Railgadi me rinchh in Hindi Moral Stories by Kailash Banwasi books and stories PDF | रेलगाड़ी में रीछ

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रेलगाड़ी में रीछ

रेलगाड़ी में रीछ

कैलाश बनवासी

मैं इलाहाबाद जा रहा था।सारनाथ ए क्सप्रेस से। अकेले।

अकेले यात्रा करना बड़ा ‘बोरिंग' काम है।उनके लिए तो और भी कष्टप्रद होता है जो स्वभाव से अंतर्मुखी होते हैं।जो वाचाल हैं उन्हें अगल—बगल के मुसाफ़िरों से परिचय प्राप्त करने में पल भी की देरी नहीं लगती।लेकिन दुर्भग्य से मैं अंतर्मुखी हूँ और दूसरों के सामने धीरे—धीरे खुल पाता हूँ। इसके बवाजूद मैंने अपने आरक्षित डिब्बे में,सामने की बर्थ वाले युवक से बातचीत शुरू करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसके पीछे दो कारण् ा थे।ए क तो वह मेरा हमउम्र था,पच्चीस—छब्बीस के आसपास।दूसरा कारण् ा,जो मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूण्र् ा था,वह उसका ‘लोकल' यानी छत्तीासगढ़ी होना था।यह उसके चेहरे—बहुत सामान्य और सांवले रंग से साफ़ पता चल जाता था।उसका वहाँ होना मुझे अच्छा लग रहा था। इस अर्थ में कि वह मुझे अपने ‘स्तर' का लगा था,वरना आरक्षित डिब्बे में भी जैसे लोग होते हैं,मुझे अपने से कई गुना सुखी और सुविधासम्पन्न नजर आते है,अपनी कई तरह की सुख—सुविधा वाली वस्तुओं के साथ।महँगी चीज़ों के साथ।अधिकांश कालोनी वाली सभ्यता के तहत साथ वालों से कोई वास्ता नहीं रखते। वे आरक्षित डिब्बे में भी अपने भीतर आरक्षित होते हैं।

रेलें,मुझे कई बार भारतीय समाज के वर्ग—भेद का अच्छा नमूना लगती हैं,जहाँ आपका कूपा आपका ‘स्टेटस सिेंबल' बन जाता है। गाड़ी का ए क डिब्बा दूसरे डिब्बे को मुँह चिढ़ाता हुआ,अभिमान से ए ेंठता हुआ।

हम दोनों की ‘अपर' बर्थ थी—आपने सामने।उसका नाम राकेश था।राकेश दुबे।

बातचीत में आगे मालूम हुआ वह हायर सेकेंड्री पास है। राजनाँदगाँव जिले के किसी गाँव में रहता है। गाँव डोंगरगढ़ के पास है।

‘‘अभी कहाँ जा रहे हो?'' मैंने पूछा।

‘‘जौनपुर।''

मैंने आश्चर्य से दोहराया,‘‘जौनपुर ? वहाँ कैसे ?'' आश्चर्य इसलिए हुआ क्योंकि यहाँ के युवक पलायन में बड़े—बड़े शहरों की तरफ निकलते हैं प्रायः।

उसने अपने सबसे नीचे की बर्थ की तरफ इशारा किया,‘‘इन स्वामी जी के साथ।''

मैंने नीचे देखा।स्वामी जी दायें करवट ले सो रहे थे। उनका भारी शरीर टे्रन के हिचकोलों से डोल रहा था।चादर से बाहर उनका सिर्फ़ सिर दिखाई दे रहा था,किसी तरबूज की तरह बड़ा और गोल।

‘‘अरे इस स्वामी जी के साथ कैसे?'' मेरे मुँह से निकला। असल में इस तरह के स्वामियों के लिए मेरे मन में श्रद्धा कम,शंकाए ँ ज़्यादा हैं।शंकाए ँ निराधार नहीं हैं। ये स्वामीगण् ा आजकल मंत्रसिद्ध ही नहीं,मंत्री सिद्ध हो चले हैं। और पाँचसितारा सुविधाओं का लुत्फ उठाते हैं। फिर आपराधिक घेरे में भी हैं।

जवाब में राकेश दुबे ने बताया कि स्वामी जी का प्रवचन पिछले ए क महीने से डोंगरगढ़ सहित आस—पास के दूसरे गाँवों में चल रहा है। राकेश के पिता अपने गाँव में पूजा—पाठ करके परिवार का पेट भरते हैं।उसके पिता उसे इस विद्या में पारंगत करना चाहते हैं।स्वामी जी के व्यक्तित्व और प्रवचन से आसपास का इलाका बहुत प्रभावित हुआ है। राकेश के पिता ने स्वामी जी के चरण् ा पकड़ लिए , ‘महाराज,मेरे लड़के को भी अपने ज्ञान का छोटा—सा भाग दे दीजिए । इसे अपना शिष्य बना लीजिए ...।ये आपकी सेवा करेगा...।'

‘‘अच्छा! तो तुम इनके शिष्य बन गए ?''

‘‘क्या करता ? कुछ—न कुछ हुनर हाथ में रहना चाहिए न जीने के लिए !''उसने जैसे सहमति के लिए मेरी ओर देखा।

ऊपर जलते बल्ब की रोशनी में मैंने उसके साँवले चेहरे को ध्यान से देखा।वहाँ लम्बे समय सो बेरोज़गार होने का गहरा विषाद था,जो अपने आपको सोसाइटी में ‘फिट' करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।

‘‘देख रहा हूँ क्या होता है...ये कोई फ़ाइनल नहीं है। उसने कहा।

ट्रेन की गति धीमी पड़ने लगी।शायद कोई स्टेशन आ रहा था।...भाटापारा।

गाड़ी रूकी तो वह नीचे उतर गया, ‘‘रात के लिए पानी भरके रख लेता हूँ,स्वामी जी को जरूरत पड़ जाए ।''

मैं अपना बिस्तर ठीक करके लेट गया। नींद इतनी जल्दी आने वाली नहीं थी। मैं सोचने लगा था,कई चीज़ों के बारे में। देश की बढ़ती हुई बेरोज़गारी के बारे में...क्योंकि मैं भी इस देश के चार—पाँच करोड़ पंजीकृत शिक्षित बेरोज़गारों में से हूँ। मेरी कल्पना में ख़ाली हाथ थे।करोड़ों ख़ाली हाथ। काम की तलाश में भटकते,छटपटाते हाथ...।मुझे अभी तक नहीं मालूम था कि मेरा क्या होने वाला है। अर्ज़ियाँ भेजते और परीक्षाए ँ देते हुए मैं बुरी तरह ऊब चुका हूँ। शायद मुझे भी अपने कुछ मित्रों की तरह प्राइवेट इंडस्ट्री की ख़ून चूसने वाली भट्ठी में घुसना होगा,जहाँ धीरे—धीरे हमारे सपने मरते जाए ँगे...। और सपना भी क्या ? ए क ठीक—ठाक जिंदगी बसर करने का सपना।

और क्या सचमुच,क्या यह बहुत बड़ा सपना है ? मैं सोच रहा था।

ट्रेन ने स्पीड पकड़ ली थी।

लगभग तीसरे पहर,हमारे डिब्बे में किसी की आवाज़ सुनाई दी थी मुझे—गों गों गों...। अजीब गड़गड़ाहट थी।

मैं नींद में था। संभवतः जो जाग रहे थे उन्हें भी पता नहीं चल पाया कि ये आवज़ किधर से आई। कुछ लोग जाग गए मेरी तरह और ए क—दूसरे से पूछने लगे,क्या हुआ ? किसने चिल्लाया ?

फिर सो गए ।

अलस्सुबह मेरी नींद खुल गई। मेरी ही नहीं,डिब्बे के कुछ और मुसाफ़िरों की भी। यह अकारण् ा नहीं था।

स्वामी जी नीचे की अपनी बर्थ पर बैठे ‘आसन' में थे।वे प्रातःकालीन प्रार्थना वाले श्लोकों का पाठ कर रहे थे। ध्यानस्थ।

मैंने अब पहलीबार स्वामी जी को सम्मुख देखा। उनका सिर ठीक तरबूज की तरह गोल था जहाँ बहुत छोटे—छोटे बाल थे। दाढ़ी थी। ऊलजलूल ढंग की नहीं,बहुत सलीके से काटी गई,बल्कि सँवारी गई दाढ़ी थी। भूरी दाढ़ी।

वह स्वामी अधेड़ नहीं लगता था,बल्कि अपनी कसी हुई तकनक स्थूल दे हके कारण् ा अपनी वास्तविक आयु से पाँच—छह साल कम का ही लगता था।केसरिया बंडी से उसकी मोटी मांसल और ख़ूब गोरी बाँहें निकली थीं।बाँह और गले में रूद्राक्ष की मालाए ँ। कुल मिलाकर ए क प्रभावशाली और पहली ही नज़र में ध्यान खींच लेने वाला व्यक्तित्व।

मैंने अपनी कलाई घड़ी पर नज़र डाली। सवा पाँच।

स्वामी जी का शिष्य गहरी नींद में था।मुँह तक चादर से ढाँपे।

यद्यपि किी खिड़कियाँ बंद थीं,इसके बावजूद डिब्बे में ठंडक थी।जनवरी के आख़िरी दिनों की ठंड।मेरी नींद अब पूरी तरह से खुल गई थी और पड़ा—पड़ा सवामी जी का गायन सुन रहा था। स्वामी जी गा रहे थे, ‘जागिए रघुनाथ कुँवर पंछी बन बोले...।'

इसके बाद कुछ श्लोकों का पाठ।अब वह ऊचे स्वर में गा रहे थे,‘‘जो सोवत है वो खोवत है जो जागत है सो पावत है...।''इसमें संदेह नहीं कि उनका स्वर और सुर दोनों ही अच्छाा था और उनके ए ेसे गाते रहने के अभ्यास की पुष्टि करता था।।इस तरह हमारे डिब्बे की सुबह हुई।

थोड़ी ही देर में अपनी वाचाल तबीयत और वेशभूषा के कारण् ा स्वामी जी वहाँ के ‘वन मैन शो' आदमी बन गए ।

गाड़ी किसी स्टेशन पर रूकी थी।

‘‘कउन टेशन है भइया ?''उन्होंने पूछा।उन्होंने बिना किसी संकोच के यात्रियों से बातचीत शुरू कर दी,जिसमें वह तो मानो दक्ष थे।

‘‘जैतपुर।'' किसी ने बताया।

‘‘अच्छा, आगे कउन टेशन है?''

‘‘कटनी''।

यात्रीगण् ा अब जाग चुके थे। वे रात की घटना पर बतियाने लगे।

‘‘रात में क्या हुआ था भाई ?''

‘‘कौन चिल्लाया था ?''

‘‘ अरे इधर से ही था कोई आदमी।''

‘‘रतिया में कउन चिल्लाया था ?''स्वामी जी ने पूछा।

‘‘पता नहीं स्वामी जी।'' किसी ने कहा।

‘‘अरे लगा,''स्वामी जी बोले,‘‘लगा कोई किसी का गला दबा रहा है।हमने समझाा लो आ गए बलवाई!''

‘‘पता नहीं किसने चिल्लाया था ?''

ए क व्यक्ति ने अपना अनुमान जताया,‘‘शायद वे हैं...।''

और लोग उधर ही देखने लगे जिधर इशारा था। और स्वामी जी उसे देखते ही हँसने लगे। हँस क्या रहे थे ज़ोरदार ठहाके मार रहे थे।बहुत खुली हँसी। इस हँसी ने सुबह का वातावरण् ा सुखद और हल्का बना दिया था।

ए क अन्य यात्री ने बताया,‘‘अजी,क्या कह रहे थे पूरा समझ नहीं आया। लेकिन कह रहे थे गाँववालों को पकड़ो! गाँववालों को पकड़ो!''

‘‘...अच्छाा!वे फिर हँसे जोदार और बोले,‘‘अकेलेइ पूरे गाँववालों को पकड़ रहे थे! हा—हा—हा—हा!''

आसपास के मुसाफ़िर भी हँस पड़े।वे भी रात के वाक़िये का मज़ा लेने लगे।

थोड़ी ही देर में उस आदमी की नींद टूटी जिस पर सभी को शक़ था कि वही है रात में चिल्लाने वाला।

वह अभी ठीक से अपनी खुमारी उतार भी नहीं पाया था कि किसी ने तड़ सवाल दाग दिया,‘‘रात में आप ही सपना देख रहे थे?''

अभी—अभी उठकर बैठा हुआ वह क्लीन शेव्ड आदमीे था—,सिर के बालों में कहीं—कहीं थोड़ा कच्चापन,बाकी पूरे सफ़ेद सन की तरह।

संयोग से वह आदमी स्वामी जी के परिचय का निकल गया।स्वामी जी को डन्हें छेड़ने में और मज़ा आने लगा। बोले,‘‘का हो तिवारी जी! रतिया में का सपना रहे थे?''

तिवारी जी बोले,‘‘अरे मैं नहीं हूँ भाई। ख़द हमें रात में लगा कि कोई चिल्ला रहा है!''

अपने स्वस्थ मज़्बूत दाँत—मसूड़े दिखाते हुए स्वामी जी फिर हँसे,‘‘ये लो! फिर भ्रमित हैं आप! स्ब कह रहे हैं आप ही हो!''

‘‘नहीं स्वामी जी! मुझे भी सुनाई में आया कि कोई बड़बड़ा रहा हैगाँववालों को पकड़ो!''

‘‘अब क्या बोलें तिवारी जी!पूरे गाँववालों को तो कोई ससुरा रतिया ही में पकड ़सकता है।दिन में थोड़ी पकड़ेगा! हा—हा—हा—हा! अच्छा इधर आइए ।आइए ,यहाँ बैठिए हमारे पास।अच्छी मुलाक़ात रही हमारी!''

स्वामी जी ने उन्हें बुला लिया।

तिवारी जी अपने झक्क सफ़ेद कुरते पर भूरा शॉल ओढ़ते हुए वहाँ आकर बैठ गए । वह अब देखने में कोई नेता मालूम पड़ते थे।उनकी बातचीत होने लगी।

इधर लोकसभा चुनाव सिर पर थे। इसलिए चारों तरफ इसी पर चर्चा थी। ए क तरह से सारा देश चुनावी बुख़ार की चपूट में था और चुनाव से पहले इसके उतर जाने की संभावना भी नहीं थी।मैं उन दोनों की बातचीत में कान दिए था। मेरी दिलचस्पी तब बढ़ी जब दोनों चुनाव और राजनीति पर बातचीत करने लगे।

तिवारी जी कह रहे थे,इस बार तो अच्छी टक्ककर दे रही है बी.जे.पी.हर जगह काँटे की टक्कर दिखाई दे रही है।

स्वामी जी सत्तासीन पार्टी की आलोचना करने लगे कि अब तो वह गई। उसे कोई नहीं बचा सकता।इसके सारे लोग भ्रष्ट हो चुके हैं। वे बताने लगे कि सुनते हैं कि फलाने मंत्री ने ए क—ए क सरपंच को ए क—ए क मोपेड दी है।यह बोलके कि मैं हारूँ या जीतूँ : गाड़ी तुम्हारी हुई!

तिवारी जी बताने लगे,अपने यहाँ तो फलाँ सिंह ही जीतेगा।क्योंकि हमारे इलाक़े में ठाकुरों और ब्राम्हण् ाों का बाहुल्य है।हमने तो कह दिया है अपने जाति भाइयों से,पूरा वोट उनको ही मिलना चाहिए । और देखना वही जीतेगा!अलग—अलग स्थानों पर हम ब्राम्हण् ाों के संघ हैं।कुछ नही ंतो हमारे संघ के बीस हज़ार वोट तो उसे ही मिलेंगे।ख़ैर,हमारा तो ठीक है लेकिन हमारे तरफ के बिजनेसमैनों का कोई भरोसा नहीं है।

स्वामी जी बोले,‘‘बिल्कुल ठीक कहा आपने। बिज़नेसमैन का कोई भरोसा नहीं! बिज़नेसमैन तो राजपूत होते हैं राजपूत!''

तिवारीजी समझे नहीं,वे स्वामी जी का आशय समझने उन्हें गौर से देखने लगे।

स्वामी जी बोले,‘‘नहीं समझे ? अजी ये बिज़नेसमेन ए ेसे हैं कि जिसका राज उसके पूत!!''

वे हँस पड़े ।कुछ देर तक उनकी बातचीत इसी तरह चलती रही।

तभी स्वामी जी ने सहसा अपनी आवाज़ बहुत धीमी कर दी।लगभग तिवारी जी के कान में कहने लगे,‘‘वैसे तिवारी जी,मेरी भी इधर ए क लम्बी योजना है...।''

स्वामी जी के स्वर के इस अप्रत्याशित धीमेपन से जैसे मेरे कान खड़े हो गए ..किसी ख़तरे का आभास...।

स्वामी जी कह रहे थे,‘‘आपने यह इलाका घूमा है,छत्तीसगढ़ ? मैं घूमा हूँ। और मेरा निष्कर्ष ये है कि छत्तीसगढ़ है बिल्कुल धर्मप्राण् ा इलाका! लोग धर्म के पीछे प्राण् ा देने को तैयार रहते हैं।और गाय बराबर सीधे।इनको ए क बात कह दो,ये पीछे लग जाते हैं।मैं कह सकता हूँ,ए ेसा भोला इलाका पूरे भारतवर्ष में कहीं और नहीं मिलेगा आपको! मैं गलत कह रहा हूँ ?अब देखिए ,इतना बड़ा इलाका—बस्तर से रायगढ़ तक! कुल 90 विधानसभा सीटें हैं यहाँ।यानी पंजाब से ज़्यादा बड़ा क्षेत्र है। अब अगर इसमें से अगर सत्तर सीट भी हथिया लें तो हमारा प्रभाव जम सकता है।गाय को गऊ माता कहते हैं ये लोग...और बहुत मानते हैं। हमारे धर्म परिषद ने निण्र् ाय लिया है कि हम गाँव—गाँव में गौ—रक्षक दल तैयार करवाए ँगे ।बताइये कैसा रहेगा ? ए क—ए क ज़िले में दस—दस लाख रूपया और पाँच—पाँच जीपें,जो दिन—रात काम करेंगी।और हमारा नारा होगा—गौ माता की रक्षा! और हिंदुत्व की रक्षा!''

‘‘ क्यों,कैसा है?'' पूछते हुए स्वामी जी मुस्कुराए हैं,ए क ए ेसी मुस्कान जिसमें रहस्य की ना जाने कितनी परते हैं।

मैंने देखा,स्वामी जी अब खिड़की से बाहर दृश्यों से परे कहीं देख रहे हैं,मुग्धभाव से कुछ ए ेसे मुस्कुराते हुए मानो इस काम में अब कोई रूकावट नहीं है और मंज़िल उनके ए ेन सामने है...।

मुस्कुराते हुए स्वामी जी की आँखें अब चमक रही थीं...रात में किसी जंगली,हिंस्र जानवर की तरह। देखते ही देखते उस आदमी की देह पर घने लंबे—लंबे बाल उग आए थे... और लंबे नुकीले दाँत और लंबे पैने नाखून...।

वह आदमी ए क रीछ में बदल चुका था।

गाँव का वह युवक अब तक सोया हुआ था।

मैं उसे जगाने लगा।

***