SHIKANJA in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | शिकंजा

Featured Books
  • One Step Away

    One Step AwayHe was the kind of boy everyone noticed—not for...

  • Nia - 1

    Amsterdam.The cobbled streets, the smell of roasted nuts, an...

  • Autumn Love

    She willed herself to not to check her phone to see if he ha...

  • Tehran ufo incident

    September 18, 1976 – Tehran, IranMajor Parviz Jafari had jus...

  • Disturbed - 36

    Disturbed (An investigative, romantic and psychological thri...

Categories
Share

शिकंजा

यही कोई दो- पांच साल हुए हैं जब इस गांव में भी बीसवीं सदी ने पांव धरे हैं। बच्चों के लिए छोटी सी पाठशाला बन गई है। बरसों से मास्टरजी का छोकरा घनश्याम नीम के नीचे ही चलाता था अपना छोटा सा मदरसा।अब ईंट चूने की इमारत वाला स्कूल बन गया है।सरकारी मास्टर लोग भी आ गए हैं दो चार। नल बिजली आ गई है गांव में।सबसे पहले राम जीवन पटवारी के खेत में कुएं पर लगी मोटर।अब तो पांच सात घरों में लग गई है।एक छोटा सा दवा खाना भी खुल गया है, जिसमें छोटी मोटी बीमारी की दवा दारू हो जाती है। गांव का अपना ही डाक खाना भी खुल गया है।स्कूल के पास ही बने उस छोटे से कमरे में डाक बाबू पान खाकर ऊंघता है सारा दिन।खिड़की के पास का गज़ भर का हिस्सा पान की पीक से लाल हो गया है। दिन में दो बार बस भी आती है यहां। उसी से डाक आती है।बस यहां आकर ठहरती है, मुसाफ़िर चढ़ते उतरते हैं यहां। यहीं पोस्टमैन बद्री नारायण डाक का थैला उतारता है बस से। फ़िर बोरा खोलकर चिट्ठियों की छटाई करता है।उन पर डाक खाने की मोहर मारता है।तभी दो चार लोग आकर डाक बाबू के पास आकर बैठ जाते हैं, चिट्ठी पत्री देख जाते हैं कभी कभी यहीं जम जाती है बैठक। चर्चा हो जाती है गांव शहर की,राजनीति की,घासलेट और साग भाजी के भावों की, इंदिरा गांधी की।
तरक्की कर रहा है गांव, सौ दिन चले अढ़ाई कोस की ररफ्ट्ताााा से ही। पर एक उबी खूबी है यहां।इस गाां में
व कोई भी छोटी मोटी बात हो तो लोगों का ध्यान बरबस ही उधर खिंच जाता है।वैसे तो गांव कोई भी हो, सब जगह ऐसा ही होता है।मगर यहां तो कोई शहरी बाबू मोटर साइकिल लेकर चला आए,किसी सरकारी हाकिम की जीप धूल उड़ाती आ खड़ी हो,बस इतने में ही अजूबा मिल जाता है गांव भर को।आसपास धूल मिट्टी में खेलते बच्चे तो खैर अपना खेल तमाशा भूल कर चारों ओर घेरा बंदी कर ही लेते हैं, बड़े बड़े मर्द मानस भी इधर उधर गुजरते में तिरछी निगाहों से ताकना नहीं भूलते।और तो और, ज़रा सा शोर शराबा हुआ नहीं कि छतों चौबारों से जनानियां परदे की ओट ले लेकर झांकने लगती हैं। अच्छा भला आदमी तमाशा बन कर रह जाता है यहां।
आज तो दवा खाने के सामने अच्छा खासा मजमा जुड़ा हुआ है। रंग बिरंगे चित्रों और पोस्टरों से सजी गाड़ी सामने के छोटे मैदान में खड़ी है।अस्पताल के चपरासी के बार बार दुत्कारने के बाद भी गांव भर के बाल गोपाल आ खड़े हुए हैं और कौतुक से देख रहे हैं। गाड़ी में बैठे लोग पर्चे भी बांट रहे हैं। थोड़ी देर पहले भोंपू पर चिल्ला चिल्लाकर बोल भी रहा था एक आदमी।शहर के अस्पताल से बड़े डॉक्टर लोग भी आए हैं।साथ में सफ़ेद झक्क, अंग्रेज़ी में गिटर पिटर करने वाली नर्सें भी हैं। गांव में परिवार नियोजन का कैंप लगा है। गोलियां दवाएं मुफ़्त बांटी जा रही हैं। नर्सें घरों में जा जाकर महिलाओं को समझा रही हैं और उन्हें ऑपरेशन के लिए तैयार कर रही हैं। कोई कोई औरत तो शर्म से पानी हो जाती है नर्सों की बातें सुनकर, और देर तक समझाने बुझाने के बाद भी राजी नहीं होती। कोई कोई तो मुंह पर पल्ला खींच कर भीतर ही भाग जाती है।कोई कह रहा था कि जो लोग अपनी मर्ज़ी से आगे संतान न होने का ऑपरेशन करवाएंगे, उन्हें सरकार डेढ़ सौ रुपए देगी।
पान की दुकान पर बैठे नारायण ने रघु की तरफ़ देखा और कहा- तू भी अब ऑपरेशन करा ले रे, पांच पांच बच्चे हो गए हैं।अब यही अच्छी तरह पल जाएं वही बहुत है।
तभी सोहन ने बूढ़े नारायण को जवाब दिया- अरे काका,अभी तो शुरू हुई है इसकी जवानी।इस उमर में इन सब चक्करों का क्या काम? जब तक कुतुब मीनार खड़ी है तब तक तो होने दो, बच्चों का क्या है, बच्चे तो जैसे पांच पलेंगे वैसे ही सात पल जाएंगे, जब तक मशीन गरम है तब तक तो लगे रहने दो।
सोहन के इस व्यंग्य से सामने बैठा रघु शरमा गया।उससे कुछ बोलते भी नहीं बन पड़ा।
करीब के घरों में आंगन में बैठी औरतों में खुसर फुसर हो रही है। बड़ी बूढ़ी महिलाओं के तो अचरज का पारावार नहीं है,इस तरह की बातें सुनकर।किशोरी की दादी बड़बड़ा रही है- हे राम, क्या ज़माना आ गया है। बाल बच्चे भी कोई खेती बाड़ी की तरह हैं कि जब चाहो फसल लेलो, जब चाहो न लो। अरे ये सब तो भगवान की लीला है, ऊपर वाला देगा तो बच्चा होगा ही।
गंगा वहीं खड़ी थी, बोली - अरे अम्मा,अब तुम्हारा ज़माना नहीं है,अब तो पढ़ाई लिखाई से लोग इतना समझ गए हैं कि बच्चे जितने कम होंगे,उनकी देखभाल, पाल पोस उतनी ही अच्छी तरह से होगी।ठीक भी है,दो बच्चे होंगे तो उन्हें अच्छी तरह पढ़ा सकते हैं, अच्छा खिला सकते हैं, अच्छा पहना सकते हैं। बेकार, निकम्मे और जाहिल आठ आठ बच्चों की फ़ौज से तो दो बच्चे ही अच्छे हैं।
गंगा की मां बेटी के इस सीधे कटाक्ष से तिलमिला गई। उसका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। बोली - अरी जा जा,तू उस कुलच्छिनी नर्स की बातें क्या सुन आ ई कि तेरा तो भेजा ही फ़िर गया। भला बाल बच्चे इस तरह दवा दारू से रोके जा सकते हैं? फ़िर दुनियां में जो आता है, वो खाने के लिए केवल पेट ही तो नहीं लाता, साथ में दो हाथ भी लेकर आता है।भगवान उदर बाद में बनाता है,पहले निवाला बना देता है,तब भेजता है जन्म देकर किसी को धरती पर।दो बच्चे के बाद क्या जवान पति के नीचे लेटने को मना कर देगी औरत?
-इन्हीं बातों ने तो बेड़ा गरक कर रखा है।अब तुम्हीं सोचो अम्मा, रघु भैया के पांच पांच बच्चे हैं, इंदर भैया के कैलाश अकेला है, ज़मीन का टुकड़ा दोनों का बराबर, आय आमद दोनों की एक सी, फ़िर इंदर भैया कैलाश की देखभाल अच्छी तरह से कर सकते हैं या नहीं? रघु भैया को उतने ही में कितने सारे लोगों का पेट पालना है?गंगा बोली।
इस व्यक्तिगत आक्षेप से गंगा की छोटी भाभी और रघु की घरवाली अनुसुइया,जो वहीं बैठी थी,भीतर तक जलभुन गई। उससे चुप नहीं रहा गया। बोली - घर में नहीं होगा,तो भी किसी के दरवाजे पर मांगने नहीं जाएंगे जीजी।
पर उसकी बात का अनसुना करके अम्मा ही फ़िर बोल पड़ी - अरी तू क्या समझे। चली है मुझे भी समझाने। गांव में जमीन जायदाद हो तो उसपर निगरानी करने वाले चार जवान घर में होते हैं, है किसी की मजाल जो आंख टेढ़ी करके देखे? और बेचारा एक बेटा हो तो लोग यहां चील कौवों की तरह लूट खाएं।राम न करे,उसे भी कुछ हो हवा जाए तो बस,बिल्कुल वंश ही गंवा बैठे।
सास की इस उक्ति से अनुसुइया को बल मिला।उसने ननद गंगा की ओर विजयी भाव से देखा। गंगा कुछ जवाब दे, उससे पहले ही उसके पिता भीतर आ गए और मां बेटी का वार्तालाप बंद हो गया।
रघु के पिता आते ही पीढ़े पर बैठ गए।जेब से तम्बाकू की डिबिया निकाली और हथेली पर चूना लेकर मलने लगे। औरतें सब उठ कर भीतर चली गईं।
रघु के पिता,जिन्हें गांव में सब लालाजी कह कर पुकारते थे,वहीं गांव में एक छोटी सी दुकान करते थे। बीचों बीच गांव में थी दुकान,और नोन तेल लकड़ी जैसी जरूरत की सब चीज़ें रखते थे।सो आमदनी भी गुजारे लायक हो ही जाती थी। बारह तेरह बीघा जमीन भी थी गांव में,जिसका बंटवारा उन्होंने अपने जीते जी ही कर दिया था,  जिससे बाद में भाइयों में सिर फुटौव्वल की नौबत न आए।
उनका सबसे बड़ा बेटा इंदर पंचायत में चपरासी था और पास ही अलग मकान बना कर रह रहा था। रसोई अलग हो गई थी मगर संबंध अच्छे ही बने हुए थे और आना जाना भी खासा था।उसकी उम्र चालीस साल के लगभग थी और उसे बस एक ही बेटा था, कैलाश।
मंझला बेटा रघु पहले तो खेती ही करता था,मगर जब से गांव में सहकारी समिति का दफ़्तर खुला था,वह उसमें काम पा गया था।उसकी उम्र अड़तीस साल थी और उसकी बहू पांचवे जापेपट कर चुकी थी।
रघु से छोटी चार बेटियां थीं।तीन का ब्याह तो बाहर किया था सो वह पराए गांवों में चली गई थीं, लेकिन सबसे छोटी गंगा इसी गांव में रामदीन को ब्याही थी।उसकी ससुराल यहां पास ही में थी सो चाहे जब चली आती थी। गंगा से छोटा फ़िर लालाजी का सबसे छोटा बेटा था सूरज।
सूरज अठारह को पार कर रहा था मगर अब तक उसका ब्याह नहीं किया था।देखने में हट्टा कट्टा था और आदतों में मस्त मौला।उसके हिस्से की ज़मीन पर अभी बाप से मिल कर ही खेती होती थी। पांचवीं कक्षा के बाद उसने उसने पढ़ना छोड़ दिया था और तब से गांव में बेलगाम सांड की तरह इधर उधर घूमा करता था।ब्याह करने को भी राजी नहीं होता था।
सूरज को एक लत थी दारू पीने की।जाने कब से वह पीना सीख गया था।उसका ये हाल था कि कहीं से दो चार रुपए हाथ आए और यार दोस्तों के साथ मिलकर सीधा मोतीबा के दारू के ठेके पर पहुंच जाता। शुरू शुरू में घर वालों से लुक छिप कर पीता था,मगर दो एक बार इंदर व रघु ने पकड़ लिया,तभी से आंख से लिहाज़ बिल्कुल ही उतर गया।कितनी ही बार मार भी पड़ी उसे,पर वह किसी की सुनता ही नहीं था।न ही उस पर कुछ असर होता था। हार कर, झक मार कर घर वालों ने भी कहना छोड़ दिया था।
लालाजी उसे लेकर बहुत चिंतित थे,और जैसे भी हो उसका ब्याह कर देने की फ़िक्र में थे।मगर वह था कि शादी का नाम लेते ही बिदकता था। घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देता।विवश होकर लालाजी को चुप होकर बैठ जाना पड़ता।उसे कितने ही धंधों में भी लगाने की कोशिश की,मगर काम तो कोई उसके बस का था ही नहीं।खेत पर भी उससे काम नहीं होता था।उसे तो बस जहां चार पैसे हाथ में आते, सीधा पहुंचता दारू की दुकान पर। जाने कैसी लत लगी थी कि उसे कुछ सूझता ही नहीं था।
शाम को जब परिवार नियोजन वाले गांव में पर्चे बांटते और भोंपू पर चिल्लाते हुए घूम रहे थे,सूरज अपने तीन चार साथियों सहित बावड़ी के किनारे बैठा था। थोड़ी देर पहले वे लोग किसी खेत से गन्ने तोड़ कर लाए थे, वहां बैठे वही खा रहे थे।
सूरज का दोस्त महेश बोला- यह परिवार नियोजन वाले हैं न, घर घर घूम कर लोगों को ऑपरेशन के लिए तैयार कर रहे हैं,और यदि अपनी मर्जी से कोई ऑपरेशन करवाए तो उसे रुपए भी देते हैं।
- क्या? सूरज के कान खड़े हो गए।
- हां,वह अस्पताल का चपरासी है न हीरा,वह बता रहा था कि यहां पर परिवार नियोजन का कैंप एक सप्ताह तक लगेगा।वे लोग औरतों के लूप लगाते हैं और मर्दों की नसबंदी करते हैं।देखा नहीं,वहां नाम लिखवाने वालों की कैसी भीड़ लग गई थी? महेश बोला।
- तभी शायद वो सफ़ेद कपड़ों वाली छोकरियां घर घर में घूम घूम कर औरतों को समझा कर ला रही थीं।मगर यार वहां तो सब तमाशा देखने वालों की भीड़ है, कटवाने वाले थोड़े ही हैं! सूरज के एक अन्य साथी ने बताया।
सूरज की आंखों में एकाएक चमक आ गई।उसका ध्यान न जाने किस उधेड़बुन में खो गया।उसे याद आया, मोती बा का कितना रुपया उस पर उधार चढ़ गया है। पिछले दिनों इसी बात को लेकर एक दिन झगड़ा फसाद भी हो गया था। मार पीट तक की नौबत आ गई।किसी तरह बात रफ़ा दफा हुई। वरना पुलिस केस बन जाता। सूरज ने सोचा,घर से तो अब धेला छदाम भी मिलता नहीं है। उधार रोज रोज कौन दे?और आख़िर किस बूते पर? फ़िर दारू पीने के लिए पैसा कहां से आए।कई बार सूरज ने सोचा कि ये लत साली किसी तरह छूट जाए,मगर सब ख्याल दफा हो जाते हैं जब जेब गरम होती है।
उसने महेश से पूछा - ये लोग क्या क्या करते हैं इस ऑपरेशन में? मतलब कैसे होता है ये?
- औरतों की बंद कर देते हैं और मर्दों का काट देते हैं...एक साथी ने हंस कर मज़ाक किया।
पर सूरज गंभीर होकर बोला- साले मज़ाक नहीं, ठीक बता !
महेश संजीदा होकर बोला- औरतों के लूप लगाया जाता है, फ़िर उन्हें बच्चा नहीं ठहरता। कितना भी करो। मर्दों की नसबंदी कर देते हैं। इसमें कुछ समय भी नहीं लगता और कुछ नुकसान भी नहीं होता। उसने किसी प्रौढ़ जानकार की तरह समझाया।
उसने हीरा से ये सब पूछा था,इसी से तो उसे सब मालूम था।
- अच्छा,ये ऑपरेशन करवाने के बाद कोई अगर बाद में चाहे कि उसे औलाद हो तो? क्या फ़िर से ऐसा हो सकता है? सूरज ने जिज्ञासा प्रकट की।
- तो क्या,लूप को बाद में निकलवाया जा सकता है,नस भी फ़िर से जोड़ी जा सकती है।महेश ने कहा।
- हट पगले, ऐसा कहीं हो सकता है? नसबंदी के बाद में खड़ा कैसे होगा? एक साथी ने कहा।
- हां हां,खुद मैंने अपने कानों से सुना था जब डॉक्टर अस्पताल में घनश्याम मास्टर जी को समझा रहा था। कह रहा था कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तुम आराम से औरत पर चढ़ सकते हो, खड़ा भी होता है।महेश बोला।
- पानी भी छूटता है? फ़िर एक साथी ने मज़ाक किया तो महेश ने उसे झिड़क दिया- हट साले !
सूरज को उस रात नींद न आई।वह सारी रात खटिया पर पड़ा करवटें बदलता रहा। उसने अपनी खाट बाहर दालान में डाल रखी थी और चड्डी पहने पड़ा आसमान के तारों को देख रहा था। उसके दिमाग़ में शाम से ही एक नई बात घूम रही थी।उसे साठ से ज्यादा रुपए उस दारू की दुकान वाले मोती बा को देने हैं,उस दिन घर से छिपा कर गंगा के चांदी के कड़े ले गया था,वो भी एक जगह गिरवी रखे हैं,दस रुपए में।अभी तक तो घर में किसी को पता नहीं है।मगर एक न एक दिन तो भेद खुलेगा ही,और खबर पड़ते ही उसकी शामत आ जाएगी।कौन जाने वह खूसट बनिया खुद ही किसी दिन आकर पिताजी को बतादे कि सूरज दस रुपए में ये कड़े गिरवी रख गया है। फ़िर तो खैर नहीं सूरज की।कितने ही दिनों से वह परेशान है इन सब बातों को लेकर।
बहुत दिनों से वह सोच रहा है कि किसी तरह जुगाड़ बैठे तो वो शहर चला जाए।वहां कोई काम मिल जाएगा तो इस सब झगड़े फसाद से उसका पिंड छूट जाएगा।वह चाहता है कि दारू की लत को भी वह किसी तरह छोड़ दे।मगर अब एक बार तो उबरे इस संकट से,तभी न आगे की कुछ सोचे।शहर जाने के लिए भी तो आखिर दस बीस रुपए होने चाहिए उसके पास। पिताजी से कह नहीं सकता।उनसे कहा तो मार पड़ेगी और साथ ही घर से निकलना भी बंद हो जाएगा।और शहर भेजने के लिए तो वो कभी राजी नहीं होंगे। वे तो उसे निकम्मा और आवारा जो समझते हैं। यहां रह कर खेती में बैल की तरह खटना उसे एक आंख नहीं सुहाता। गांव की इस अंतहीन आवारा गर्दी से भी ऊब गया है वो अब।
यही सब सोचते सोचते न जाने कब सूरज की आंख लग गई और उसे नींद आ गई।
अगली सुबह वह महेश से मिला।महेश उसके यार दोस्तों में सबसे ज़्यादा समझदार था, और फ़िर सूरज से उसका याराना भी अच्छा था।उसने महेश को आखिर अपने दिल की बात बता दी।
उसकी बात सुनते ही महेश चौंक पड़ा। बोला - अबे तेरा दिमाग़ तो ठिकाने है? वे लोग कुंवारे लड़के की नसबंदी थोड़े ही करते हैं,वो तो केवल शादी शुदा लोगों का ही ऑपरेशन करते हैं,और वो भी दो तीन बाल बच्चे वालों का।
ये सुनकर भी सूरज के उत्साह में ज़रा भी कमी नहीं आ
।ये बात तो उसके अपने दिमाग़ में भी आई थी,और इसका समाधान भी वो मन में सोच कर बैठा था। बोला- पर उन लोगों को क्या पता चलेगा,वो तो सब बाहरी हैं,फिर अपन ऐसे समय में जाएंगे,दोपहर को जब वहां कोई न हो।
- मगर हीरा तो वहीं रहता है,और वह तुझे पहचानता भी है।
- उसे पटाना कौन सा मुश्किल काम है? वहां जाकर कह देंगे कि बाल बच्चेदार आदमी हैं, दो छोरे भी हैं,तो किसे खबर पड़ेगी?
- पर...महेश को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा। बोला- शादी नहीं होगी तेरी ? फ़िर क्या पत्नी से मराएगा? वह उत्तेजित सा हो गया।
- तू ही तो कह रहा था कि ऑपरेशन के बाद भी जब चाहो बच्चा हो सकता है, नस फ़िर से जोड़ देते हैं।फ़िर नुकसान ही क्या है प्यारे, डेढ़ सौ रुपए मिलेंगे? सूरज ने मानो निर्णय लेते हुए कहा।
महेश के दिमाग में अभी तक बात जंची नहीं,उसने फिर एक बार सूरज को समझाया।ये भी कहा कि गांव में सबको खबर हो गई तो कितनी हंसी होगी? सरकार से झूंठ बोल कर बचेगा क्या,जेल भी हो सकती है।
पर सूरज की समझ में उसकी बात नहीं आई।और उसने ये भी नहीं माना कि खबर होगी कैसे। रही बात हीरा की,तो उसे दस रुपए पकड़ाने पर वो ज़िन्दगी भर मुंह खोलने से रहा।उसके हिसाब से तो इसमें कोई खतरा नहीं था।
सूरज न जाने कहां से पांच का नोट लेकर आया उस दिन,खूब छक कर दारू पी।सिर पर एक फेंटा सा बांध कर भरी दोपहरी में,अकेला ही वो अस्पताल पहुंच गया।
उस समय वहां कोई नहीं था।दो नर्सें बैठी बातें कर रही थीं। हीरा,अस्पताल का चपरासी, स्टूल पर बैठा ऊंघ रहा था।सूरज ने हीरा को इशारे से बाहर बुलाया और उससे बातें करता हुआ उसे एक ओर को ले गया। दो रुपए का एक नोट भी उसने हीरा को थमा दिया।
लौटकर हीरा उसे भीतर ले गया।वहां बैठी नर्सों को देख कर सूरज थोड़ा झिझका और कुछ बोल नहीं सका।हीरा भीतर जाकर एक आदमी को बुला लाया।
ये आदमी परिवार नियोजन कैंप में आया हुआ कंपाउंडर था।वो आदमी सूरज को अपने साथ भीतर ले गया।सूरज की घबराहट देख कर नर्सें आपस में कुछ बोलकर एक दूसरी की ओर देख हंस दीं और बातें करती हुई बाहर की ओर चली गईं।सूरज इधर उधर देखता अंदर चला गया।
सूरज को एक बेंच पर बैठा कर आदमी एक रजिस्टर निकालने लगा।सूरज की झिझक अभी तक गई नहीं थी और वो बार बार दरवाजे की ओर देख रहा था।
कंपाउंडर ने दरवाजे का पर्दा फ़ैला दिया।अब हीरा भी बाहर चला गया था और वहां कोई नहीं था।
- तुम्हारा नाम? कंपाउंडर ने पूछा।
- ... गोवर्धन, सूरज ने तपाक से कहा।
- पिता का नाम?
- रामावतार।
- कहां रहते हो?
- यहीं,इसी गांव में...
- क्या काम करते हो?
- खेती
- उम्र कितनी है तुम्हारी?
-चौबीस साल...
- ब्याह को कितना समय हुआ?
- ...अभी ..अभी ... चार साल !सूरज सकपकाते हुए एकाएक संभल गया।पर वह आदमी तो सिर झुकाए हुए कलम से रजिस्टर में कुछ लिखने में तल्लीन था, उसने देखा नहीं सूरज की ओर।
- कितने बच्चे हैं तुम्हारे?
- दो
- लड़के या लड़कियां?
- एक लड़की है और छोटा लड़का है,सूरज अब संयत हो गया था, सफ़ाई से झूठ बोल गया। कंपाउंडर उसे वहां बैठने को कह कर बाहर चला गया।थोड़ी देर में,जब तक वह लौट कर आया,सूरज का दिल घबराहट में धड़कता रहा।
बेंच की ओर इशारा करके कंपाउंडर ने ट्रे में कुछ उलटते
हुए लापरवाही से कहा- खोलो।
सूरज ने झिझकते हुए कमीज़ ऊपर उठाई और पायजामा खोलकर नीचे कर दिया। लेटते हुए उसने चड्डी का नाड़ा खोला और कोहनी आखों पर कर लेट गया।
आंखें ढके हुए भी वह कनखियों से झुके हुए कंपाउंडर को देख रहा था।चड्डी को तेज़ी से नीचे सरकाते हुए एक पल के लिए कंपाउंडर की पारखी नज़रों ने सूरज की जांघों को हैरानी से देखा।सूरज एकाएक घबराया पर स्थिर होकर लेटा रहा। कंपाउंडर चुपचाप अपना काम करता रहा।
सूरज जब वहां से बाहर निकला तो उसे जांघों के बीच कुछ सनसनी सी महसूस हुई,पर उसे भीतर ही भीतर कुछ शरम भी लग रही थी।
उसने काग़ज़ का वह पुर्जा संभाल कर कमीज़ की भीतर वाली जेब में रख लिया,जो उसे आदमी ने दिया था। पैसे कब मिलेंगे,और कितने मिलेंगे,ये सब वह झिझक के चलते पूछ नहीं पाया।
सूरज को अजीब सी अनुभूति हो रही थी।जाने कहां से एक चोर आकर उसके भीतर बैठ गया था।
उस दिन फ़िर दारू पी सूरज ने,पर अपने यार दोस्तों के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई उसकी।
दो दिन बाद नुक्कड़ वाली दुकान के क़रीब से सूरज गुज़रा तो उसने कुछ लोगों को अपनी ओर संशय से देखते पाया।पास ही मास्टर प्रतापसिंह भी खड़े थे।ऐसा लगता था जैसे वे सभी लोग सूरज से कुछ कहना चाहते हों,पर कहने में झिझक रहे थे।सूरज हिकारत से देखता हुआ आगे बढ़ गया।तभी वह पीछे से मास्टर की आवाज़ सुनकर ठिठका।वे अकेले उसके पीछे आ रहे थे।
सूरज रुक गया। थोड़ा सकपकाते हुए मास्टर जी बोले- तुमसे एक बात करनी सूरज।
बोलो न साहब, घबराते क्यों हो,सूरज ने लापरवाही से कहा।
- वो वो तुमने जो ऑपरेशन करवाया है न...
- आपको कैसे पता?कहता सूरज जैसे आसमान से गिरा।
- भाई,पता तो सभी को है, मैं तो ये निवेदन कर रहा था कि हमें अपने स्कूल में चार चार केस सबको दिखाने हैं,मेरे तीन तो हो गए,चौथा कहो तो तुम्हारा नाम दे दूं? बड़ी मुश्किल है, चार केस तो करने ही हैं,नहीं तो ऊपर से ऑर्डर है कि इंक्रीमेंट रुक...वह खिसियाते हुए बोले।
सूरज बिना कुछ बोले वहां से भाग खड़ा हुआ।
घर पहुंचा तो सरपंच साहब का भाई,जो पंचायत के दफ़्तर में सरकारी मुलाजिम था, बैठा उसी की राह देख रहा था।सूरज को देखते ही जैसे खिल उठा, बोला - सूरज बेटा...सूरज बिना कुछ कहे सुने भीतर चला गया।वह अपमानित सा लौट गया।
सूरज ने न किसी से बात की,न कुछ पूछा,बस अकेला पिछवाड़े जाकर गुमसुम सा बैठ गया।
अभी वह बैठा ही था कि हाथ में नाश्ते की प्लेट लिए मझली भाभी आ गई।बड़े लाड़ से बोली- लाला,वो सिंचाई के दफ़्तर में काम करते हैं न चौहान जी,उनकी घरवाली कह गई थी कि सूरज भैया आएं तो उन्हें हमारे घर भेज देना।उन्हें कोई फार्म भरवाना है तुमसे,ज़रूर चले जाना,कहती थी बड़ा ज़रूरी काम है वरना चौहान जी की तनखा रुक जाएगी।
सूरज ने चिल्ला कर भौजाई को डांट दिया,वह बेचारी सहम कर भीतर चली गई।
सूरज को लगा जैसे वह कोई जिबह हो चुका बकरा है और कसाईयों की भीड़ उसकी हलाल हुई गर्दन पर अपने अपने छुरों का दावा ठोकती उसकी ओर बढ़ रही है।उसे कई शिकंजे अपनी गर्दन के इर्द गिर्द मंडराते हुए दिखाई देने लगे।उसे लगा,जैसे वो मर चुका है और उसकी मौत पर हर कोई उसका हत्यारा होने का दावा करना चाहता है,जैसे कि हत्यारों को कोई ईनाम देने का ऐलान हुआ हो।
उसे बरसों पहले का, गांव का मोहन याद आ गया जिसने नपुंसक घोषित होने पर कुएं में छलांग लगा दी थी।सूरज ने देखा कि उसकी आखों से झमाझम खारा पानी गिर रहा है।
- प्रबोध कुमार गोविल