Radharaman vaidya-ham kya karen - 3 in Hindi Human Science by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 3

Featured Books
  • 99 का धर्म — 1 का भ्रम

    ९९ का धर्म — १ का भ्रमविज्ञान और वेदांत का संगम — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎...

  • Whispers In The Dark - 2

    शहर में दिन का उजाला था, लेकिन अजीब-सी खामोशी फैली हुई थी। अ...

  • Last Benchers - 3

    कुछ साल बीत चुके थे। राहुल अब अपने ऑफिस के काम में व्यस्त था...

  • सपनों का सौदा

    --- सपनों का सौदा (लेखक – विजय शर्मा एरी)रात का सन्नाटा पूरे...

  • The Risky Love - 25

    ... विवेक , मुझे बचाओ...."आखिर में इतना कहकर अदिति की आंखें...

Categories
Share

राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 3

हम क्या करें ?

-श्री राधारमण बैद्य

आज निहित स्वार्थो से प्रेरित राष्ट्रीयता और आत्म गौरव उभारा जा रहा है, संस्कृति की दुहाई दी जा रही है या बाह्य सज्जा और लुभावने रूप के आधार पर शिक्षा की दुकानें चल रही हैं। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने-पढ़ाने का ऐसा उन्मादआया है कि अपनी सामथ्र्य और अपनी परिस्थिति का ध्यान नहीं रख पा रहे हैं अपने वैभव प्रदर्शन के लिए गर्व से इन संस्थाओं में अपने बालकों के पढ़ने की चर्चा करते हैं। कुछ नासमझ ’’देखा-देख पड़ौसिन की’’ अपने बच्चों को इन विद्यालयों में भेज रहे हैं, जिससे वे तो आर्थिक तंगी में आने ही लगते हैं, साथ ही बच्चे भी न घर के रहते हैं, न घाट के।

आज हमारा देश बैलगाड़ी भी चला रहा है और अति तीव्रगामी वायुयान भी। हम शादी व्याह में संस्कृत का आश्रय लेते हैं, और पार्टियों में अंग्रेजी बोलते हैं। हम दाल भात-रोटी के साथ चाय-बिस्कुट ब्रेड और पीज़ा या फास्ट फूड भी खाते हैं। यह हमारे प्राचीन और नवीन का समन्वय ही है। हम अपने स्वरूप को अक्षुण रखते हुए आधुनिकता ग्रहण कर रहे हैं। किन्तु कालिदास के अनुसार न तो सम्पूर्ण पुराना कल्याणकारी होता है और न सम्पूर्ण नया यथावत ग्रहण करने योग्य।

ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं है, विद्या के समान नेत्र नही हैं, सत्य के समान तप नहीं है’’ जैसे वाक्य ज्ञान, विद्या और सत्य की महिमा वर्णन करने के साथ-साथ इस ओर निरन्तर बने रहने की प्रेरणा देते हैं। यही प्रेरणा हमें विज्ञान के अन्वेष्णों, नित नवीन जानने और इसके लिए घोर परिश्रम करने की हिम्मत देते हैं।

मानवीय गुण- उदारता, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता संवेदना और सहिष्णुता का समाज में होना उसके स्वस्थ होने का लक्षण है। डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन तो सहिष्णुता को भारतीय संस्कृति की आत्मा कहते हैं। शक्ति को आदि देवी और आराध्या माना गया है, उसे आत्मसात् करना दैहिक, भौतिक और सांसारिक आवश्यकता है। आज हममें इन सबका हास्य होता जा रहा है, क्योंकि इनकी प्राप्ति की ओर सर्वसामान्य की रूचि दिखाई नहीं देती। अर्थ और काम, जो हमारे पुरूषार्थ गिने जाते थे, आज बड़े घिनौने और विकृत रूप से हमारे जीवन में प्रकट हो रहे हैं।

हमारा शिक्षा जगत, जो समाज में इन सद्गुणों का प्रणेता होना चाहिए, वह आज असहाय और इस ओर निष्क्रिय सा है। क्या वह विवश है या उसमें सद्इच्छा ही शेष नहीं रहीं ? रहीम का कथन है-

यों रहीम सुख होत है, उपकारी के अंग।

बांटन बारे के लगेग, ज्यों मेंहदी कौ रंग।।

(दूसरों को सुख का विधान करने स अपने सुख का विधान होता है) ऐसे सुखदाता कार्य से यह शिक्षा जगत क्यों विमुख होता जा रहा है ? आज समजा की समस्याओं का उसके पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं है। उसकी लोकोन्मुखता दिखावे में मुखर अवश्य रहती है, पर यथार्थ में नहीं।

किसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति का उद्देश्य ऐसे नागरिकों का निर्माण करना होता है, जो अपना सर्वागीण विकास कर अपने समाज को आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से आत्म निर्भरता, स्वावलंबन और बल प्रदान कर सकें तथा राष्ट्रीय एकता, सद्भावना को पुष्ट कर सकें। शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों को यह विवेक आना चाहिए कि क्या ग्रहण किया जाय और क्या छोड़ दिया जाय। इसलिये शिक्षा को पुस्तकीय जानकारियों से भरपूर ही न बनाया जायें, बल्कि जीवन से जोड़कर राष्ट्रीय जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया जायें और हमारी सभ्यता और परम्परा के अनुकूल भी रहने दिया जायें।

सभ्यता किसी देश या जाति के साहित्य, दर्शन, मूर्ति व चित्रकला, गायन, वादन, नृत्य नाट्य स्थापत्य आदि ललित कलाओं पर और आधुनिक सुविधा के उपकरणों की तकनीकी जानकारी पर निर्भर करती है, जिनके लिए वैज्ञानिक अध्ययन व प्रयोग अपेक्षित होते हैं। इसलिए शिक्षाविदों ने सच्ची शिक्षा को हृदय, हाथ और मस्तिष्क का समन्वय कहा है।

हमारी संस्कृति एक सामासिक और गतिशील संस्कृति है, उसमें आदान प्रदान होता रहा है और होता रहेगा। उसमें विशुद्धता की तलाश या आग्रह व्यर्थ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमारी संस्कृति पर अनेक परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ रहे हैं इनमें महत्वपूर्ण हैं- वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति लोकतंत्र की स्थापना आर्थिक विकास औद्योगिकरण विदेशों व सांस्कृतिक संबंध शिक्षा प्रसार और पाश्चात्य शिक्षा की ओर।

जनतंत्रात्मक व लोक कल्याण के सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर भारतीय संस्कृति, आदर्श, परम्पराओं, सामयिक आवश्यकताओं में सामजंस्य उत्पन्न करके शिक्षा की पुनर्रचना की जानी आवश्यक है। अंग्रेजी काल में शिक्षा के उद्देश्य संकीर्ण थेे, उससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास नहीं होता था। आज तक जो विविध शिक्षा आयोग और शिक्षा समितियाँ नियुक्त की गयी, उनके सुझावों पर पूर्णतः अमल नहीं किया गया। कुछ आंशिक परिवर्तन की चेष्टा पूरे प्रचार और दिखावे के साथ अवश्य होती रही, जो सब मुखौटे बदलने या साइनबोर्ड पोतने भर तक सीमित होकर रह गई। आधे-अधूरे साधन जुटाये गये, जिनमें पैसा तो खर्च हुआ किन्तु उपलब्धि कुछ न हो सकी। त्रिभाषा फार्मूला, बहुउद्देश्यीय विद्यालय, पढ़ो-कमाओ-योजना, रोजगारोन्मुख शिक्षा सब निरर्थक साबित हुए। कभी परीक्षा पद्धति और कभी पाठ्य पुस्तकों में हेर-फेर किया गया, पर फल कुछ न निकला। बेरोजगार युवकों की संख्या निरन्तर बढ़ती रही। निराश और हताशा हाथ लगी।

हमारी ईमानदारी संदेह के घेरे में आ गई। हमारा नेतृत्व अशक्त सिद्ध हुआ और शिक्षाविदों का प्रयत्न निष्फल हो गया। आयोग पर आयोग बिठाकर हमें भरमाया जाता रहा। अब शिक्षा का हस्तान्तरण और भी घातक होगा, जब तक हम सब सावधान और सर्तक होकर उस पर निगाह रखने, लक्ष्य प्राप्ति का मूल्यांकन करने और आवश्यकतानुसार नेतृत्व पर दबाब बनाये रखने का बीड़ा उठाकर सन्नद्ध नहीं रहेगें। अभिभावक को ही क्रियाशील होना पड़ेगा, क्योंकि स्वार्थी और अवसरवादी तत्व और कहीं-कहीं असामाजिक तत्व इतने सक्रिय हैं कि व्यवसायिक शिक्षा, रोजगारोन्मुखा शिक्षा या अंग्रेजी माध्यम से श्रेष्ठ शिक्षा के नाम पर लूट का बाजार गरम किये हैं। प्रवेश से ही पैसा और पैरवी की बदौलत ही आप ऊपर जा सकते हैं। चाहे सरकारी संस्थाएं हो, चाहे प्राइवेट सब शिक्षा से विमुख दुकानें मात्र हो गयी हैं, या होती जा रही हैं।

अब जब सामान्यजन में सम्मिलित प्रबुद्ध वर्ग को क्रियाशील होना ही है और जन-जन को भागीदार बनाना है तो पाठ्यक्रम विधि ऐसी हो, जो छात्रों में स्वतंत्र चिन्तन का विकास करें। उसे नये उत्तरदायित्वों को वहन करने की क्षमता प्रदान करें, प्रदत्तों के आधार पर तर्क पूर्ण ढंग से उन्हें निष्कर्ष निकालने की प्रेरणा दे, पूर्व धारणाओं से ऊपर उठने की योग्यता दे एवं राष्ट्र या समाज को समृद्ध बनाने की उसमें आकांक्षा भर दें। इसके लिए कक्षा के अन्दर छात्रों की क्रियाओं को निर्देशित करना होगा। उद्देश्यपूर्ण परिभ्रमण, दृश्य-दर्शन, वाद-विवाद, सामूहिक चर्चा, परिचर्चा, संगोष्ठी एवं कार्यगोष्ठी की योजना छात्रों को स्वतंत्र चिन्तन की ओर उन्मुख करेगी।

यह सभी आकांक्षाएँ तभी फलीभूत हो सकती हैं, जब शिक्षक का स्वयं का दृष्टिकोण प्रगतिशील, राष्ट्रीय और वैज्ञानिक हो, क्योंकि अभिवृत्ति के दृष्टिकोण पढाये नहीं जातेे, अनजाने ही हस्तान्तरित होते चले जाते हैं। इन सबके लिए शिक्षक का व्यक्तित्व, आचरण और व्यवहार अनायास प्रभावी रहता है।

अब चारों ओर फैल रही शिक्षा व्याधियों के पोस्टमार्टम से काम नहीं चलेगा। इसकी पूर्ति की दिशा में अपनी विजय यात्रा का आरंभ करने में जुट जाना होगा। मातृभाषा का माध्यम पकड़ना होगा। अपनी दुर्बलताओं, अपनी संकुचित सीमाओं को स्वीकार करते हुए हमें विश्व के विकासशील और प्रगतिशील देशों के साथ कदम मिलाना होगा। अंग्रेजी को आगे रखे बगैर और हिन्दी का दुराग्रह छोड़कर अन्य राज्यों से अपने सम्पर्क सूत्र जोड़े। त्रिभाषा फार्मूला को पूरी ईमानदारी से लागू करें। व्यापारिक वृत्ति को ताक में रखकर, एक मात्र गुण महत्ता को दृष्टिगत कर स्वतंत्रता आन्दोलन के समय विकसित राष्ट्रीय विद्यालय महाविद्यालय की भावना से जुट जाना होगा। अध्यापन को पेशा या व्यापार समझकर नहीं, त्याग और तपस्या के साथ करना होगा। शासन की निर्भरता भी त्यागनी होगी और अपनी इन शिक्षा संस्थाओं के प्रति सामान्यजन का विश्वास जीतना होगा, क्योंकि उनकी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति का भरोसा उन्हें मिले, तभी यह संभव होगा। आज हमारे विद्यालय महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयों में वर्ष भर के पढ़ाई के घंटे जितने कम हैं, किसी विकसित देश में नहीं हैं। अतः हमें सत्साहस बटोरकर काम में जुट जाना है। साहिल से तूफा का नज़ारा करने से कुछ नहीं होने वाला तभी सार्थक होगा-

कि ’’कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’

-0-