है। तेरे बिना ये ज़िन्दगी अधूरी सी लगती है।
धतूरा मरीचिका धूप के एकांत किनारे खामोशी से उगता है धतूरा— नीले विष का मौन फूल, जिसे छूने से प्यास नहीं बुझती बल्कि भीतर जलते हैं भ्रम और मरीचिका के अग्निशिखर। धरती की तपती छाती पर वह उगता है जैसे कोई भूले-बिसरे पाप का प्रतीक— उसके नाजुक काँटे हवाओं में गूंजते हैं भ्रमित आत्माओं की चीख़ बनकर। मैं चला था उस पथ पर जहाँ नदियाँ भी बोलती नहीं, सूरज भी बुझता है कभी-कभी उदासी की थकावट से। और वहीं, एक उजले पत्थर पर धतूरा मुस्करा रहा था, जैसे कह रहा हो— "आओ, मुझे छुओ, तुम्हारे सारे प्रश्न मैं एक विष में घोल दूँगा..." लेकिन यह मुस्कान थी सिर्फ़ एक मरीचिका— मायाजाल का रूप, एक जल का भ्रम रेगिस्तान की रेत पर। कभी किसी जीवन में धतूरा फूल बनकर नहीं आया, वह हमेशा विष रहा— विष, जो कविता बन सकता था अगर समय कुछ और होता। कवि की आंखों में छिपे थे कई दृश्य— धुआं, राख, और एक स्त्री जो धतूरे के छांव में चुपचाप अपना चेहरा ढँक लेती थी। क्या वह स्त्री थी या कोई भूली हुई आत्मा? क्या वह प्रेम थी या किसी युग की गूंगी प्रतीक्षा? जीवनानंद के शहर में यह फूल नहीं खिलते, फिर भी हर कविता में उसका कोई ना कोई बीज चुपचाप उगता है। एक सूनी सड़क, एक टूटे पुल के नीचे मैंने देखा था उसे— धतूरा, मरीचिका, और मेरी छाया— तीनों एक-दूसरे से कुछ कहे बिना चले गए अलग दिशाओं में।
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