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Rαᴠɪna_____

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अध्याय:-३ कर्मयोग

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: |
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||3.20||

अध्याय:-३ कर्मयोग

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: || 3.19||

अध्याय:-३ कर्मयोग

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: ||3.18||

अध्याय:-३ कर्मयोग

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || 3.17||

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अध्याय:-३ कर्मयोग

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||3.16||

अध्याय:-३ कर्मयोग

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || 3.15||

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अध्याय:-३ कर्मयोग

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: || 3.14||

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अध्याय:-३ कर्मयोग

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || 3.13||
- Rαᴠɪna_____

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अध्याय:-३ कर्मयोग

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता: |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स: || 3.12||
- Rαᴠɪna_____

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अध्याय:-३ कर्मयोग

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: |
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ||3.11||