Nakshatra of Kailash - 30 in Hindi Travel stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | नक्षत्र कैलाश के - 30

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नक्षत्र कैलाश के - 30

 

                                                                                                     30

देव पोर्टर के आँखों में आँसू थे। देखा ज़ाए तो यह उनका पेशा था। लेकिन अपने मन की निर्मलता से सबका दिल जीत लेते हैं। मेरे पास जो भी देने जैसा था मिंट,स्कार्फ,छोटी बॅग, और थोडे पैसे सब दे दिए। पूरे सफर में उसने जो साथ दिया उस काम की किंमत तो अदा नही कर सकती थी लेकिन शब्दों से ,भाव से मेरी कृतज्ञता व्यक्त की। स्नेह भरे शब्द सुनते ही उसके चेहरे पर आनन्द दुःख मिश्रित भाव उभर आए। सबका यही हाल था। अपने पोर्टर्स से विदाई लेना मुश्किल हो गया। मेरा साथ निभानेवाला और एक साथी, मेरा घोडा उसके पीठ पर ममतासे भरा हाँथ फेरने लगी। घोडे ने भी अपनी थरथराहट से जैसे मेरी विदाई ले ली। KMVN के अधिकारी जल्दी करने लगे तभी मन का भारी झोला लेते हुए बस में बैठ गए। विदाई से भरे हाँथ हिल रहे थे। जब दृश्य अदृश्य हो गया तब स्थिती की तीव्रता कम हो गई। हमारी बस धारचुला की ओर ज़ा रही थी। आते वक्त जो दृश्य था वही दोहराने लगा। कुछ ही देर में थकान के कारण आँखों में नींद उतर आयी। बीच बीच में गाडी, झरनों के नीचे से गुजरती थी तो अलग आवाज से थोडी नींद खुल ज़ाती थी। बाद में नींद ही न आने के कारण बाहर का नज़ारा देखने लगी। बस एक बडे झरने के नीचे से गुजरनेवाली थी। वह नजदीक आते ही उछलते बुंदों ने स्वागत किया ,फिर अजस्रधाराएँ उपर से गिरने लगी,उससे बाहर निकलते फिर उछलते बुंदों ने विदाई ले ली।

गाला से अब कही कही पेड़ पौधे दिखाई देने लगे। गाडी जंगल से  रास्ते नापते हुए धारचुला के नजदीक आ गई। बीच में धौली गंगा के उपर धरना बाँधने का काम चालू था। कितना मुश्किल काम। प्रकृति को मानवी शक्ति से बाँधना कहाँ तक सही बात हैं ? आए दिन यहाँ पर लँड़स्लायडिंग होते रहते हैं ऐसे भुभाग में धरना बाँधना उचित होगा ? धारचुला आ गया। सुबह से निकले शाम को कँम्प पहुँच गए। इसी एक दिन ने हमे कितने तरह की प्राकृतिक छटाएँ दिखाई। जन्म –मृत्यु तक का फासला दिखाया। कल  सफर खत्म होनेवाला था। अब अल्मोडा से दिल्ली ,मन एक क्षण में सारा फासला लाँघ गया। उससे एक उम्मीद ज़ाग उठी। रिश्तों के बंध अपने ओर खिंचते हुए घर की याद आने लगी।

इधर उधर घुमते हुए हर कोई अपने अनुभव एक दुसरे से बाँट रहा था। मैं कमरे में चली आयी। बिस्तर पर लेटने ही वाली थी की क्षितिज अंदर आ गई और खाना खाने के बाद ही सो जाना  कहने लगी। बात सही थी एकबार लेट गई तो फिर उठना मुश्किल हो जाता। उसी के साथ छत पर चली गई। नजदीक से काली नदी का प्रवाह उछल रहा था। दिन भर वह हमारे साथ थी। संधिप्रकाश में गुढता से वह बहती ही ज़ा रही थी। धीरे धीरे अंधेरा छा ने लगा। आँसमान में चाँदनीयाँ चमकने लगी। मानस किनारे बिताई हुई चाँदनी रात याद आने लगी। कैलाश के उपर चमकते तारों का नज़ारा आँखों के सामने आने लगा। ठंड़ बढती ज़ा रही थी। हम नीचे आ गए। गर्म खाना खाकर सो गए। आज धारचुला से अल्मोडा ज़ाना था। वहाँ रखा हुआ सामान बॅग में समेटकर बॅग बस में चढा दी। इतने में मि.पुरीजी का पैर एक पत्थर से फिसलकर वह गिर गए। ज्यादा तो कुछ लगा नही ,लेकिन वह बेचैन हो गए। सब बैठने के बाद बस चालु हो गई। काली गंगा साथ में थी ही। फिरसे एकबार चारों तरफ नजर फेर ली। फोटोज् तो बहुत निकाले थे। उनके माध्यम से, मन के सहारे फिर से यात्रा का अनुभव कर सकते थे। देखते देखते काली गंगा हम से दूर ज़ा रही हैं यह बात ध्यान में आने लगी। सफर में साथ रही अपनी सहेली दूर जाने का दुःख हो गया। दूर होते होते वह विदाई लेकर चली भी गई। आँखों के आँसूओं में हरा रंग तैरने लगा। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। घने जंगल का पूरा संसार वहाँ मौजूद था। जैसे पंछी ,फूल ,फल ,ज़ानवर,धूपछाँव की नक्काशी सब दिखने लगा। अब गपशप के साथ खाने के लिए मीठा नमकिन लाए थे वह खत्म करने का काम सब करने लगे।

जल्दीही हम मिरत पहुँच गए। ITBP के जवानों ने जल्लोष के साथ हमारा स्वागत किया। सच पुछा ज़ाए तो इन्हीं के सहारे हमारी यात्रा सफल हो ज़ाती हैं। वे ही सन्मान के योग्य हैं ,लेकिन हमारे आने से उनके जीवन में रौनक आती हैं ऐसे कहते हुए वही हमारा ख्याल रखते हैं। यहाँ ग्रूप फोटो निकालने की प्रथा थी। एक एक कॉपी सबको बाँट दी। खाना खाते गपशप करते यहाँ से विदाई ली। समन्वयक मि.पुरी जरा शांत दिखाई दे रहे थे। उन्होंने अंदर जाकर कुछ बात की और जल्दी सबको बस में बिठाते हुए ड्रायव्हर से बातचीत करते, चलने का इशारा किया। पिछे ज़ाते हुए नज़ारों में, मैं आँखे गडाएँ बैठ गई। जंगल का गीलापन,ताजी हवाँ की सुगंध,का अनुभव करने लगी। बस में जोर शोर से गाने चालू थे। यूवा वर्ग की खुषी फूट फूट कर बाहर आ रही थी। इस उम्र में सभी भावनाऐं तीव्र होती हैं। जहाँ पर हमें रुकना था उस जगहके नामसे बस आगे ज़ाती हुई दिखाई देने लगी l पूछताछके बाद पता चला, बस कौसानी जाकर ही रुकेगी, समन्वयककी तबियत ठीक नहीं हैं l अब बसका वातावरण पूरी तरह बदल गया, तनाव उत्पन्न हुआ, झगड़ा करते हुए कुछ हाथ तो नहीं आया l  बस तसल्ली इसी में थी की यह सब यात्राके आख़री चरणमें हो रहा था l बस में तनावभरी शांति फ़ैल गई l रातको देर से बस कसौनी पहुँची l थकान भरे शरीरको लेकर अन्नग्रहण किया और सब सोने चले गए l कल हम दिल्ली पहुँचने वाले थे, निर्धारित समयसे एक दिन पहले l सबका वापसी का आरक्षण परसों का होने के कारण , दिल्लीमें एक अतिरिक्त दिन मिल गया l   सुबह उठकर बाहर आ गई तो, अनोखे दृश्यसे मन आल्हादित हो गया l थोड़ी थोड़ी दुरी पर दिखाई दे रहे लहराते खेत, दूर से बहती नदीकी धारा, पर्बत श्रेणियाँ, नीला आँसमान, बर्फाच्छ्दित चोटियाँ - अत्यंत विलोभनीय नज़ारा था वह l इतनेमें एक एक करके चोटियाँ सुनहरें रंग में चमचमाने लगी, सूर्योदय हुआ था अतः सारा असामन्त सुनहरा हो गया l सभी यात्री यह नज़ारा देख रहे थे l  इस अपूर्व दृश्यने सबकी नाराजी दूर कर दी l कुछही क्षणोंमें सुनहरा रंग चांदी जैसे रंगों में पलट गया l कितनी देर तक यह सब निहारते रहे, आख़िर वापसी की तैयारी करने के लिए उठना पड़ा l चाय-नाश्ते के बाद जोगेश्वर मंदिर देखने ज़ाना था l कोई इसे बागेश्वरभी कहते हैं l यहाँ के दर्शन किए बगैर कैलाशयात्रा पूर्ण नहीं होती ऐसी मान्यता हैं l मोड़ लेते लेते बस जोगेश्वर मंदिर पहुँच गई l 

पूरा पथ्थरका, ओड़िसी शैलीमें बनाया हुआ वह मंदिर था l मुख्य मंदिर और उसके सभोवतालमें १०८ छोटे छोटे शिवजीके मंदिर थे l आंगनमें ४०० साल पुराना देवदार वृक्ष था l उसका दायरा २० मीटर इतना हैं l मंदिरके उपरवाले अर्धे भाग में शेर की तीन मूर्तियाँ थी और उनके उपर पूरा  कलश था l मुख्य मंदिरमें शिवजीकी मूर्ति ताम्रपटसे आच्छदित थी l वह आच्छादन आद्य शंकराचार्यजीने किया हैं, ऐसे वहाँ के पुज़ारी ने बताया l सामने एक और बड़ा मंदिर था, दोनों में मुख्य मंदिर के नामकी होड़ लगी थी l  हिमालयमें बैठे निर्गुण, निराकार ईश्वर का प्रमुखत्व इस बातसे कोई भी संबंध नहीं था, पर मानवता में , मंदिर में बैठे ईश्वर को भी इन सबका सामना करना होगा ? अच्छा नहीं लग रहा था l लेकिन हर व्यक्ति की जरूरतें हैं और वह पूरी करने के सबके अलग अलग तरीके हैं l बस चालू हो गई l अब मोड़ कम होते होते ख़त्म भी हो गए l पर्बत भी हमारी आँखोसे ओझल हो गए l गाँव दिखने लगे, बड़ी बड़ी बिल्डिंग, कर्णकटु हॉर्न, गंदे पानीके प्रवाह - पूर्णतः विरुद्ध दुनियामें हम अब प्रवेश कर चुके थे l झटसे आँखे बंद कर ली l बीच में कही रुककर खाना खा लिया और शामको दिल्ली पहुँच गएँ l 

हमें देखते ही वहाँ का स्टाफ़ चकित हो गया l हम एक दिन पहले पहुँचने के कारण , उनमें गड़बड़ी मच गई l स्वागत कमिटी की कुछ तैयारी नहीं हुई थी , और तो और वह छुट्टीका दिन था l कुछ देर बाद हमें कमरे दिए गए l चाय पीकर हम अपने अपने कमरों में चले गए, एक घंटे बाद खाने के लिए बुलाया था, तब तक आराम से नाहा-धो लिया, घर में फ़ोन हो गए, फिर खाने के लिए चली गई l बाद में नींद आने लगी, दिनभरकी थकानसे झटसे आँख लग गई l 

दूसरे दिन आरामसे उठी l आज का पूरा दिन खाली था l किसी के रिश्तेदार भी आनेवाले थे, शामको स्वागत समारम्भका आयोजन किया हुआ था l दोपहरमें बाज़ार घूमने निकल पड़े l दिल्ली के करोल-बाग़ के बारेमें सुना था, रंगीन विश्वमें कितना समय और पैसा गया, पताही नहीं चला l  बहुत खरीदारी हो गई, नया बैग तक लेना पड़ा l 

शामको स्वागत समारम्भमें हमारी यात्रा के यशस्वितापर बधाई देते हुए, कुछ अधिकारीयोंने भाषण किए l एक दिन पहले आने के कारण हमें सर्टिफिकेट्स नहीं मिल सके l   

अब सबसे बिदाई लेनेका समय आ गया था l  देर रातमें काफी लोगों का वापसी जाने का आरक्षण होने के कारण शायद फिर से मुलाकात नहीं होने वाली थी l बातें करते समय आँख भर आ रही थी l खत और फ़ोन व्दारा जुड़े रहने के आश्वासन दिए ज़ा रहे थे l  अत्यंत कठिन यात्राके हम सब साथी होने के कारण गहरा लगाव हो गया था l याद में तो हमेशा रहनेवालेही थे l देर रात तक बातें होती रहीं l जिनकी ट्रेन थी वह निकल गए l 

सुबह गड़बड़ मच गई l सब अपने अपने समयके अनुसार एक एक करके चले गए l मुझे स्टेशन तक छोड़ने के लिए बम्बई और परभणी के लड़के आने वाले थे l उनके नाम भूल गई, पर बड़े प्यारसे उन्होंने रास्तेमें मेरे लिए मिठाई ख़रीदी l दिल्ली स्टेशन की भीड़ देखकर ग़ुम हो जाने का ड़र लगने लगा ! हिमालयके एकांतवास से इस भीड़भाड़ में प्रवेश करते हुए अजीब लग रहा था l संदुक पर लगा हुआ ' कैलाश  यात्री ' का स्टैंप देखकर लोग आदरभावसे देखने लगे l गाड़ी आतेही दोनों लड़कोंने डिब्बा ढूंढ़कर सीटपर बिठाते हुए मेरा सामान लगा दिया l हम तीनों को बिदाई लेना मुश्किल लग रहा था l 'थँक्यू ' शब्द कितना छोटा हैं, यह ऐसे समयपर पता चलता हैं l दोनों पाँव छूकर नीचे उतर गए l गाड़ी शुरू हो गई, थोड़ी स्थिरताके बाद सहप्रवासियोंके उत्सुक्ताभरे सवाल शुरू हो गए l 

जैसे औरंगाबाद समीप आने लगा वैसी अपनेपनकी भावना मन में उमड़ रही थी l स्टेशन आतेही मुझे लेने कौन आया हैं यह देखने लगी l गाड़ी वक्तसे पहले पहुँचने के कारण सहयोगी  लोगों ने मेरा सामान उतारने में मदद की l वहाँ खड़े रहते कुछही क्षणों बाद रिश्तों के रेशीम धागे सामने दिखाई देने लगे और मेरी कैलाशयात्रा यहीं पर ख़त्म होते हुए संसारयात्रा फिर से शुरू हो गई l 

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