बांसुरी के सुर
सूर्यदेव की तंद्रा अभी टूटी नहीं थी । आसमान सुरमई रंग में रंगा था । पहली किरण ने धरती पर पहला पैर रखा ही था कि सुबह सुबह दरवाजे पर खटखट हुई । इतनी सुबह ! कौन हो सकता है ? मन में झुन्झुलाह्ट हुई । अभी तो नींद भी ढंग से नहीं खुली है । ऐसे में कोई अधीरता से दरवाजा पीटे जा रहा है । उफ़ ! इसे डोर - बैल भी नहीं दिखी क्या ?
अब लेटे रहना असम्भव हो गया था । स्लीपर पैरों में फंसा जैसे तैसे दरवाजा खोला । सामने खड़ा था अरजन सिंह यानि अर्जुन सिंह । एकदम आबनूस जैसा काला पर चमकदार रंग , दुबला पतला छरहरा बदन . पूरे शरीर में कहीं एक इंच भी फालतू मांस नहीं , खिचड़ी बाल , वक्त की मार झेला चेहरा , आँखों में मन भर उदासी ने मानो घर बना रखा हो । बंद गले का कुरता , मैली सी धोती और सिर पर बड़ा सा पगड़ - ऐसा है अरजन सिंह । पर आज तो उसके चेहरे पर उदासी की जगह एक मीटर लम्बी मुस्कान बिखरी थी और आँखों में बच्चों जैसी चंचलता ।
क्या हुआ ? इतनी सवेरे ? - मेरे चेहरे पर ऐसा कुछ भाव न चाहते हुए भी आ गया था और आवाज में थोड़ी तल्खी थी । उसे अपराध बोध हुआ - “माफ़ करना दीदीजी इतने सवेरे आपको परेशान किया ।"
आपके सिवा मेरा है ही कौन जिसके पास गुहार लगाने जाता । दस हजार चाहिएं .. अभी हाल में । बोत बोत जरुरी हैं । अभी चाहिएं हाल ही । थोडा थोडा करके लौटा देगा मै । पर अभी तो जरुरी चाहियें ”।
" पर मेरे पास तो इतने सारे रूपये है नहीं .। घर में कोई इतने पैसे रखता है क्या ? बैंक से निकलवाना पड़ता है । तब जाके मिलते हैं पैसे . “ मैंने सफाई देते हुए कहा । “ पर यह तो बता कि इतने सारे पैसे करेगा क्या ? ”
" बिआह करूँगा दीदीजी । आठ हजार तो मैंने जोड़ रखे थे । सासुजी ने बारह हजार नकद माँगे हैं अपनी लडकी के । दस हजार अगर आप दे दोगे तो काम बन जाएगा । बाकी आप जानो रोटी भी तो खिलानी पड़ेगी न चार बिरादरी वालों को । .”
मुझे देर हो रही है । ढेर सारा काम पड़ा है करने को .। फिर ऑफिस भी जाना है और ये अर्जुन है कि तसल्ली से बातें करने की सोच के आया है । टालने के लिए कहती हूँ - "अच्छा देखती हूँ पर्स में शायद कुछ पड़े हों ”.
बैड रूम से पर्स उठा कर लाती हूँ । दो हजार के नोट निकाल कर उसे थमाती हूँ - "ले अभी तो इतना ही है . “
.और वह दो हजार ही ले कर खुशी से असीसता हुआ चला गया ।
अर्जुन मेरे घर के सामने सङक किनारे उगी झुग्गियों में से एक झुग्गी में रहता है । छोटी सी पुराने कपड़ों , मोमजामे और पोलीथिन से बनी झोपडी । साफ सुथरी चकाचक । सामान के नाम पर दो चार बरतन , मिट्टी का चूल्हा ,एक कबाङी से खरीदी साईकिल , एक चारपायी ,बिस्तर के नाम पर एक चादर ,एक पुराना कंबल और चार जोङी कपङे । हाँ एक कोने में उसके लाल पत्थर भी पङे रहते । अरजन भिनसारे ही उठ जाता है । सुबह सुबह उठ कर लाल पत्थर से सिल , चक्कियाँ बनाता है । एक बन जाए तो नौ बजे चाय बनाएगा । फिर रात के बचे चावल या रोटी के साथ चाय का घूँट पी के साइकिल निकालता है । उस पे सिल चक्की लाद के गाँव गाँव बेचने चल पड़ता है । शाम तक भटकने के बाद छह सात बजे तक वापिस लौटता है । चूल्हा सुलगता है । चार मोटी मोटी रोटी सेकता है । कभी दाल बनती है कभी नहीं । तब वह चाय के साथ ही रोटी सटक लेता है । अकेला मानुस जो मिल जाए वही ठीक ।
अक्सर शाम के समय आ जाता है । जब मै ड्यूटी से लौट कर बाहर लॉन में कुर्सी बिछा कर बैठती हूँ , वह आकर चुपचाप कुर्सी के पास उकङू बैठा रहता है । कभी कभी चाय -बिस्कुट वह भी पा जाता है । बदले में उसकी कोशिश रहती है कोई काम सँवार जाने की । छोटी छोटी बातें करता रहता है । रात के सन्नाटे में उसकी बाँसुरी के सुर हवा में तैरते रहते हैं । कमबख्त बेहद खूबसूरत , बेहद सुरीली बांसुरी बजाता है । एकदम दिल की गहराई तक उतरते सुर । कानों में मिश्री घोलते सुर ।
घर में कौन कौन हैं अर्जुन । एक दिन मैंने पूछा था । वह बच्चों की तरह चहका था . “ सब है दीदीजी . भाई हैं , भौइजी हैं . एक भतीजा है , दो भतीजियाँ हैं , घर दुआर है , जमीन है . दो बहिनिया भी हैं , शादी हुई । अपने घर बार की हैं . " "और तुम यहाँ बठिंडे में ?” उसकी आँखों में गीलापन आ गया था । दीदीजी माई बापू तो चले गए सुरग । तब मैं पन्दरा साल का ही हुआ था । भाई बहुत चाहते थे पर भौजी हो गई बेईमान । उसकी आँख में रडकने लग गया था । रोज सिखाती - पढ़ाती थी जी भईया को । एक रोज भाई जी बोले - निकल जा घर से सो चला आया ....तब से कई जगह भटका जी . ..कही दो दिन रहा , कहीं दो महीने . अब यहाँ आ गया जी आपके चरणों में ।
“ लौट जाते घर , भाई का गुस्सा तो शांत हो गया होगा ”।
“ गया था एक बार पर उनके परायेपन से डरके फिर भाग आय़ा । “
" शादी - वादी कर लेते ”।
"मेरा बिआह कौन करेगा जी । माई होती तो कर ही देती जी । अब कौन देगा जी अपनी बेटी मुझ बेघरबारे को । वह हँसी में आंसू छिपाये उठ कर चला गया था ।
दिन ऐसे ही बीत रहे थे । हर रोज़ मै उसे अकेले चूल्हा फूँकते देखती । पर एक दिन दोपहरी में क्या देखती हूँ कि चौंका चकाचक धुला पुँछा है । सारे बर्तन मंजे धुले पुंछे सजे पड़े हैं । एक तेरह चौदह साल की लड़की चूल्हे के पास बैठी है और वह फोल्डिंग पर बैठा रोटी खा रहा है । तभी बच्चों की एक टोली आ गई - मै भी खाएगा । मेरे को भी खानै । मै भी ….मै भी । मई भी …।
वह इशारा करता है । पंगत सज जाती है । सभी बच्चे खाने बैठ जाते है । दो दो कौर भात खा के उछलते कूदते चले गए ।
रोज की तरह शाम को वह मिलने आया था ।
"आज तो बड़ी दावत हो रही थी "
दीदी जी पास वाली झुग्गी जो चार दिन पाछे खाली हुई थी न जी वो बिन्दा चला गया न टब्बर के साथ गाँव । उसी झुगी में रात आये जी मेवाड़ से । झुमकी का टाब्बर है मरद का रामबीर है जी नाम "।
और उसका जो तेरी रोटी सेक रही थी ।
" जी मैना वती " पलाश के फूलों जैसा रंग हो गया था उसका ।
देखना किसी दिन कोई बवाल हो जायेगा - मैंने उसे समझाया था ।
उस दिन के बाद तो यह नित्यक्रम ही हो गया था । जैसे ही रामबीर और झुमकी तारकोल बिछाने निकलते । मैना अपनी बालक मंडली के साथ लपक कर अर्जुन की रसोई में पहुँच जाती । वहाँ महाभोज बनाया जाता । परोसा जाता । सब मिलकर दावत का मजा लेते ।
ये सब दसेक दिन चला होगा कि एक दिन हंगामा हो ही गया । झुमकी को उस दिन कोई काम नहीं मिला और वह दोपहर में ही लौट आई थी । मैना सबको खिलाकर खाने लगी ही थी । उस दिन मैना की झाड़ू से पिटाई हुई थी । झुमकी रोती जाती । गालियाँ देती जाती । मैना अपराधिनी की तरह सिर झुकाए खड़ी थी । मैंने सोचा - एक प्रेम कथा के बनने से पहले ही उसका अंत हो गया। चलो कहानी खत्म ।
शाम को अर्जुन आया था - उदास परेशान सा । मैंने समझाते हुए कहा था - “ ठीक ही तो किया झुमकी ने । अर्जुन वह बच्ची है सिर्फ तेरह साल की । तेरी उम्र …... “
“ इस साल अट्ठाईस हो जायेंगे दीदी जी । “
तभी मैना भी आ गई थी चा के लिए दूध लेने के बहाने । मैंने उसे भी समझाया था ।
मैना ! माँ की बात सुना करते हैं । तेरे भले के लिए ही तो कहती है ।
उसने सयानों की तरह सिर हिलाया । गिलास में दूध लिया और चली गई ।
एक दो दिन शांति रही और आज यह शादी की बात ….!
सिर झटक मैंने रसोई में नाश्ता बनाया टिफन पैक किए और दफ्तर चली गयी । फाईलों से सिर खपाते अरजुन और मेंना कहीं पृष्टभूमि में चले गये पर लौटी तो सङक किनारे चारपाइयों पर सारे झुग्गियों वाले मरद बैठे मिले ।
शाम को शादी का आयोजन हुआ । सादी सी शादी । कोई आडम्बर नहीं । कोई बैंड बाजा नहीं । बस बीस घराती .. पांच बाराती । दाल चावल ..और बाटियों का भोज हुआ । मीठे में लड्डू । एक साधारण से मंडप में शादी सम्पन्न हो गई ।
शादी के अगले दिन अर्जुन मेरे पास आया था थाली में लड्डू लेके । चेहरा अबीर हुआ पड़ा था । "बधाई हो अर्जुन शादी हो गई "
“ जी दीदी जी अभी पांच हजार दिए हैं । दो हजार के टूम लाया था जी पायल और बिछुए और जी कानो की झुमके । एक साडी भी लाया था जी । बाकी से जो सरया सबको दाल भात खिला दिया । अभी चार हजार और देना है जी उन को जी । तब गौना होगा जी । तब तक तो जी उन्हें अपनी माई की झुग्गी में ही रहना लगेगा न जी । “
और वह दुगनी मेहनत करने लग गया था । पैसे जो इकट्ठे करने थे अपनी मैना वती के लिए । रात दिन सिलें और चक्कियाँ बनाता । दूर दूर के गाँवों में बेचने जाता । देर शाम गये लौटता । रात में जब झुग्गी के बाहर बैठ बांसुरी के सुर छेड़ता तो बेहद मीठे सुर फिजां में देर तक तैरते रहते ।
पर एक दिन अचानक दर्दीला संगीत हवा में तैरने लगा । लगा मानो बांसुरी रो रही हो । इतना दर्द । क्या हुआ अर्जुन को और उसकी मीठी बांसुरी को । प्रेम प्यार की धुन में यह उदासी कहाँ से आ गई । इतनी वेदना छिपी थी बांसुरी में । रात जैसे तैसे काटी थी । सुबह उठते ही गई थी अर्जुन के डेरे पर । वह अपनी झुग्गी के बाहर ही एक पत्थर पर बुत बना बैठा था । एक दम उदास । नीरव आँखों से शून्य में ताकता । सुन्न सा । उसे मेरे आने का अहसास भी नहीं हुआ । यहाँ तक कि पुकारे जाने पर उसे आवाज भी शायद ही सुनाई दी हे क्येंकि उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । कंधे पर हाथ रखा तो चौंक कर उसने सूनी आँखों से मेरी ओर देखा ।
"क्या हुआ अर्जुन ऐसे क्यों बैठे हो ?”
उसने कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि बच्चों की तरह बिलख बिलख कर रोने लगा ।
क्या हुआ बताओ तो सही
पर वह बताने की हालत में हो तब न ।
मैंने असमंजस में इधर - उधर देखा । कोई तो दीखे जिससे पूछ लूँ । अचानक झुमकी के डेरे पर नजर गयी । झुमकी का डेरा खाली था । बिल्कुल खाली ।
एक मिनट में ही सारी कहानी समझ आ गयी ।
जब वह अपने गौने के लिए पैसे इकट्ठे करने के लिए चक्कियाँ बेचता गाँव गाँव भटक रहा था । झुमकी अपने बच्चों के साथ डेरा खाली कर किसी अज्ञात टिकाने की ओर चली गई थी ।
बांसुरी नीचे गिरी हुई थी ।
मीठे सुर कहीं खो गए थे ।