Sharmindgi in Hindi Moral Stories by Satish Sardana Kumar books and stories PDF | शर्मिंदगी

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शर्मिंदगी

हमारा बाजीगरों का मोहल्ला था।
बाजीगर मतलब नट!हालांकि हम लोग खुद को उनसे ऊंची जाति का समझते।नट दो बांसों के बीच तनी हुई रस्सी पर संतुलन बैठाकर चलने का खेल दिखाने वाले।रमल के पांसों से हाथ की सफाई का खेल करने वाले।भालू के गले में रस्सी बांधकर उसे गली गली घुमा नाचने को विवश करने का हुनर जानने वाले लोग।कहते हैं कि हमारे बुजुर्गों के दरवाजे पर शेर शेरनी यूं बंधे रहते थे जैसे आप लोगों के दरवाजे पर भैंस गाय बकरी!मैं सुनता तो कोरी गप्प लगती मुझे।
हमारी बिरादरी के लोग पंजाब,हरियाणा और उत्तर प्रदेश न जाने कहां कहां फैले पड़े हैं।कभी हम लोग घुमंतू कबीले थे।पूरी पृथ्वी की ख़ाक छानते मारे मारे फिरते।कंद- मूल,साग-पात, मछली,जंगली मुर्गा,बतख जो भी मिलता खा जाते।शिलाजीत और वाजीकरण औषधियां बेचते।जितनी जी चाहता शादियां करते।दर्जनों की दर से बच्चे पैदा करते।झगड़ा होने पर क़त्ल मारपीट सब करते,फिर राजीनामा कर लेते।झगड़ा अक्सर जंगल का हासिल बांटने पर होता।तब तक हमारी बिरादरी में औरत पर हक इज्जत की बात नहीं थी।जिसकी जांघों में दम होता वही औरतों का भर्तार होता।औरत पर झगड़ा कभी न होता।मैथुनी गालियां भी तब तक बिरादरी में नहीं सुनी गई।हमारे बुजुर्ग जब फतेहाबाद के आसपास आ बसे और धीरे धीरे अपनी विशिष्टता खोकर किसानों में तब्दील हुए तब अन्य किसानों की भांति औरत,जमीन और पैसे के लिए हक़ जमाना, धोखाधड़ी करना, पुलिस कचहरी के पास जाना जैसी बुरी आदतें हमारी बिरादरी में प्रवेश कर गई।अच्छी, खूबसूरत,जवां और तंदरुस्त औरत उसको मिलती जिसके पास अच्छी उपजाऊ जमीन,पक्का मकान और पैसा होता चाहे उसकी जांघों में दम हो न हो।इसी के साथ ही अन्य किसानों की भांति ही हमारी बिरादरी में भी औरतों का गुलामी काल शुरू हुआ।उन्हें शऊर से और पर्दे में रहने की सलाह दी जाती।उन पर वो रीति रिवाज लादे जाने लगे जो हमारे थे ही नहीं।अब हमारे दरवाजे पर भालू,शेर -शेरनी रस्सी से बंधे नहीं मिलते।गाय,भैंस बकरियां मिलती और घरों के अंदर औरतें रीति-रिवाज और शऊर की रस्सी से बंधी मिलती।
घुमंतू कबीले से नीची जाति के किसान होने में जो तकलीफ और असुविधा है वह उस तकलीफ जो गांव- गांव,जंगल-जंगल भटककर जीने में है उससे कम है या ज्यादा,यह नहीं कह सकता।लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि जातीय समाज की तलहटी में कचरे की तरह बैठ जाने में जो अपमान और वितृष्णा है।जिस हिकारत की नजर से पुरानी किसान जातियां हमें देखती हैं,हमारी औरतों को ढीले चरित्र की और हमारे पुरुषों को अपनी औरतों के जिस्मफरोशी के पेशे की कमाई खाने वाला बताया जाता है उस हिकारत की नजर की दर्दीली फांस गुदा प्रदेश में गड़ी मालूम देती है।उससे कहीं छुटकारा नहीं है।नई पीढ़ी जो अपने अतीत से कट चुकी है वह इस स्थिति के लिए अपनी औरतों को जिम्मेदार मानती है और समाज के दवाब में अपनी औरतों को नियंत्रित करने के नए मंसूबे पालती है।और हिरनी की तरह निर्द्वंद और निर्दोष किसी के भी खेत या जंगल में चरने वाली हमारी औरतों को अपनी स्वाभाविक और नैसर्गिक आजादी तथा निर्मम और अमानुषिक जाति व्यवस्था की गुलामी के दरम्यान किसी एक को चुनने का अवसर या अधिकार मिलता है तब वे पहले विकल्प को चुनती है जिससे नौजवानों की गुदा में गड़ी फांस और अधिक पैनी होकर अंदर तक चुभती है।गुस्से में बावले हुए ये मर्द जातीय अस्मिता के नाम पर ऐसी औरत का कत्ल कर देते हैं।जिससे बिरादरी में उनकी नाक तो ऊंची होती है लेकिन पुलिस कचहरी और जेल के चक्कर में उनकी जिंदगी बीत जाती है और सारी संपत्ति वकील की फीस की भेंट चढ़ जाती है।
"बाजीगर तो हमें इसलिए कहा जाता है क्योंकि हम बाजी लगाने में सिद्धहस्त थे।लेकिन जाति से तो हम चौहान राजपूत हैं।"जब कोई युवा बुजर्गों से सुनी सुनाई बात का तर्क देता तो चौपाल में इकठे हुए ब्राह्मण और जाट युवक हो होकर हंसते।कई दिन तक ऐसे युवक का चौहान साहब, कंवर साहब या ठाकुर साहब कहकर मजाक उड़ाया जाता।
सही ही था क्योंकि हम बाजीगरों विशिष्ट की द्रविड़ भाषा बोलने वाले लोग जिन्हें सरकार ने दया करके अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है और हम लोग उस दर्जे का फायदा ले रहे हैं।अन्य अनुसूचित जातियों के साथ हमें खाली पड़ी जमीन के पट्टे और सौ पचास गज के प्लाट मिल रहे हैं और हम ले रहे हैं फिर किस मुंह से हम अपने आप को चौहान राजपूत कहते हैं। छोटी या बड़ी,अच्छी या बुरी हमारी अपनी जातीय पहचान है।लालका, मैंने, धारसौत, नामसौत और जगटेका हमारे समूह है।हम अपनी खोई और बदली हुई पहचान के दरम्यान तनी हुई रस्सी पर गिरते संभलते हुए चल रहे हैं।मैं अपने रिश्तेदारों के पास पटियाला,संगरूर और बठिंडा गया हूं वहां वे लोग जट्ट सिखों की भांति दस्तार सजाते हैं।पंज ककारों और रहत मर्यादा का पालन करते हैं।उत्तरप्रदेश और राजस्थान गया हूं वहां वे लोग धोती -टोपी या धोती- पाग धारण करते हैं और अजीब सी द्रविड़ उच्चारण वाली बनावटी हिंदी बोलते हैं।मुझे अपने कबीले के लोगों को देखकर दया आती है।कभी कभी गुस्सा भी आता है।
मेरा ननिहाल बहुत बड़ा है।अठारह मामा और नौ मौसियां हैं फिर उनके भी बच्चे।मेरे नाना ने तीन विवाह किए थे और बिरादरी में दबंग मर्द के रूप में जाने जाते थे।काला कुर्ता धोती पहनते थे और घोड़े पर चलते थे।पट्टे पर मिली हुई तीस एकड़ जमीन को उन्होंने अपने बाजुओं के दम पर बंजर बियाबान से उपजाऊ कृषि भूमि में बदल दिया था।पट्टे की जमीनों का मालिकाना हक मिलने के कानून से बहुत पहले उन्होंने सरकार को दाम चुका कर जमीन का मालिकाना हक हासिल कर लिया था।फतेहाबाद के रतिया दरवाजा इलाके में हजार गज से भी ज्यादा की हवेली एक शरणार्थी से सस्ते में खरीदकर सन 1965 में पूरे टब्बर टीकरों को शहरी निवासी बना दिया था।इतने बड़े परिवार में जब हम लोग रतिया नाली के इलाके से छुट्टियों में आते तब हमारे दिन और रातें इतने व्यस्त और मस्तीभरे होते कि रतिया नाली वापिस पहुंचने के कई दिन बाद तक मेरा जी न लगता।
ननिहाल में मेरी उत्सुकता के विषय वस्तु नाना के बाद बड़े मामा थे।कुलवंत उनका नाम था और आस पड़ोस के एरिया में कुलवंत बाजीगर के नाम से जाने जाते थे।लंबा दुबला शरीर!गोरा सफेद रंग!हमेशा कमीज पायजामा पहनते।कमीज के कंधों पर एक साइड से सिली हुई दूसरी तरफ से काज बटन में लगी पट्टियां होती।जैसी कमीज अक्सर राजेश खन्ना ने पहनी होती। कमीज पर दो फैंसी जेबें होती।कपड़ों का रंग हल्का,गहरा जो भी होता उन पर खूब फबता।
उनकी छाती पर घने बाल थे जो मेरे होश संभालने तक सफेद हो चले थे।
मेरे नाना अधिकतर बाजीगर पुरुषों की तरह काले रंग के थे।रंग भी ऐसा काला मानो कंडा मार्का पक्का रंग!सबसे बड़ी नानी जिसकी संतान बड़े मामा थे जब ब्याह कर आई राजकुमारी जैसी गोरी थी धीरे धीरे फतेहाबाद की तेज गर्म धूप उनका रंग गोरे से लाल और फिर फीका सफेद हो गया था।ऐसी नरम जिल्द लगातार धूप और मौसम की मार से जल्दी ही झुर्रियों की शिकार हो गई थी।हर साल दो साल में पैदा हुए पांच बच्चों में जिसमें सबसे बड़े कुलवंत मामा थे और सबसे छोटी मेरी माँ थी उन्हें असमय बूढ़ा और बीमार कर दिया था।नानी नाना से बहुत प्यार करती थी और पूरा समय उनके आगे पीछे घूमा करती थी।नाना उनकी इतनी ज्यादा परवाह करते हुए प्रतीत होते थे।लेकिन नाना ऐसे ही थे उनके संस्कार और लालन पालन ही ऐसे माहौल में हुआ था कि वे मेरी नानी क्या सबसे छोटी नानी जो उनसे पच्चीस साल छोटी थी,उसे भी कोई खास वैल्यू नहीं देते थे।उनकी नजर में औरत बस औरत ही थी जैसे घोड़ी! दाना डाला,पुचकार लिया और सवारी कर ली।ज्यादा हिनहिनाई या पैर फटकारे तो कोड़े की मार और तीखे स्वर में गाली देकर सीधा कर दिया।
बड़े मामा कुलवंत बाजीगर ने गोरा रंग नानी से पाया था और दबंग स्वभाव नाना से।लेकिन बाकी मामलों में वे न नानी पर गए न नाना का ही अनुसरण किया।जब वे बड़े हो रहे थे नाना के पास पैसा चारों तरफ से आ रहा था।इसलिए कुलवंत मामा शाहखर्ची के आदी थे।पहलौठी के लड़के थे इसलिए नाना के दिल और जेब तक उनकी पहुंच सुगम थी।कुलवंत मामा मेरी माँ से इतने बड़े थे कि हम उन्हें नाना भी मान लेते तब भी गलत न होता।
कुलवंत मामा को खेती में माथापच्ची की कभी जरूरत न पड़ी।सरकारी स्कूल फतेहाबाद से दसवीं पास कर वे जीवन में आगे बढ़ना चाहते थे इसलिए पढ़ाई छोड़कर कई तरह के व्यवसायों में हाथ आजमाया।नई साइकल की दुकान से लेकर पंजाबी ढाबा तक सब खोल कर देखे।लेकिन साल पूरा होते न होते धंधा बंद करना पड़ता।मेरे ठेठ व्यापारी पिता इस बात के लिए कुलवंत मामा का खूब मजाक उड़ाते।
एक बार उन्होंने किसी तोलाराम बनिये के साथ खाद बीज की दुकान खोली।दुकान हमेशा की तरह फेल हो गई।
पिता कहते,"तोला राम किलोग्राम बन गया और कुलवंत को मासा कर गया।"
मां इन बातों पर पिता से चिढ़ती और उनका खूब झगड़ा होता।
जाने क्या बैर था मेरे पिता और कुलवंत मामा में,दोनों एक दूसरे को पसंद न करते।सामने पड़ते तो एक दूसरे को उपहासपूर्ण ढंग से ही संबोधित करते।कुलवंत मामा के तीन लड़के और दो लड़कियों में से कोई भी पढ़ाई में अच्छा न निकला था।उनके मुकाबले में
हम दोनों भाई बहन पढ़ाई में ठीक ठाक थे जो मेरे पिता के लिए गर्व का विषय था,हालांकि यह बात मुझे ठीक -ठीक मालूम बहुत बाद में हुई।हमारे पिता हमारी इतनी डांट फटकार करते थे कि हमें हमेशा लगता कि हम अपने पिता की नजर में दुनिया की सबसे नाकारा संतान हैं।वे कहते भी रहते,"इतनी गंदी औलाद तो किसी की न होगी जितनी मेरी!"और इस बात से मेरी मां भी सहमत होती जो वैसे हर बात में मेरे पिता से असहमत रहती थी।
मेरे पिता अपने बाजीगर होने पर गर्व महसूस करते और बात बात में भाई लहना जी,यानि द्वितीय सिख गुरु अंगद देव जी का उदाहरण देते।ऐसा करते हुए उनकी आंखें लाल अंगारों की तरह दहकने लगती।ऐसे वक्त में मुझे अपने पिता से डर लगता और आश्चर्य मिश्रित गर्व भी हो आता।मेरे पिता किसी भी तरह से अपने आप को बाकी अनुसूचित जातियों के साथ जोड़कर न देख पाते।इसलिये उन्होंने हमारे एस सी के सर्टिफिकेट न बनवाये।हम जनरल केटेगरी में ही आगे बढ़ते रहे।इसका आगे जाकर यह फायदा हुआ कि बड़ी कक्षाओं में हमें जातीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।हमें ब्राह्मणों को छोड़कर सभी जातियों के घरों में बराबर का सम्मान और स्वीकृति मिलती रही।मामा के परिजनों ने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने आप को एस सी केटेगरी में स्थापित कर लिया।बड़े जमीदार यानि नाना के मरने के बाद वे लोग छोटे किसान हो गए।धीरे धीरे जमीन जायदाद बिक गयी और तीसरी पीढ़ी बी पी एल कार्ड वाली अनुसूचित जाति हो गई।
मामा की सारी औलादें कायर और काहिल निकली।न कोई मुस्तक़िल काम धंधा पकड़ा न इज्जत बनाई।हवेली वाले बाजीगरों से वे लोग दलित कॉलोनी इंदिरा नगर के बाशिंदे हो गए।कभी कभार मैं उधर से गुजरता हूं तो उन्हें अपना रिश्तेदार बताने में मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है।