Superstar Shivaji - Sonali Mishra in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | महानायक शिवाजी - सोनाली मिश्रा

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महानायक शिवाजी - सोनाली मिश्रा

कई बार जब हम किसी चीज़ को शिद्दत से चाहते हैं और उसे हर हाल में...कैसे भी कर के पाना चाहते हैं एवं अपने अथक प्रयासों एवं दृढ़ निश्चय के बल पर उसे पा भी लेते हैं या पाने के इस हद तक करीब पहुँच जाते हैं कि हमें, हमारी जीत एकदम सुनिश्चित...सुरक्षित एवं भरोसेमंद लगने लगती है। तभी अचानक ना जाने ऐसा क्या होता है कि जीत की सारी खुशी...उसका सारा वेग..सारा हर्षोल्लास...सारा उन्माद , सब का सब एकाएक हवा हो...जाने कैसे काफूर होने लगता है। अपनी उस उपलब्धि पर हमारे मन में कोई उमंग..कोई आस..कोई उल्लास..कोई तरंग तक नहीं बचती। यहाँ तक कि खुशी भी अपने वजूद को नकार सामने आने से साफ़ तौर पर खड़े पैर ही समझो इनकार कर देती है।

आज...इस घड़ी..अवसाद भरी यह सब बातें इसलिए कि...ठीक इसी तरह की हतोत्साहित करने वाली फीलिंग या भावों से मैं खुद को आत्मसात करते हुए कथाकार सोनाली मिश्र जी के एतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यास “महानायक शिवाजी” में आमेर के महाराज जय सिंह के किरदार को खुद में जी, उनके मस्तिष्क में उमड़ रहे भावों को पकड़ने एवं समझने का प्रयास कर रहा था कि किस तरह दिल्ली सल्तनत के बादशाह ओरंगज़ेब के आदेश पर वह अपनी वीरता एवं कूटनीति से शिवाजी को आत्मसमर्पण कर, संधि के लिए सामने आने पर मजबूर कर देते हैं| मगर उनके आत्म समर्पण से पहले जय सिंह के मन में मंथन शुरू हो जाता है कि वे जो कर रहे हैं या करने जा रहे हैं...क्या वो सही है? क्या सही अर्थों में शिवाजी घुटने टेकने या फिर पूजने..प्रशंसा करने के लायक है? क्या उनके समर्पण करने से भारण में मुग़ल और मज़बूत नहीं हो जाएंगे?

इस उपन्यास में कहानी शुरू होती है महाराज जय सिंह के शिविर में आत्म समर्पण एवं संधि के लिए अनमने मन से बढ़ते शिवाजी के कदमों के साथ। आगे बढ़ने के साथ साथ उनके मन में उनके बचपन से ले कर अब तक की घटनाएं..उनकी शौर्य गाथाएं भी एक एक कार के उमड़ रही हैं कि किस तरह बचपन में उन्होंने अपनी माता जीजा बाई से देश प्रेम और स्वराज का पढ़, अभावों भरी ज़िन्दगी जीते हुए भी अपनी वीरता से एक एक कार के अनेक दुर्ग जीते।

साथ ही वो स्मरण कर रहे हैं कि किस तरह उन्हें अपने बचपन में उस वक्त तीन साल तक अकेले वीरान...उजाड़ और खंडहर समान दुर्ग में जंगली जानवरों से दो चार होते हुए अकेले रह गुजर बसर करना पड़ा जब उनकी माता को जबरन कैद कर लिया गया| कैसे उस कैद से तीन साल बाद उनकी माता फरार हुई और उनका फिर से आपस में मिलन हो सका| साथ ही साथ उनके मन में ये भी उमड़ रहा है कि कैसे उनके पिता शाहजी, उन्हें और उनकी माता को अकेला छोड़ अपनी दूसरी पत्नी के साथ रहने लगे थे| किस तरह बाल्यकाल में ही उन्होंने बीजापुर की रियासत में गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध लगवाया।

कैसे उन्होंने मराठों के बीच एकता का बिगुल बजा दुर्ग पर दुर्ग विजयी किया था| कैसे उन्होंने अपनी छापामार...गुरिल्ला युद्धनीति से अपने शत्रुओं पर उनके दांत खट्टे करते हुए विजयी पायी और कैसे उन्होंने अपनी ह्त्या का मंसूबा पाल रहे अफज़ल खान का वध किया था जब वह उन्हें अपनी विशालकाय बाहों में दबोच जान से मारने की नीयत से गले लगा रहा था| उन्हें वो क्षण..वो पल याद आ रहे हैं कि किस तरह उन्होंने व्यापारिक महत्त्व के क्षेत्र, सूरत को लूट कर मुग़लिया सल्तनत और उसके वर्चस्व की कमर तोड़ी थी। किस तरह से अंग्रेज़, पुर्तगाली तथा डच कंपनियाँ उन पर आक्रमण करने के बजाय उनसे दूरी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझती थी। कैसे उनका माखौल उड़ाने..तिरस्कार करने और अपनी घबराहट छुपाने के नाम पर उन्हें बार बार पहाड़ी चूहा कह कर अपमानित करने का प्रयास किया गया।

इस उपन्यास में एक तरफ शिवाजी की वीरता और स्त्री, बच्चों और निरपराधों के प्रति उनकी मन में दया...आदर और स्नेह है तो वहीँ दूसरी तरफ निर्दयी औरंगजेब की चालबाजियां...क्रूरता...मक्कारी और धोखेबाजी है।

रोचक एवं धाराप्रवाह लेखनशैली में लिखा गया यह उपन्यास अपने आरंभिक पृष्ठों से इस कदर अपनी पकड़ बनाता चलता है कि कब इसका अंत हो गया..पता ही नहीं चला। पूरा उपन्यास आपके सामने से इस तरह गुज़रता है मानों सिनेमा हॉल में कोई ऐतिहासिक फ़िल्म चल रही हो। हालांकि यह उपन्यास कुछ जगहों पर मुझे थोड़ा धीमा और कुछ कुछ डॉक्यूमेंट्री याने के वृतचित्र जैसा भी लगा जैसे.. जय सिंह के आत्म मंथन वाले पड़ावों पर। मगर कुल मिला कर यह पठनीय होने के साथ साथ संग्रहणीय भी है।

अंदरूनी पृष्ठों की पेपर क्वालिटी जितनी बढ़िया लगी उतना ही हल्का और कमज़ोर इसका कवर पेपर लगा। किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से इसे भी टक्कर का याने के थोड़ा मोटा होना चाहिए था। 224 पृष्ठीय इस ऐतिहासिक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए। जो कि पाठक की जेब के हिसाब से मुझे ज़्यादा लगा। इस दाम में इसका हार्ड बाउंड संस्करण आता तो बेहतर था। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।