Quotes by vrinda in Bitesapp read free

vrinda

vrinda

@vrinda1030gmail.com621948

कल देर से फिर,
काली रात से बात हो गई

है कितना अंधेरा उसके पास,
इस बात पर बात हो गई

गिना कर अपना अंधेरा,
चांद तारो के साथ वो मायूस हो गई

देखकर उसको मायूस ऐसे,
मैं भी अपने पन्ने पलटने पर मजबूर हो गई

पन्ने पूरे खुलते,
इस से पहले ही रात को घबराहट हो गई

बिना चांद तारो के ,
इतना अंधेरा देख रात भी हैरान हो गई

उसके इस सवाल पर,
मै मुस्कुरा कर रह गई

रहती हूं इस तरह कैसे,
रात के सवाल पर मैं मौन हो गई

जवाब तो शायद यही था,
कि बस इस अंधेरे की आदत मुझे हो गई

Read More

देखा एक ख्वाब
मैनें भी आज बहुत बड़ा ।

जिनमें हाथ में थी किताबें और
कंधें पर स्कूल का बस्ता लदा हुआ ‌,
क्योंकि पढ़ने का है मुझको शौक बड़ा।

पर आंख खुली तो फिर पाया खुद को
करछी, बेलन लिए चौके में खड़ा हुआ।

मेरा भईया जाए स्कूल और
मैं आंखों से लालच टपका रही खड़ी।
बाबा‌ जा रहे छोड़ने भईया को
और मैं वहीं पर झाडू पोंछा लगा रही।

Read More

गुब्बारें सा ही हल्का काश,
हो जाए मेरे इन बड़े सपनों का भार।

तो शायद पंख लगा कर उड़ जाती, मैं भी इस नीले ऊंचे आकाश के पार........

Read More

पैरो मे पड़ी थी बेढियां,
उनसे न किसी ने आज़ाद किया।

पैरो मे पड़ी थी बेढियां,
उनसे न किसी ने आज़ाद किया........

अब तो लगता है कि शायद...

आजा़दी का वो पन्ना
खुदा ने भी लिख के
हमारे हिस्से से मिटा दिया......


चीखी चिल्लाई इतना में,
पर किसी ने भीे ना मुझ पर ध्यान दिया।

चीखी चिल्लाई इतना में
पर किसी ने भी ना मुझ पर ध्यान दिया.....

अब तो लगता है कि शायद.....

हमारी खामोशी ने ही
मन के शोर को अंदर कहीं दफ़्ना दिया .....


पैरो मे पड़ी थी बेढियां
उनसे न किसी ने आज़ाद किया.....

Read More

अपने दोनो कंधो पर  मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं  बेटी कहलाती हूं।


अपने पैरों में मैं
इनके सम्मान की बेड़ियां पाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर  मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं  बेटी कहलाती हूं।



अपनी उमर के साथ साथ
मैं उनके‌ लिए और भी
कीमती हो जाती हूं
अगर हूं मैं सुंदर
तो उनके मन में
अनजाना डर बैठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।


अपने दोनो कंधो पर  मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं  बेटी कहलाती हूं।


ना हो जो रंग रुप मेरा
तो भी उनकी चिंता बन जाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
सारे अरमान पूरे कर उनके
विदा हो कर मैं उन्हें छोड़ जाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।


अपने दोनो कंधो पर  मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं  बेटी कहलाती हूं।


छोड़ जाने के बाद उनको मैं
जब अपने ढर को जाती हूं
तो खुद को उस घर में
अब मैं मेहमान पाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर  मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं  बेटी कहलाती हूं।

शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं

Read More