Baat bus itni si thi - 25 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 25

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बात बस इतनी सी थी - 25

बात बस इतनी सी थी

25.

इसी तरह चैन और सुकून से मेरे दो सप्ताह बीत गये । दो सप्ताह बीतने के बाद रविवार के दिन माता जी ने मुझसे कहा -

"चंदन, बेटा ! आज तेरी छुट्टी है ! चल आज अपने फ्लैट की साफ-सफाई कर आएँ !"

"माता जी ! असल में छुट्टु नहीं है, सिर्फ कहने-भर को छुट्टी है ! कंपनी में अभी एक नया प्रोजेक्ट आया है, इसलिए काम बहुत बढ़ गया है । नया-नया प्रोजेक्ट है, तो अभी काम भी सीखकर-समझकर करना पड़ता है !" मैंने बहाना करके कहा ।

"ठीक है ! तुझे फुरसत नहीं, तो मुझे फ्लैट की चाबी दे ! मैं अकेली ही चली जाती हूँ ! तेरा तो रोज-रोज यही रहेगा !"

माता जी के इस आदेश को नहीं मानने का मेरे पास कोई ठोस कारण नहीं था । लेकिन उस आदेश का पालन करना भी मेरे लिए बिल्कुल भी संभव नहीं था । जिस फ्लैट को मैं पहले ही बेच चुका था, उसकी चाबी मेरे पास कैसे हो सकती थी ? और माता जी को वह चाबी कैसे दी जा सकती हैं ? कुछ देर सोचते रहने के बाद समस्या का यथासंभव हल निकालने की कोशिश करते हुए मैंने उनसे कहा -

"माता जी ! वहाँ पर मैंने एक परिवार को किराए पर रख छोड़ा था । मेरे विचार से अब आपको वहाँ की साफ-सफाई की चिन्ता करने की या वहाँ जाने की कोई खास जरूरत नहीं है !"

माता जी को मेरा विचार रास नहीं आया । उन्होंने मेरे सुझाव को अस्वीकार करते हुए कहा -

"साफ-सफाई न सही, अपने फ्लैट को देखने के लिए तो जा ही सकते हैं ! हमारी संपत्ति है वह फ्लैट ! उसकी देखरेख की चिन्ता करके हमें वहाँ जाना ही चाहिए !"

"हाँ, हमें जरूर जाना चाहिए ! लेकिन वो ... !"

"लेकिन वो क्या ... ?"

"लेकिन, वो क्या है न माता जी, आज मुझे बिल्कुल भी फुर्सत नहीं है ! अगले शनिवार या रविवार को चलें ?"

"बेटा ! तुझे फुर्सत नहीं है, तो कोई बात नहीं ! तू टेंशन मत ले ! मैंने कहा न, मैं टैक्सी करके अकेली चली जाऊँगी !"

माता जी के इस फैसले से मेरी धड़कने बढ़ गई । मैंने उनके अकेली जाने के फैसले को बदलने के उद्देश्य से जल्दी से कहा -

"नहीं-नहीं, माता जी ! मेरे रहते आप टैक्सी से और अकेली क्यों जाएँगी ? आज मैं थोड़ा-सा ऑफिस का काम कर लूँ, कल फिर आपको वहाँ लेकर चलूँगा !"

यह कहते ही आने वाले कल का आपातकाल मेरी आँखों के सामने नाचने लगा । लेकिन मेरा जवाब सुनकर माता जी चुपके से कोई बड़ा धमाका कर सकती हैं, ऐसा मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा था । उन्होंने बहुत ही शांत लहजे में मुझसे कहा -

"चंदन, बेटा ! मैंने तो तुझे झूठ बोलना नहीं सिखाया था !"

"झूठ ? कौन-सा झूठ ?"

"अब यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा ? मेरा बेटा इतना ढीठ कैसे हो सकता है कि अपने झूठ को छिपाने के लिए उस झूठ को माँ के मुँह से कहलवाएगा ?"

माता जी की भाव भंगिमा से मुझे कुछ-कुछ अनुमान हो गया था कि शायद इन्हें मेरे फ्लैट बेचने के बारे में जानकारी हो चुकी है । लेकिन माता जी को कैसे पता चला ? इन्हें किसने बताया ? इन दोनों प्रश्नों के अनुत्तरित रहने से मुझे माता जी के सामने अभी सत्य को स्वीकार करने में संकोच हो रहा था । इसलिए मैं माता जी के सवालों का जवाब उन्हीं से पाने की आशा में मौन होकर निरंतर उनकी ओर देखने लगा । मुझे अपनी ओर इस तरह देखते हुए पाकर माता जी बोली -

"अपने पापा के बनाए हुए घरौंदे को बेचने से पहले कम-से-कम तुझे मुझसे पूछना तो चाहिए था ? उसको बेचने का तुझे कानूनी अधिकार मिल गया, तो तूने उसे बेचने के बारे में माँ के साथ एक बार चर्चा करने की भी जरूरत नहीं समझी !"

"माता जी ! मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ कि मुझसे गलती हुई है ! लेकिन ऐसी बात नहीं है, जैसी आप सोच रही हैं और कह रही हैं !"

"तो फिर कैसी बात है बेटा ? क्यों तू माँ के होने-ना-होने में कोई फर्क नहीं कर सका ?"

"क्योंकि मंजरी आपको कोर्ट में घसीटना चाहती थी और मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से मात्र अस्सी लाख रुपयों के लिए मेरी माता जी को मंजरी कोर्ट में घसीटे और मैं चुपचाप देखता रहूँ ! हमारे पास अस्सी लाख रुपये जुटाने का और कोई साधन नहीं था, इसलिए मैंने फ्लैट बेच दिया ! व्यर्थ में आपको कोई कष्ट न हो, इसलिए मैंने फ्लैट बेचने से पहले आपसे पूछा नहीं था और किसी भी तरह इस विषय में कोई चर्चा नहीं की थी !"

"अस्सी लाख रुपये ? कौन से अस्सी लाख रुपये ?" माता जी ने चौककर पूछा । मैंने उन्हें बताया -

"मंजरी ने अस्सी लाख रुपये के दहेज का मुकदमा किया था हमारे ऊपर !"

"पर हमने तुम्हारी शादी में उसके बाप से एक फूटी कौड़ी भी दहेज में नहीं ली ! इस बात को अच्छी तरह जानता है न तू ? तू भी जानता है और सारा समाज जानता है !"

"हाँ, यह हम जानते हैं ! मैं भी जानता हूँ और सारा समाज भी जानता है ! पर माता जी, हमारे जानने भर से कुछ नहीं हो सकता ! कोर्ट सबूतों और गवाहों से चलती है ! समाज के जो लोग यह जानते हैं कि हमने शादी में दहेज नहीं लिया था, उनमें से कोई भी कोर्ट में आकर हमारे पक्ष में गवाही देने का कष्ट उठाने के लिए तैयार नहीं होगा, यह मैं अच्छी तरह समझता हूँ ! दूसरी ओर, मंजरी ने सबूत के तौर पर वह वीडियो कोर्ट में जमा कर दी थी, जिसमें आप उसके पिता से दहेज के नाम पर अस्सी लाख रुपये लेते हुए दिखाई पड़ रही हैं !"

"लेकिन बेटा, वे अस्सी लाख रुपये तो हमने पूरे समाज के सामने मंजरी को वापिस लौटा दिए थे !"

"हाँ ! यह सच है कि हमने वे अस्सी लाख रुपये उनको वापिस लौटा दिए थे, लेकिन अस्सी लाख रुपये वापिस लौटाने की वीडियो नहीं बनायी थी ! जैसाकि मैंने अभी आपसे कहा था कि कोर्ट सबूतों और गवाहों से चलती है ! अगर उसी समय हमने भी रुपए लौटाते हुए वीडियो बना ली होती, जैसेकि मंजरी ने रुपये देते हुए बनायी थी, तो हम उस सबूत को कोर्ट में पेश करके रुपये देने से बच सकते थे । लेकिन हमारे पास अस्सी लाख रुपयों का दहेज लेने के आरोप से मुक्त होने के लिए न कोई सबूत था और न कोई गवाह था ! जबकि मंजरी के पास अभी भी दहेज में आपको अस्सी लाख रुपये देने के सबूत की वीडियो मौजूद है !"

"बेटा, इंसानों की इस दुनिया में कोर्ट ही सब कुछ नहीं है ! भले ही समाज के लोग कोर्ट में गवाही देने के लिए न आएँ, पर इस समाज की अपनी भी एक अदालत होती है, जहाँ दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है ! समाज की इस अदालत में गलती करने वाले को झुकना पड़ता है और उसे अपनी गलती माननी पड़ती है !"

"माता जी ! मुझे नहीं लगता कि मंजरी किसी की बात को मानेंगी या कोई और भी आज के युग में समाज की बात को तवज्जो देता होगा ! इस युग में हर आदमी समाज से पहले अपना स्वार्थ देखता है !"

"बेटा, हर आदमी किसी ना किसी समाज का हिस्सा होता है और वह जिस समाज में रहता हैं, उस समाज की बात मानना उसकी मजबूरी है । जब वह अपने समाज की बात मानता है तभी वह उस समाज में मान-सम्मान पाने का हकदार होता है !"

"माता जी ! अब जो गलती मुझसे हो गई है, उसके लिए क्षमा कर दीजिए ! मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि दो साल के अंदर में उसी फ्लैट को खरीद कर अपने पापा जी की निशानी आपको लौटा दूँगा !"

"बहुत भोला है मेरा बेटा ! पर इस दुनिया में निरे घटिया और चालाक लोग भरे पड़े हैं !" कहते हुए माता जी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा, जिसका मतलब था कि उन्होंने मुझे माफ कर दिया है ।

फ्लैट बिकने का सच माता जी के सामने खुलने से अब मेरी चिंताओं का ऊँट एक निश्चित करवट बैठ चुका था और माता जी से से क्षमा दान मिलने के बाद मेरी जिंदगी कुछ सुकून के साथ फिर से पटरी पर लौटने लगी थी । लेकिन मेरी जिंदगी का कोई कोना अभी भी खाली था । उस खालीपन का एहसास मुझे पल-पल हर पल होता रहता था ।

मेरी जिंदगी का जो कोना खाली था, वह मंजरी के चले जाने से था । वह वह मेरी जिंदगी से और मेरे घर दोनों से जा चुकी थी, लेकिन मेरे दिल की दुनिया में कहीं किसी कोने में, किसी-न-किसी रूप में मंजरी अभी भी उपस्थित थी । अभी भी मेरे दिल में उसके लिए ऐसा कुछ बाकी था, जो मुझे हर पल मेरे निकट मंजरी के होने का एहसास कराता रहता था ।

मेरी मनोदशा का माता जी को भी आभास था । वह इसे लेकर चिंतित भी रहती थी । वह मुझे लेकर जितनी चिन्ता करती थी, उतनी ही चिन्ता मंजरी से हमारे फ्लैट को लौटा लेने की भी करती थी । इसलिए उन्हें जब भी यह आभास होता था कि मेरे दिल में मंजरी को लेकर अभी भी कोई सॉफ्ट कॉर्नर बाकी बचा है, तो वह मुझ पर नाराज होती थी और मंजरी पर उन्हें गुस्सा आता था । उस समय वे मंजरी के लिए खूब खरी-खोटी कहती थी । तब मैं माता जी को समझाने की कोशिश करते हुए उनसे कहता -

"माता जी ! अपने आप को सम्हालिए ! आप यह क्यों भूल जाती हैं कि मंजरी अब यहाँ नहीं है ! वह हमारी जिन्दगी से पूरी तरह बाहर जा चुकी है ! हमसे दूर जा चुकी है !" मेरी बात सुनकर माता जी मुझे घूरकर ऐसे देखती कि मैं एकदम सफेद झूठ बोल रहा हूँ और वे मेरे इस झूठ को अच्छी तरह समझती हैं । लेकिन मेरी नजर में इसका उपाय न माता जी के पास था और न मेरे पास था । यह अलग बात थी कि माता जी हारकर बैठने वाली नहीं थी । उनके इस गुण को मैं भी अच्छी तरह जानता था और वे खुद भी यह बखूबी समझती थी ।

क्रमश..