यत्र तत्र सर्वत्र बिखरा बसंत है......
बसंत ऋतु कामदेव का ऋतु है. कहते हैं कि कामदेव ने रति के साथ भगवान शंकर का तप भंग करने के लिए अर्थात उनके ह्रदय में कामना का बीजारोपण करने के लिए सारा वातावरण मदमस्त कर दिया था . हमारी पौराणिक कथाओं में काम के वेग के बहुत प्रसंग है जिनसे होने वाली घटनाओं,दुर्घटनाओ का वर्णन किया गया है .इनका आशय है कि काम प्रकृति की सबसे शक्तिशाली उर्जा है जिसके प्रभाव में सारा जगत मोहित है और प्रकृति का हर जीव इसके अधीन है . उसकी रचना में
देखा जाय तो भूख और प्यास के वेग के बाद काम का वेग ही सबसे ज्यादा प्रबल है. और यह वेग व्यक्ति को विवश कर देता है .
द्वापर युग में महाराज पांडू एक ऋषि से श्रापित हुए. कारण था कि वे ऋषि पुत्र अपनी प्रेमिका के साथ मानवी देह से ज्यादा काम सुख पशुओं में होता है यह मानकर हिरण हिरणी का देह धर कर प्रेमालाप कर रहे थे और पांडू उनका शिकार कर देते हैं , तब उन्होने श्राप दिया था कि तुम भी जब कामुक होगे तब ही तुम्हारे प्राण निकल जायेंगे.और ऐसा ही हुआ. पांडू श्रापित होने के बाद राज्य छोड़कर वनवास चले जाते है अपनी दोनों रानियों कुंती और माद्री के साथ. कुंती और माद्री उनकी सेवा में रहती . वन में तप साधना में वे लीन रहने लगे पर एक दिन माद्री को स्नान करते देख उनके भीतर काम जागा और वे ज्योहीं माद्री का आलिंगन करते है उन्हें भयंकर पीड़ा होती है और वे जान से हाथ धो बैठे.
जब काम जीवन में अनर्थ का कारण बनने लगे तो उसका त्याग ही उचित है पर कहा गया है कि कितना जती हो कोई,कितना तपी हो कोई कामिनी के संग काम जागे ही जागे . कामिनी के संग काम जागता ही है.पांडू अकेले वन गमन करते तो यह हादसा नहीं होता. त्रेता युग में राजा दशरथ ने जब देखा की सभी परिस्थितियाँ अनुकूल है तो इस सुख में वे अपनी सबसे सुन्दर और प्रिय रानी केकयी से मिलने चले जाते हैं और यही मिलन उन्हें पुत्र वियोग का ऐसा शूल देता है कि वे अपने प्राण नहीं बचा पाते. काम का स्वभाव है अनुकूलता में बढ़ना और ज्यों ही प्रतिकूलता आती है काम गायब हो जाता है । इसलिए यह उत्तम विचार है कि
इन कथाओं के माध्यम से इस बात को समझना।होगा कि काम कभी भी किसी भी रूप में प्रकट हो सकता है ,अतः इसका दबावपूर्वक शमन नहींकरना है इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है।
इसके लिए क्या किया जा सकता है,,,
उत्तर है ,,,
जीवन को साक्षी भाव से देखकर मुक्ति का मार्ग अपनाने के प्रयास होने चाहिए क्योकि दोनो ही अति अर्थात एक ओर वासना और दूसरी ओर वैराग्य घड़ी के पेण्डुलम की तरह होता है । जब भी हम किसी एक भाव के अतिरेक में बहते हैं दूसरी अति के प्रति आकर्षण बढ़ता है । तब हम उस दिशा में बढ़ते हैं जो फिर से वापस आने की एक तरह से तैयारी होती है । किंतु जब हम साक्षी भाव मे स्थित हो जाते हैं हम दोनों अति से मुक्त हो उस परमसत्ता के निकट पँहुचते हैं ।