Saas bhi kabhi bahu thi in Hindi Human Science by Dr. Vandana Gupta books and stories PDF | सास भी कभी बहू थी

Featured Books
  • Operation Mirror - 5

    जहां एक तरफ raw के लिए एक समस्या जन्म ले चुकी थी । वहीं दूसर...

  • मुर्दा दिल

    कहानी : दीपक शर्मा            ...

  • अनजाना साया

    अनजाना साया लेखक: विजय शर्मा एरी(लगभग १५०० शब्द)गाँव का नाम...

  • नेहरू फाइल्स - भूल-83-84

    भूल-83 मुफ्तखोर वामपंथी—‘फिबरल’ (फर्जी उदारवादी) वर्ग का उदय...

  • The Professor

    अध्याय 1: मैकियावेली और एक ठंडी चायस्थान: दिल्ली यूनिवर्सिटी...

Categories
Share

सास भी कभी बहू थी



आज सरू जितनी खुश है उतनी ही उदास भी... जितनी उत्साहित है उतनी ही हताश भी... जितनी अतीत में गोते लगा रही है उतनी ही भविष्य में विचर रही है। वजह कोई खास न होते हुए भी बेहद खास है। रह-रह कर माँजी याद आ रहीं हैं। माँजी मतलब उसकी सास उमादेवी। क्या कड़क व्यक्तित्व था उनका.. जिंदगी के आठ दशक ठसक से बिताने के बाद भी रौब में कमी नहीं आयी थी। कलफदार सूती साड़ी और माथे पर बड़ी सी बिंदी में उनका रूप और भी निखर जाता था। हक और शक उनके खास अंदाज़ थे। हर शै पर हक और हर बात में शक उनकी आदत में शुमार था।

'क्योंकि सास भी कभी बहू थी.......' सरू डिनर के बाद बर्तन माँज रही थी और टी वी चल रहा था, टाइटल सांग की मधुर स्वरलहरियाँ बर्तन की खनक को दबाने चली आयी थीं। सरू शादी के पहले से ये सीरियल बिना नागा देखती आयी थी। एक भी एपिसोड नहीं छूटा था उससे... उन दिनों 'तुलसी' का क्रेज़ ही ऐसा था। जब सरू को देखने उमादेवी आयीं थीं तो पूरे मोहल्ले में उनकी दबंगता की चर्चा चल गई थी। नपे तुले शब्दों में समझा दिया था उसे शिब्बू ने कि "माँजी की हर बात पत्थर की लकीर होती है। उन्हें ना सुनने की आदत नहीं है, यदि उनके हिसाब से चलोगी तो वह भी तुम्हारी बात सुनेंगी..." जी हाँ शिब्बू यानि शिवपाल, माँजी का इकलौता गबरू जवान बेटा, जो गांव का पहला इंजीनियर था और सरकारी नौकरी भी लग गयी थी तो माँजी की ठसक और बढ़ गयी थी। उसी शिब्बू के लिए सरू यानि सरस्वती का रिश्ता गया था। सरस्वती भी नाम के अनुरूप सुंदर और सुशील होने के साथ बुद्धिमति भी थी। उसके रूप और गुण के चर्चे शिब्बू ने भी सुने थे और एक दिन गाँव के स्कूल में निर्माण कार्य के निरीक्षण हेतु जाने पर सरू से मुलाकात भी हो गयी थी। सरू की छबि शिब्बू की नज़रों से दिल में उतरकर बस गयी थी। प्रभावित तो सरू भी हुई थी शिब्बू से... शायद पहली नज़र के प्यार की खुमारी में दोनों डूब गए थे। अब शिब्बू ने निर्माण कार्य थोड़ा धीमा कर दिया था। इसी बहाने वह सरू को देख सकता था। कहते हैं न कि जब किसी से आँखे चार होती हैं तो सारे जमाने की आँखे पहरा लगा देती हैं। उन दोनों की खुसर पुसर शुरू नहीं हुई किन्तु जमाने में खुसुर पुसुर शुरू हो गयी। सरू के पिताजी ने आनन फानन में पता लगाया कि माजरा क्या है और इसका जिम्मेवार कौन है। खुदा भी इन दो दिलों पर रहमत बरसा रहा था... एक ही समाज के निकले और सरू के पिताजी ने शिब्बू को एक दिन चाय पर बुला ही लिया। मम्मी बुलाए या पापा... जब शादी लायक स्मार्ट बंदे को कुंवारी कन्या के घर चाय पर बुलाया जाता है तो मकसद एक ही रहता है... हमें तुम पसन्द हो और तनिक हमारी बिटिया को तुम पसन्द कर लो और फिर घरवालों को भी पसन्द करना ही पड़ेगा। शिब्बू के मार्फ़त पता चला कि माँजी थोड़ी कड़क मिजाज हैं और लड़के की माँ होने का दम्भ भी भरपूर है। अतः चाय की टेबल पर तय हुआ कि शिब्बू की इस मुलाकात को गोपनीय रखा जाकर बाकायदा रिश्ता भिजवाया जाए। सरू की खुशी के साथ पिता का मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो जाता यदि शिब्बू जैसा दामाद मिल जाता। जब माँजी लाव लश्कर के साथ सरू को देखने आयीं तो उनकी पैनी नज़र ने बेटे की पसन्द भांप ली, लेकिन अपना पलड़ा ऊपर रखना था और सोने की अशर्फी को कौड़ियों के दाम भी न बिकने देना था। दहेज पर मामला अटकने लगा, आखिर सरकारी इंजीनियर की कोई औकात होती है कि नहीं। जब शिब्बू ने विश्वास दिलाया कि कॉलेज में पढ़ी लिखी टीचर लड़की अपनी सासूजी की खिदमत में कमी नहीं करेगी, तब जाकर वे झुकीं। सरू बहू बनकर आ गयी। सीरियल देखना बंद नहीं हुआ था क्योंकि माँजी भी देखतीं थीं और काम भी तब तक निबट ही जाता था।

माँजी यदा कदा उसे एहसास दिला ही देतीं कि उनके हीरे से बेटे को झाँसे में लेकर यह शादी हुई है। शिब्बू के प्यार और परवाह में कोई कमी नहीं थी, अतः सासूजी के ताने और उलाहने वह सह जाती थी। उसे यह भी जता दिया गया था कि अब जमाना बदल गया है तो सरू ऐश कर रही है, वरना वह तो अपनी सास के सामने जुबान भी नहीं खोल पाती थीं। "सास का डंडा होता ही ऐसा है कि बहू को दबना ही पड़ता है.." माँजी का यह डायलॉग सुनकर सरू सोचने लगती कि सास की विरासत का यह डंडा हर बहू के पास आ ही जाता है और घर पर उसी का राज़ चलता है। लेकिन सास भूल क्यों जाती है कि वह भी कभी बहू थी। माँजी को सुबह किचन का प्लेटफॉर्म चमकता हुआ दिखना चाहिए, जिसमें वे अपना चेहरा देख लें और सिंक भी एकदम खाली और साफ सुथरा... सिविल इंजीनियर बेटे ने इतना महंगा बंगला बनवाया है, जहां ऐशोआराम की सारी चीजें हैं... नौकर चाकर भी हैं, किन्तु आज घरेलू नौकर गाँव गया है, छुट्टी लेकर और महरी शाम को बर्तन धोकर चली गयी थी, तो रात की सफाई सरू कर रही थी। बच्चे अपने रूम में पढ़ने चले गए थे और माँजी और शिब्बू टीवी के सामने बैठे थे। सीरियल का टाइटल सांग उसे बेचैन कर रहा था, किन्तु माँजी के अधिकार का डंडा उसके सर पर नाच रहा था।
"सरू! आ जाओ सीरियल देख लो पहले, काम सुबह हो जाएगा.." शिब्बू ने पहली बार माँ की मर्ज़ी के खिलाफ कुछ बोला था। सरू खुश हो गयी, हाथ नैपकिन से पोंछती हुई आकर बैठ गयी।
"बहू! नैपकिन जगह पर रख दो।" माँजी अपने अधिकार के डंडे पर बेटे के प्यार का डंडा हावी होते देख विचलित हो गयीं। उन्हें लगा कि उनके हाथ से सत्ता फिसल रही है। उन्हें यकीन था कि शिब्बू के कहने पर भी सरू काम छोड़कर नहीं आएगी, किन्तु वह तो आकर पति की बगल में बैठ गयी थी। माँजी खून का घूँट पीकर रह गयीं।

लेकिन अब उनकी अनुशासन की दीवार में जो सेंध एक बार लगी तो सरू गाहे बगाहे अपनी मनमर्जी की करने लगी। दोनों को समझ में आ गया था कि जिसकी लाठी उसकी भैंस... शिब्बू का पक्ष उनकी लाठी था और उनकी अपनी मर्ज़ी उनकी भैंस... बारह साल में तो घूरे के दिन भी बदल जाते हैं, सरू की शादी को तो चौबीस साल हो गए थे। वक़्त के साथ सत्ता परिवर्तन हो गया था, माँजी अभी भी सास थीं और सरू बहू... पर घर अब बहू की मर्ज़ी से चलता था। माँजी के दिवंगत हो जाने के बाद तो वह और भी फ्री हो गयी थी। रहन सहन और पहनावे में भी अंतर आ गया था।

आज बेटा नीलक्ष अपनी पसन्द पर माता पिता की पसन्द की मोहर लगाना चाहता था। सरू और शिब्बू एक होटल में मिले थे... नताशा और उसके मॉम डैड से... मिलकर अच्छा लगा। कोई कमी नहीं थी, जिस पर बात अटकती... वह खुश थी, फिर भी एक रिक्तता महसूस कर रही थी। उसे माँजी याद आयीं और उनकी ठसक भी... जब वे देखने आयीं थीं तो कितना लम्बा इंटरव्यू हुआ था सरू का... उसके पेरेंट्स तो कुछ बोल ही नहीं पाए थे... और आज... जमाना इतना बदल गया है कि नताशा ने ही उसका इंटरव्यू ले लिया... उसने माँजी के जीते जी कभी साड़ी के अलावा कोई परिधान नहीं पहना और नताशा तो आज भी कुर्ता लेगिंग पहनकर आयी थी और चुन्नी भी नहीं थी... बहुत प्यारी लग रही थी, लेकिन क्या अब वह खुद सास का दबदबा कायम रख पाएगी। सोचती तो थी कि कभी भूलेगी नहीं कि वह भी कभी बहू थी, और बहू को खूब फ्रीडम देगी, हमेशा बेटी की तरह रखेगी और उसे जताएगी भी कि उसने सास के रहते जो परेशानियाँ उठायीं हैं, वह बेड़ियाँ वह अपनी बहू के लिए तोड़ रही है... अधिकार के नहीं तो प्यार के डंडे से ही सही, किन्तु उसे नियंत्रण में रखेगी, किन्तु यहाँ तो सब उसकी सोच के विपरीत दिख रहा है। क्या नताशा कभी उन्हें बहू का सुख दे पाएगी। वह नीलक्ष के साथ ही मल्टिनैशनल कम्पनी में जॉब करती है। उन्होंने तो माँजी और शिब्बू के कहने पर नौकरी छोड़ दी थी और एक बहू का फर्ज निभाया... ये अलग बात है कि बाद में माँजी की ज्यादा नहीं सुनी... क्या उसी के परिणामस्वरूप उसे अल्ट्रा मॉडर्न बहू मिल रही है कि वह सासपने के सुख से वंचित रहे। बेटे की खुशी में खुश थी किन्तु अपने मन में उठ रहे संशयों का समाधान न मिल पाने से दुःखी भी... पूरी रात सोचविचार में जागते हुए ही कट गई थी। सुबह अलसायी सी पड़ी रही। बिस्तर से उठने का मन ही नहीं हुआ।

"मम्मीजी! उठिए, नाश्ता कर लीजिए।" मीठी सी आवाज़ में कौन उसे जगा रहा है? आँखे खुली तो खुली रह गयीं। नताशा सुंदर से सलवार सूट में सिर पर दुपट्टा डाले सिरहाने खड़ी थी। हाथ की ट्रे को साइड टेबल पर रखकर उसने सहारा देकर सरू को बिठाया और फिर उनके चरण स्पर्श कर खुद भी उनके पास बैठ गयी।
"बेटी! तुम यहाँ कैसे?" वह आश्चर्यचकित थी।
"मम्मीजी नीलक्ष ने बताया कि आपकी तबियत ठीक नहीं है, तो मिलने चली आयी। आज ऑफिस से छुट्टी ले ली है... बताइए लंच में क्या बना लूँ?"
वह तो इतनी भाव विभोर हो गयी कि नताशा को गले लगा लिया।
"बेटी! मुझे तेरी बहुत जरूरत है, जल्दी से आजा मेरी बहू बनकर और इस घर को संभाल ले।"
वह समझ गयी कि व्यक्ति उसके पहनावे से नहीं विचार और व्यवहार से पहचाना जाता है। अधिकार और प्यार की लाठी के साथ जब संस्कार की लाठी हो तो जिंदगी में अपनत्व की भैंस हमेशा खुशियों की दूधिया बरसात करती रहेगी।

"क्या सोच रही हो मम्मीजी?" नताशा के प्रश्न के जवाब में वह बोलीं... "मैं सोच रही हूँ कि माँजी से मम्मीजी का सफर कितना सुहाना है... बदल गया जमाना आहिस्ता आहिस्ता... अब तो अपना भी हक बनता है....." कहने के साथ ही वह दिल खोल कर खिलखिला उठी।

मन एकदम हल्का होकर गुनगुनाने लगा... 'सास भी कभी बहू थी...........!'

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित