Vaishya ka bhai - 10 in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | वेश्या का भाई - भाग(१०)

Featured Books
  • दिल ने जिसे चाहा - 27

    Dr. Kunal तो उस दिन Mayur sir को ये बता कर चले गए थे कि—“शाद...

  • अदाकारा - 62

    *अदाकारा 62*     शर्मिलाने अपने दिमाग पर ज़ोर लगा...

  • Tere Ishq Mein - Explanation - Movie Review

    फिल्म की शुरुआत – एक intense Romanceफिल्म की शुरुआत एक छोटे...

  • Between Feelings - 1

    Author note :hiiiii dosto यह एक नोवल जैसे ही लिखी गई मेरे खु...

  • Mafiya Boss - 3

    in mannat गीता माँ- नेहा, रेशमा !!ये  तुमने क्या किया बेटा?...

Categories
Share

वेश्या का भाई - भाग(१०)

मंगल को परेशान सा देखकर रामजस बोला....
मंगल भइया! इतना परेशान क्यों हो रहो ?मेरी माँ की भी अजीब़ दास्ताँ है।।
मुझे नहीं सुनाओगे अपनी माँ की दास्ताँ,मंगल बोला।।
क्या करोगे सुनकर? रामजस बोला।।
अभी थोड़ी देर पहले तुम ही तो कह रहे थें कि मन का दर्द बाँटने से मन हल्का होता है तो तुम भी मुझसे अपने दर्द बाँट सकते हो,मंगल बोला।।
ठीक है तो आज तुमसे मैं भी अपने दर्द बाँट ही लेता हूँ,तो सुन लो तुम भी मेरी रामकहानी और इतना कहकर रामजस ने अपनी कहानी कहनी शुरू की.....
मेरी माँ अनुसुइया एक प्रतिष्ठित परिवार से थीं,उनके पिता यानि के मेरे नाना जी दौलतराम का सूखे मेवों का व्यापार था,उनका व्यापार काफ़ी अच्छा चल रहा था,उनकी एक बहुत बड़ी हवेली थी जिसका नाम मोतीमहल था,अनुसुइया अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थी,अब अनुसुइया पन्द्रह साल पूरे कर सोलहवें में लगी थी,दौलतराम जी को अनुसुइया के ब्याह की चिन्ता सताने लगी,इसलिए दौलतराम की पत्नी धर्मी ने अपने कई रिश्तेदारों तक ये ख़बर पहुँचाई,
लोगों ने कई रिश्ते सुझाए लेकिन दौलतराम जी को कोई भी रिश्ता अपनी बेटी अनुसुइया के लिए ना भाया,क्योकिं अनुसुइया बहुत सुन्दर थी और दौलत राम अनुसुइया के लिए घर और वर दोनों ही बढ़िया चाहते थे,उनका कहना था कि वर खूबसूरत हो और घर दौलत से भरा हो,जिससे उनकी बेटी को कोई भी तकलीफ़ ना हो ,लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा था,वर सुन्दर मिलता तो उसके घर में दौलत ना होती और अगर दौलत से भरा घर मिलता तो वर बूढ़ा और बदसूरत मिलता।।
दौलतराम जी परेशान हो गए,जो भी उन्हें रिश्ता सुझाता तो वें वहाँ चले जाते और नाक़ाम होकर लौटते,रिश्ता ढूढ़ते ढूढ़ते वे बहुत ही हताश हो चुके थे,उनकी पत्नी धर्मी उन्हें समझाती कि वें परेशान ना हो उन्हें जरूर एक दिन अनुसुइया के लिए अच्छा रिश्ता मिल जाएगा लेकिन तब भी वें अपने मन को मना नहीं पा रहे थे।।
तभी एक दिन अनुसुइया अपनी माँ धर्मी से बोली....
माँ! आज का खाना मैं बना लूँ।।
घर में महाराजिन है वो बना लेगी ना खाना,तू अपना कोई और काम कर लें,सीना-पिरोना सीख,बेल-बूटे काढ़,ये खाना-वाना रहने दें,धर्मी बोली।।
नहीं! माँ!मैं आज जरूर खाना बनाऊँगी,वो शीला, राधा और सभी भी कहतीं हैं कि तुझे घर के काम करने नहीं आते,मैं आज उन सबको अपने हाथ का खाना खिलाना चाहती हूँ,,अनुसुइया बोली।।
अच्छा! खिला दे अपनी सहेलियों को अपने हाथ से खाना बनाकर,ऐसा कर तू आँगन वाली रसोई इस्तेमाल कर ले,वहाँ तेरी सभी सहेलियाँ भी आ जाएगीं,जितना सामान फैलाना है खूब फैला भी लेंना वहाँ,धर्मी बोली।।
ठीक है माँ ! तो तुम भी चलो,मुझे बताती जाना कि खाना कैसे बनाया जाता है?अनुसुइया बोली।।
ठीक है चल मैं तुझे सब बताती जाती हूँ और इतना कहकर दोनों माँ बेटी आँगन वाली रसोई में जा पहुँचीं,अनुसुइया की सभी सहेलियाँ भी तब तक आ गईं थीं और खाना भी तैयार होने लगा,
फिर अनुसुइया की सहेलियाँ धर्मी से बोलीं....
काकी! आप अपना काम देखो,हम सब आपकी लाड़ली को खाना बनाना सिखा देंगें।।
इतना सुनकर धर्मी भीतर चली गई अपने और भी काम निपटाने,आँगन में दो तीन चूल्हे एक साथ जल रहे थें,किसी में कुछ पक रहा था तो किसी मेँ कुछ,तभी अनुसुइया ने एक चूल्हें पर चढ़ी सब्जी का ढ़क्कन हटाकर देखना चाहा कि वो पकी या नहीं,उसने ज्यों ही पतीले पर से ढ़क्कन उठाया तो एक बड़ी सी गिल्ली उसके सब्जी के पतीले में जा गिरी।।
अब अनुसुइया का गुस्सा साँतवें आसमान पर था,वो साक्षात् ज्वालामुखी बन चुकी थी,वो गिल्ली गिराने वाला अगर उसके सामने उस वक्त आ जाएं तो वो उसे भस्म कर देगी,ये सोचकर उसने पतीले में से गिल्ली निकाली और चल पड़ी हवेली के दरवाजे की ओर लेकिन तभी उसके दरवाजे के सामने एक बीस-बाईस साल का लड़का आकर बोला....
ज़रा सुनिए! आपके घर म़े कोई गिल्ली आई है क्या? लौटा दीजिए?
तभी अनुसुइया गुस्से से फ़नफनाते हुए बोली.....
कहीं वो गिल्ली ये तो नही....
जी ! हाँ! यही तो है,वो लड़का बोला।।
ये तो तुम्हें हरगिज़ ना मिलेगी,अनुसुइया बोली।।
लेकिन क्यों? लड़के ने पूछा।।
वो इसलिए कि तुम्हारी गिल्ली मेरे सब्जी के पतीले मेँ जा गिरी,सारी सब्जी ख़राब हो गई,अब उस सब्जी को कौन खाएगा? अनुसुइया उस लड़के से बोली।।
जी! आप गिल्ली और सब्जी दोनों दे दीजिए,मैं और मेरे दोस्त दोनों मिलकर ही सब्जी खा लेगें,वो लड़का बोला।।
तुम पागल हो क्या? अनुसुइया ने पूछा।।
जी! नहीं! मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ,वो लड़का बोला।।
तो कान खोलकर सुन लो,तुम्हें गिल्ली तो नहीं मिलने वाली,अनुसुइया बोली।।
और आप जब तक गिल्ली नहीं दे देतीं तो मैं तब तक आपके दरवाज़े पर ही खड़ा रहूँगा,वो लड़का बोला।।
तो फिर तुम यहीं खड़े रहो और इतना कहकर अनुसुइया भीतर चली गई,
तभी दौलतराम जी किसी काम से हवेली में आए और उन्होनें उस लड़के से पूछा...
बर्खुदार! कौन हो तुम और यहाँ क्यों खड़े हो?
जी! मेरा नाम पुरूषोत्तम है और मेरी गिल्ली आपके घर के आँगन में चली गई है।।
अच्छा....,मैं तुम्हारी गिल्ली अभी मँगवाए देता हूँ और इतना कहकर दौलतराम जी ने अनुसुइया को आवाज़ लगाई.....
बेटी....अनुसुइया! जरा देखो तो घर के आँगन में कोई गिल्ली गई है,जरा उठा लाना।।
अभी आई बाबूजी! और इतना कहकर अनुसुइया वो गिल्ली लेकर बाहर आई।।
तब दौलतराम जी अनुसुइया से बोले.....
बेटी! ये गिल्ली इनकी है इन्हें वापस कर दो।।
अब अनुसुइया अपने पिता की बात ना टाल सकी और मजबूरी में उसे वो गिल्ली पुरूषोत्तम को वापस देनी पड़ी....
फिर दौलतराम जी ने पुरूषोत्तम से कहा .....
बेटा! तुम यहाँ के तो नहीं लगते,अगर यहाँ के होते तो मैं पहचान लेता।।
जी! सही कहा आपने,मैं यहाँ अपनी बुआ के घर आया हूँ,आपके पड़ोसी तीरथ प्रसाद मेरे फूफा हैं,मैं सीतापुर का रहने वाला हूँ,मेरे पिता द्वारिका प्रसाद हीरे के व्यापारी हैं,माँ घर सम्भालतीं हैं और मैं उन दोनों की इकलौती सन्तान हूँ,पुरूषोत्तम ने अपना परिचय बताते हुए कहा।।
अच्छा लगा तुमसे मिलकर,दौलतराम जी बोले।।
मुझे भी आपसे मिलकर अच्छा लगा और इतना कहकर पुरूषोत्तम चला गया।।
दौलतराम जी जब हवेली के भीतर पहुँचे तो धर्मी को पुकारते हुए बोले...
अजी! सुनती हो! कहाँ हो? तुमसे एक बात करनी है।।
आ रही हूँ....आ रही हूँ....ऐसा कौन सा तूफ़ान आया जा रहा है? ज़रा सबर रखो,धर्मी बोली।।
जल्दी आओ,तुम्हें एक खुशखबरी सुनानी है,दौलतराम जी बोले...
क्या खुशखबरी है? कुबेर का ख़ज़ाना मिल गया क्या कोई? धर्मी ने पूछा।।
ऐसा ही समझो,दौलतराम जी बोले।।।
अब कुछ बताओगे भी कि पहेलियाँ ही बुझाते रहोगे,धर्मी बोली।।
अरे,बाहर एक लड़का मिला था, हमारे पड़ोसी तीरथ प्रसाद का रिश्तेदार है,लड़का बहुत ही खूबसूरत और अमीर है,मैं चाहता हूँ कि हमारी अनुसुइया का रिश्ता उसके साथ हो जाए,दौलतराम जी बोले।।
पहले सबकुछ ठीक से पता तो कर लो,बिना पता करे कोई भी मन्सूबे मत बाँधना,क्योकिं हमेशा निराशा ही हाथ लगती है,धर्मी बोली।।
अब की बार ऐसा ना होगा,दौलतराम जी बोले।।
ठीक है तो फिर रिश्ते की बात चलाओ,उन सबसे मिल लो ,घर देख लो,धर्मी बोली।।
हाँ,बस एक सप्ताह के बाद निकलता हूँ,अभी थोड़ा व्यापार के मसले में दूसरे शहर जाना है,दौलतराम जी बोले।।
ठीक है,तुम पहले अपने काम निपटा लो,उसके बाद देर मत करना,धर्मी बोली।।
और फिर दौलतराम जी अपने व्यापार के मसले में दूसरे शहर चले गए और इधर पुरूषोत्तम को अनुसुइया भा गई थी और वो उसका दिल जीतने की कोश़िश करने लगा,इसमें वो कामयाब भी हुआ,जल्द ही अनुसुइया भी पुरूषोत्तम को अपने मन में बसा बैठी,दोनों के बीच काफ़ी नजदीकियाँ भी बढ़ गईंं,फिर दौलतराम जी जब रिश्ते की बात करने पुरूषोत्तम के घर पहुँचे तो पुरूषोत्तम के पिता द्वारिका प्रसाद ने भी इस रिश्ते के लिए हाँ कर दी,लेकिन ये रिश्ता पुरूषोत्तम की माँ सियादुलारी को पसन्द ना आया और उसने अपने पति द्वारिका प्रसाद से कहा.....
सूखे मेवों का व्यापारी है,भला हमारे मनमुताबिक दहेज दे पाएगा।।
मुझे पैसा नहीं ,अच्छी लड़की चाहिए,जो हमारे घर की मान मर्यादा का ख्याल रख सकें और अगर मुझे अनुसुइया पसंद आ गई तो मैं तो इस ब्याह के लिए हाँ कर दूँगा,बस एक बार लड़की देखनी बाक़ी है,द्वारिका प्रसाद जी बोले।।
और फिर इन्हीं सब बातों के बीच रिश्ता तय हो गया,द्वारिका प्रसाद ने अनुसुइया को अपनी बहु के रूप में पसंद कर लिया,खुशी खुशी अनुसुइया और पुरूषोत्तम का ब्याह हो गया,दोनों खुशी खुशी रहने लगे,ऐसे ही उन दोनों के ब्याह को तीन साल बीत चुके थे लेकिन अभी तक अनुसुइया की गोद खाली थी और इस बात का अनुसुइया की सास फायदा उठाकर उसे तरह तरह के ताने दिया करती ।।
और इसी तरह जब अनुसुइया के ब्याह को सात साल बीत जाने पर भी कोई सन्तान ना हुई तो पुरूषोत्तम भी अनुसुइया से कटा कटा सा रहने लगा,अनुसुइया के लिए पुरुषोंत्तम का ये व्यवहार उसे अन्दर तक तोड़ देता और फिर एक दिन उनके घर में डाकू घुस आएं जमकर लूटपाट की और भाग गए उनमें से एक डाकू अनुसुइया को भी अपने घोड़े पर उठा लाया,
जब वें सब डाकू अपने निवासस्थान पर पहुँचे तो डाकुओं के सरदार ने अनुसुइया को वहाँ देखा और उस डाकू को जान से मार दिया जिसने अनुसुइया को अगवा किया था,फिर से वो डाकू अनुसुइया को उसके घर छोड़ने गया लेकिन अब अनुसुइया के ससुरालवालों ने उसे अपने घर में वापस रखने को मना कर दिया और उस डाकू को पुलिस के हवाले कर दिया गया,अनुसुइया बेचारी के लिए अब कोई भी जग़ह नहीं बची थी जाने के लिए इसलिए उसने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली।।
लेकिन भगवान को तो कुछ और ही मंजूर था,उसे वो मंदिर के पुजारी को बेहोशी की हालत में मिली जब पुजारी सुबह नदी पर स्नान करने गया था,अनुसुइया सुन्दर और बेसहारा थी इसलिए इस बात का पुजारी ने फायदा उठाया, वो नाममात्र का पुजारी था लेकिन उसके काम बहुत ही गंदे थे,पहले वो जेल में हुआ करता था जेल से भागकर वो इस गाँव में बैरागी बनकर आ गया,गाँव वालों ने सोचा कि कोई पहुँचा हुआ महात्मा है इसलिए मंदिर के पुजारी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उसे मंदिर का पुजारी बना दिया गया,
और उस पुजारी ने ही बेचारी अनुसुइया को शहर ले जाकर एक कोठे पर मुँहमाँगे दामों पर बेच दिया,कई दिनों तक अनुसुइया भूखीं प्यासी रही और इस काम को करने से इनकार करती रही,फिर कोई इन्सान कब तक भूखा प्यासा रह सकता है,अचानक अनुसुइया की बहुत तबियत खराब हो गई,डाक्टरनी को बुलाया गया तो पता चला कि वो माँ बनने वाली है,ये ख़बर सुनकर अनुसुइया की खुशी का ठिकाना ना रहा और फिर उसने कोठे की मालकिन अमीरनबाई से अपने घर जाने की इजाजत माँगी उसकी बात सुनकर तब अमीरन बोली.....
बेटी! तुझे मैं खुद तेरे घर छोड़कर आऊँगी,लेकिन मुझे पता है वो लोंग तुझे अब आसरा नहीं देगें।।
क्यों नहीं देगें आसरा? ये बच्चा इतने सालों बाद आया है मेरे पति और मेरी जिन्दगी में,बच्चे की खुशी पाते ही वो मुझे अपने सीने से लगा लेगें,अनुसुइया बोली।।
ये तेरी भूल है बेटी! अमीरन बोली।।
आप एक बार मुझे वहाँ ले चलिए,देखिए सब ठीक हो जाएगा और मुझे सब अपना लेगें,अनुसुइया बोली।।
तेरी जिद़ है तो चल और अगर फिर उन्होंने तुझे नहीं रखा तो तुझे वही करना पड़ेगा जो मैं कहूँगी,अमीरन बोली।।
मंजूर है,मुझे यहाँ रहने की नौबत ही नहीं आएगी,मुझे पता है वें सब ये ख़बर सुनकर मुझे सिर-माथे पर बैठा लेगें,अनुसुइया बोली।।
ठीक है तो तैयारी बना ले,हम रात की रेलगाड़ी से ही निकलेगें,अमीरन बोली।।
और फिर अनुसुइया ने वहाँ पहुँचकर ख़बर सुनाई कि वो माँ बनने वाली है तो सास बोली...
हाँ! उसी डाकू के साथ मुँह काला किया होगा और हमसे कहतीं है कि ये बच्चा पुरूषोत्तम का है।।
ये सुनकर अनुसुइया बोली....
नहीं! माँ जी! ये झूठ है,ये बच्चा आपके ही ख़ानदान का वारिस है।।
चल जा यहाँ से मैं अब तेरे संग घड़ी भर भी नहीं रह सकता देख तेरे जाते ही मैनें दूसरा ब्याह कर लिया था,ये रही मेरी पत्नी,पुरूषोत्तम अपनी नववधू को दिखाते हुए बोला।।
ससुर ने भी मुँह मोड़ लिया था,अब अनुसुइया क्या करती भला ? उसके पास केवल एक ही रास्ता बचा था कि वो अमीरनबाई के साथ ही चली जाएं,फिर अनुसुइया ने अमीरन के कोठे पर नृत्य और संगीत की तालीम ली और उसको मजबूरी में तवायफ़ बनना पड़ा,उसके माँ बाप भी सदमे से मर चुके थे जब उन्हें पता चला था कि अनुसुइया ने नदी मे कूदकर आत्महत्या कर ली है।।
फिर अनुसुइया और उसका बेटा वहीं अमीरन के यहाँ रहने लगें,महीने बीते, साल बीते,अब अनुसुइया में इतना दम नहीं रह गया था कि नाच और गा सकें,वो अन्दर से खोखली हो चुकी थी और बीमार रहने लगी थी,फिर बिना रंग और नूर की तवायफ़ की किसी भी कोठे को जरूरत नहीं पड़ती,अमीरनबाई के इन्तक़ाल के बाद अनुसुइया और उसके बेटे को कोठे से निकाल दिया गया।।
दोनों माँ बेटे दर-दर भटकने लगें,अब अनुसुइया का लड़का रामजस बड़ा हो गया था और वो मजदूरी करने लगा,एक कोठरी किराएं पर लेकर दोनों माँ बेटे रहने लगें,लेकिन अब अनुसुइया की बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं रह गया था कि वो और जी सकें,सच तो ये हैं कि वो खुद मारना चाहती थी,हार चुकी थी वो खुद से और इस दुनिया से इसलिए खुदबखुद ही रणक्षेत्र छोड़कर जाना चाहती थी और फिर वो दो सालों तक बीमार रही और एक दिन चल बसी और उसके पीछे अकेला रह गया उसका बेटा रामजस,
रामजस अपने बाप के घर ये ख़बर बताने गया तो पता चला कि दादी लकवाग्रस्त होकर मरी चुकी थी,दादा को साँप ने डस लिया और बाप तपैदिक की बिमारी से ग्रसित होकर बिस्तर पर पड़ा था और उसकी दूसरी बीवी और बच्चे उसे रोज लताड़ते थे,शायद उसके कर्मों का ही फल था ,एक सती नारी को सताने का दण्ड,बस मंगल भइया फिर मैं भी यहीं नवाबसाहब के यहाँ रहकर काम करने लगा।।
इतना कहते कहते रामजस की आँखों से आँसू टपकने लगेँ फिर मंगल ने उसे अपने सीने से लगा लिया....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा......