Jindagi Satrang - 4 in Hindi Moral Stories by Sarita Sharma books and stories PDF | ज़िन्दगी सतरंग.. - 4

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ज़िन्दगी सतरंग.. - 4

अम्मा जी और फ़ौजी अंकल अब बूढ़े हो चुके थे..ईर्ष्या,काम, क्रोध, लोभ, मोह.. इन सबसे कोसो दूर..हां क्रोध और मोह अभी बाकी था और बाकी था ढेर सारा बचपना भी...बच्चे जैसे दिमाग से नही सोचते मन के निश्छल होते है..उन्हें ना सम्मान की चिंता ना अपमान का डर..बस चाहिए तो ढेर सारा प्यार...ऐसे ही अम्माजी और फौजी अंकल भी किसी साथ, किसी बहाने की तलाश थी.. देवर-भाभी-ये ऐसा खट्टा मीठा रिश्ता है जो मन से मानो तो इनसे बेहतर दोस्त और कौन हो सकता है?...और दोस्तों के साथ ज़िन्दगी तो बेहतरीन ही होती है..अब छत पर हर रोज़ हंसी ठहाका, पुरानी यादों की बंद परत,.. परत-दर-परत खुलती गयी.. मानो वक़्त ठहर सा गया हो..कितने वर्ष बीत चुके थे दुश्मनी निभाते निभाते..कभी समझ ही नहीं पाए कि साथ इतना खूबसूरत भी हो सकता है..कभी कभी हम रिश्तों की अहमियत को नहीं समझ पाते..हमारा लोभ ,क्रोध इन पर इतना हावी हो जाता है की रिश्ते कब बिखर गए ये भी नही देख पाते..
दिन कब बीत जाता पता ही नहीं चलता..बातें तो हो ही रही थी पर बातों से ज्यादा खट्टी-मीठी नोकझोंक..
छत को दो भागों में विभाजित करने वाली सीमा ज्यादा ऊंची नहीं थी..कभी अम्मा जी सीमा पार, कभी अंकल सीमा पार.. वैसे ये सीमा loc से कुछ कम नहीं थी.. दोनों जानते थे कि अगर बच्चों को पता चला तो घर में विश्व युद्ध छिड़ जाएगा..
एक दिन ऐसे ही अम्माजी और फौजी अंकल छत पर बैठे बातें कर रहे थे। नीचे आँगन से कुछ हो-हल्ला सुनाई दिया..दोनों हड़बड़ाते हुए उठकर, छत की रेलिंग से नीचे झांककर देखने लगे..आखिर जिसका डर था वही हुआ..सबको पता चल चुका था...आँगन के बीचोबीच दीवार के इस पार अम्माजी का बेटा और उसके साथ उनका परिवार और दूसरी ओर फौजी अंकल का बेटा साथ में उनका परिवार.. दोनों एक दूसरे पर चीख रहे थे..
अम्माजी को दिखाई कम देता था और फौजी अंकल को सुनाई कम.. ज़ोर जोर से बात करने में आख़िर बच्चों को भी इस बात को भनक लग गयी थी..वैसे भी बातें कितने दिन छुपती हैं..
"भाभी तूने क्यों बताया उन्हें.. अब देख क्या उत्पात कर रहे दोनों"...फौजी अंकल ने नाराज़गी भरे स्वर में कहा..
"मैं क्यों बताती? मैने तुझे कितना कहा कि धीरे बोल-धीरे बोल.. चीख-चीख कर बोलने की क्या जरूरत थी..अब सुन लिया ना सबने? अम्माजी ने भी गुस्से भरे अंदाज में कहा..
"भाभी तू भी कम तेज़ नहीं बोलती"..
"तुझे ही सुनाई कम देता है? जोर से बोलने को तूने ही कहा था.."
"ये नालायक भी कुछ ज्यादा ही चीख रहा है"..(फौजी अंकल आपने बेटे की तरफ देखते हुए)
"हां इस बल्लू ने भी छत सर पर ठा रखी है".. अम्माजी अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहती है..
"फिर नहीं दिखने चाहिए हमारी छत पर"(फौजी अंकल का बेटा गुस्से में कहता है)
"जा जा पहले अपनी मां को संभाल तब हमें कहना"-अम्माजी के बेटे ने जवाब देते हुए कहा..
दोंनो छत की तरफ बढ़ते हैं.. सीढ़ियों से तेज दमदमाते कदमों की आवाज कानों में गूंजने लगती हैं..

अम्माजी और फौजी अंकल जो अभी भी छत से नीचे देख रहे थे.. दोनों ने एकदूसरे को देखा फिर आँगन के बीचोबीच दीवार को देखने लगते है.. बीता समय याद आने लगता है..

पिताजी के देहांत के बाद फौजी अंकल और उनके भाई के बीच सम्पत्ति को लेकर विवाद हो गया..और विवाद इतना बढ़ा की दोनों एक दूसरे को देखना तक नहीं चाहते थे.. आपस मे बातचीत बंद हो चुकी थी..कभी आमने सामने आ भी जाते तो मुह फेर लिया करते...अम्माजी के तीन बच्चे थे और फौजी अंकल के दो.. एक दिन सभी भाई बहन आँगन में खेल रहे थे.. अब बच्चों को क्या मतलब बंटवारे से, लड़ाई झगड़े से.. सभी बच्चे जहां साथ मिल जाये वही खेल शुरू...वही आँगन बन जाता, वही खेल का मैदान...अब बड़ों से बच्चों का साथ खेलना भी रास ना आया..
अम्माजी ने जब बच्चों को साथ खेलता देखा तो गुस्से में बाहर आई..
"कितनी बार कहा है 'की इनके साथ नही खेलना'..समझ नही आता तुम्हें"..
"माँ मुझे खेलना है"..'बच्ची मासूमियत से कहती है'..
चटाककक?? अम्माजी उसके गाल पर थप्पड़ लगा देती है.. बेटी रोने लगती है..
उधर अम्माजी की देवरानी भी बाहर आकर अपने बच्चों को डाँटती है..
दोनों एक दूसरे को गुस्से भरी नजरों से देखते है..
"चुपचाप अंदर चल"..अम्माजी अपनी लड़की का बाजू पकड़कर उसे अंदर खिंचती हुई ले जाती है...
उधर देवरानी भी अपने बच्चों को डांटते हुए अंदर ले जाती है..
पर बच्चे कहां मानने वाले थे.. जब मौका मिलता तब खेलने लग जाते.. बड़ो की ज़िद और नफरत ने आंगन के बीचोबीच दीवार खड़ी कर दी..आँगन में खड़ी दीवार के नीचे केवल बच्चों का बचपन ही नहीं आपसी प्रेम, रिश्ते भी दब चुके थे...
सम्पत्ति का बंटवारा होना, या अलग घर बना लेना या दो भाइयों का अलग हो जाना ये कोई बड़ी बात नहीं है। परिवार बढ़ता है, तो खुशियां बनी रहे ये होना आवश्यक भी हो जाता है.. पर फर्क तब पड़ता है, जब ये दीवार मन पर पड़ जाए ...आपसी सम्बन्धों में दिलों में खटास नहीं आनी चाहिए..रास्तों की दूरियां रिश्ते नहीं तोड़ती..मन की दूरियों से अक्सर रिस्ते टूट जाते हैं..लड़ना झगड़ना फिर एक हो जाना यही तो परिवार का मतलब होता है..
समय अपने आप को दोहराता रहता है..इतने वर्षों में पता ही नहीं चल पाया कि कब ये दीवार बच्चों के मन पर भी पड़ चुकी थी..वक़्त सब याद रखता है और इंसान को सब याद दिला भी देता है...
जब तक हमें लगता है हम समर्थवान हैं अहम से घिरे रहते है..रिश्तों पर अपना वर्चस्व, अपना नियंत्रण रखना चाहते है.. रिश्तों को बन्धन में रखकर रिश्ते अक्सर टूट जाते है..इन्हें स्वतन्त्र कर देना चाहिए..हर मन की बात स्वीकार्य करने की क्षमता, और एक -दूसरे के प्रति आदर, प्रेम की भावना ही एक परिवार को प्रेम से जोड़े रखती है..साथ होने का अर्थ तो यही है... बाकी मतलब से किसी से जुड़ना भी क्या जुड़ना है...?
दोनों बेटे छत पर पहुँच जाते हैं..
"माँ इनसे बात क्यों कर रही हो? चलो नीचे" अम्माजी का बेटा गुस्से में अम्माजी को कहता है।"छत पर भी कब्जा करने की सोच रहे होंगे"फिर बड़बड़ाते हुए..
"देख लिया पिताजी तुम्हारी वजह से हमे क्या-क्या सुननी पड़ रही है".फौजी अंकल का बेटा भी गुस्से में कहता है...
अम्माजी और फौजी अंकल दोनों एकदूसरे को बेबस निगाहों से देखते हैं.. जुबां तो खामोश ही थी पर मन का शोर बैचेन कर रहा था। बिना कुछ कहे दोनों सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगते है..पीछे पीछे उनके बेटे भी...
घर पर काफी हो हल्ला हुआ। ये पहली दफा थी जब अम्माजी इतनी शांत थी। जवाब नहीं था, या खुद के अन्तर्मन के सवालो में उलझ गयी थी..कुछ तो था जो मन को कचोट रहा था..अब सब अपने अपने कामों में लग गए थे अम्माजी भी अपने कमरे में चुपचाप चारपाई पर लेट गयी..अपने ही ख्यालों में किसी उधेड़बुन में खोई हुई...
अम्माजी के दो बेटे जिसमें से एक बेटा दूसरे शहर नॉकरी करता था, जिसका परिवार भी उसके साथ रहता था..यहां अम्माजी और उनका बड़ा बेटा जो किसान है। बहु जो खेती का काम करने में निपुर्ण कर्मठ.. उसके कर्मठ होने की वजह से ही अम्मा जी ने अपने बेटे के लिए बहु पसन्द की थी। उनकी 2 बेटियां एक बेटा जिसमे से 2 लड़कियों की शादी हो चुकी थी। घर पर अब एक पोता बहू बेटे के साथ रहती थी.. वैसे तो ये लोग काफी थे अम्माजी के साथ बातचीत के लिए पर बहु बेटा सुबह से शाम खेतो में कभी घर के कामों में व्यस्त रहते। एक पल भी आराम से नही बैठते..पोता भी थोड़ी बहुत खेत में उनके साथ मदद करता और बचे समय मे मोबाइल फ़ोन tv.. उसके पास भी कहां समय था इतना कि दादी के साथ बैठ सकें थोड़ी देर..और ना ही उन्हें इस बात का ध्यान था कि अम्माजी अकेली है.. आखिर जमीन भी काफी जोड़ रखी थी अम्माजी और उनके पति ने.. जिससे उनका परिवार दो घड़ी आराम से बैठ पाता उनके पास..वैसे भी अम्माजी ने भी तो अपनी ज़िंदगी मे हमेशा यही किया था .. जबतक शरीर ने जवाब ना दे दिया..और कभी बहु थोड़ी देर आराम करने बैठ जाती तो डाँट फटकार कर फिर से काम पर लगा देती थी.. तब शायद वो समर्थवान थी.. उन्हें ख़्याल भी नही आया होगा कि समय ऐसा भी होगा जब उन्हें लगेगा कि काश वो परिवार के साथ दो पल बैठकर हंसी खुशी कुछ समय बिता पाती..या उन्हें ज़िन्दगी में परिवार का मतलब सिखाती प्रेम का मतलब सिखाती.. ज़िंदगी भर काम के पीछे दौड़ती रही..और यही देखते हुए उनके बच्चे भी बड़े हुए थे..और ये नफरत का बीज जो उस समय बच्चों के मन मे बो दिया था आज वह पेड़ बन चुका था जिसकी जड़े इतनी गहरी हो चली थी कि माँ बेटे के रिश्तों को भी दरकिनार कर दिया था..
हमें हमेशा किसी ना किसी रूप में प्रेम चाहिए होता है.. माता-पिता , भाई-बहन, जीवनसाथी, परिवार, दोस्त.. अलग अलग रिश्तों में प्रेम के अलग अलग रूपों से सराबोर होना.. यही तो रास्तें हैं ज़िन्दगी खुशहाल और आराम से जीने के लिए..
बच्चों की उज्ज्वल भविष्य के नाम पर हम सम्पत्ति जोड़ने में लगे रहते है.. जबकि अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार ही किसी व्यक्ति की खुशहाली और उज्ज्वल भविष्य का स्रोत होता है..
किसी की सबसे बड़ी सम्पत्ति और सबसे बड़ा दान शिक्षा और संस्कार ही है जो हम किसी को देते है.. ये पीढी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है.. उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है..इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि हमारे पास कितना धन है.. सन्तोष का भाव हो तो हम हर परिस्थिति में खुश रहते हैं..
आज मन बहुत भारी था..चारपाई पर लेटे-लेटे अम्माजी कितनी ही सोच में डूब गई थी..अतीत की एक एक घटनाएं सब प्रत्यक्ष हो रही थी.. ये मन भी बहुत शक्तिशाली होता है..जब तक इच्छाशक्ति होती है हम हर हाल में परिस्तिथियों से पूरे मनोबल से लड़ते है और जीतते हैं.. पर जब मन ही हार जाए तो कुछ बाकी नहीं रहता.. बाकी रहती है तो बस निराशा...


क्रमशः....