Jhopadi - 2 in Hindi Adventure Stories by Shakti books and stories PDF | झोपड़ी - 2 - दादाजी की झोपड़ी भाग 2

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झोपड़ी - 2 - दादाजी की झोपड़ी भाग 2

गांव में रहते रहते मुझे काफी समय बीत गया। दादाजी मुझे नई-नई एक्सरसाइज सिखाते। जीवन जीने का नया बढ़िया तरीका सिखाते। जड़ी - बूटियों से उन्होने मेरे शरीर को स्वस्थ किया। धीरे-धीरे मेरा शरीर हष्ट -पुष्ट और बलवान होने लगा। दादा जी के घर में एक अच्छी नस्ल की गाय थी। उसका दूध मैं रोज एक -एक किलो पीने लगा। इससे मेरा शरीर बहुत जल्दी विकसित और सुंदर होने लगा।


कुछ ही महीनों में मेरा शरीर किसी बलवान पहलवान की तरह हो गया। मेरी छातियां बाहर को आ गई। हाथ की मांसपेशियां तगड़ी हो गई। पैर भी तगड़े हो गये। भूख खूब लगने लग गई। पेट में सिक्स पैक बन गये। अब मैं किसी बहुत बड़े पहलवान की तरह दिखने लगा। क्योंकि गांव और जंगल की स्वच्छ हवा मेरे फेफड़ों में जा रही थी, जो मेरे लिए अमृत का काम कर रही थी। मेरा कोई निश्चित कार्य नहीं था। मैं कुछ समय दादा जी के साथ प्राचीन और नवीन पुस्तकों का अध्ययन करता। कुछ समय पहलवानी सीखता। शरीर को मजबूत बनाता। कुछ समय गाय और बकरियों की सेवा करता और कभी मन आने पर खेतों में कार्य करता। धीरे-धीरे मैं गांव के माहौल में ढल गया। हमें गांव में किसी चीज की कमी नहीं थी। हमारा गांव एक सुखी और संपन्न गांव था। गरीब से गरीब व्यक्ति भी किसी का मोहताज नहीं था। बल्कि यह कह सकते हैं कि उस गांव में कोई गरीब था ही नहीं। सभी लोगों को अपनी जरूरत की सभी चीजें सहज उपलब्ध थी।


हमारे गांव में सभी के घर में बिजली पानी की व्यवस्था थी। सभी के घर सुंदर और पक्के थे। सभी घर सुंदर तरीके से लाइनों में बने थे। सभी घर साफ-सुथरे थे। किसी घर में कोई कमी नहीं थी। सभी परिश्रम करते थे और परिश्रम के फल स्वरुप अपना जीवन स्तर ऊंचा रखते थे। सभी के घर में उन्नत प्रजाति के जानवर थे। पुरुष और स्त्रियां लंबे- चौड़े और हटे-कट्टे थे। गांव की रक्षा करने के लिए गांव के चारों तरफ एक सुंदर लंबी -चौड़ी मजबूत चारदीवारी थी। जिसमें कुछ जगहों पर बड़े-बड़े गेट लगे हुए थे।

गांव में मानो दूध, दही और मक्खन की नदियां बहती थी। गांव में एक छोटा सा बाजार भी था। इस बाजार में सभी आधुनिक वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल जाती थी। गांव में एक पोस्ट ऑफिस भी था। गांव में नेटवर्क भी मोबाइल पर अच्छा आता था। गांव में पुलिस चौकी भी थी गांव में रेल का स्टेशन भी था और एक अच्छा खासा बस स्टैंड भी था। गांव में रोजगार की चिंता न थी। कुछ लोग खेती करते और कुछ दुकानें संभालते और कुछ अगल-बगल के शहरों और गांवों में नौकरियां करते। कुल मिलाकर गांव बहुत संपन्न था। लेकिन संपन्नता के साथ-साथ यह गांव प्रदूषण से काफी दूर था। क्योंकि गांव वाले प्रदूषण और भ्रष्टाचार के प्रति काफी जागरूक थे और गांव के मुखिया भी पढ़े -लिखे होने के कारण गांव वालों की मदद से गांव को काफी अच्छी तरीके से चला रहे थे।


गांव के मुखिया भी एक पढ़े -लिखे और सभ्य लंबे -चौड़े शरीर और सुंदर व्यक्तित्व के रौबीले व्यक्ति थे। उनके मार्ग निर्देशन में गांव का भी अच्छे तरीके से विकास कर रहा था और गांव की प्रति व्यक्ति इनकम हर दिन बढ़ ही रही थी। इसके साथ-साथ गांव में आध्यात्मिक विकास भी काफी तेजी से हो रहा था। लोग धर्म के प्रति काफी रुचि रख रहे थे। गांव में एक बहुत बड़ा प्राचीन शिव मंदिर भी था। जिसका रखरखाव गांव वाले बहुत अच्छे तरीके से करते थे और यह शिव मंदिर बड़ा साफ -सुथरा, सुंदर, विशाल और आध्यात्मिक था।


मै सुबह रोज स्नान आदि करके और घर का काम निपटा कर मंदिर में जाता और कुछ घंटे वहां भगवान की पूजा -आराधना करता। इससे मैं मानसिक रूप से भी बहुत मजबूत होता जा रहा था। मेरा दिल गांव में बहुत अच्छा लगने लगा। बीच-बीच में मैं शहर भी अपना कारोबार संभालने के लिए जाता। शहर में मैंने अपने कारोबार को संभालने के लिए अच्छे-अच्छे मैंनेजरों की नियुक्ति कर रखी थी। वह अपने काम को बहुत अच्छे तरीके से निभा रहे थे। इस तरह कुछ् समय मैं शहर में अपने कारोबार को देखने के लिए जाता। तो अधिकतर समय गांव में ही दादाजी के साथ घूमते- फिरते और ज्ञान अर्जित करते हुए आनंदमय जीवन बिताता।


दादाजी हालांकि गरीब थे। लेकिन धीरे-धीरे मेरी संगत में और मेरी सुझावों का असर उन पर भी पड़ा और धीरे-धीरे वह पशुपालन और खेती से बहुत धन कमाने लगे। धीरे-धीरे उनका एक सुंदर सा 3 मंजिला मकान भी बन गया। यह मकान किसी महल से कम जरा भी कम ना था। इसका श्रेय दादाजी मुझे ही देते थे। हालांकि अपनी पुरानी वाली झोपड़ी सजा संवार कर दादा जी ने अभी भी रखी थी। अब दादाजी के पास पहले से भी ज्यादा उन्नत प्रजाति की पशु थे। पहले के छोटे-छोटे खेतों के स्थान पर अब एक विशाल खेत था। थोड़े बहुत नौकर -चाकर भी दादाजी ने रख लिए थे। लेकिन दादा जी की भी जीवनचर्या अभी पहले जैसी ही थी। वह शुद्ध खेतों के वातावरण और गांव और जंगलों के वातावरण को ही पसंद करते थे और जंगल में अक्सर मेरे साथ भ्रमण करते रहते।


सत्य तो यह है कि मनुष्य को विकास और पर्यावरण के बीच एक बहुत अच्छा संतुलन बना कर रखने की जरूरत है और इस संतुलन के बीच जीवन जीने से वह भौतिक विकास और आध्यात्मिक विकास दोनों प्राप्त कर सकता है और प्रकृति और पर्यावरण और पृथ्वी की सुरक्षा और रक्षा भी कर सकता है। नितांत जंगली जीवन भी आज के युग में एक मूर्खता ही है और नितांत शहरी सभ्यता भी एक महा मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। अगर हमारे शहर और गांव पर्यावरण के साथ जुड़ते -जुड़ते विकास करें और विकास के नाम पर मूर्खतापूर्ण विनाश न करें तो हमारी मानव सभ्यता नई -नई ऊंचाइयों को छुएगी और हमारी मानव सभ्यता अनंत काल तक इस पृथ्वी पर विद्यमान रहेगी। अन्यथा इसके विपरीत होते तनिक भी देर न लगेगी।


दादाजी हंसते हुए मुझसे बोले बेटा मेरे साथ रहने से तुम्हारा शारीरिक और मानसिक विकास बहुत तीव्र गति से हुआ और तुम्हारे साथ रहने से मेरा भौतिक विकास काफी हुआ। मैंने कहा दादा जी सारे मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक, भौतिक सभी विकास होने ही चाहिए और इनमें संतुलन भी होना ही चाहिए। हमें अपनी पृथ्वी अपने जंगलों का ध्यान रखना चाहिए। साथ ही शहर भी हम से अलग नहीं हैं। शहर भी हमारी प्रकृति का ही अंग बन चुके हैं। इसलिए उन्हें भी पर्यावरण से जोड़ना हमारा कर्तव्य है। तभी हमारे इस अनमोल पृथ्वीलोक का संरक्षण और सुरक्षा हो सकती है। दादाजी मुस्कुराए बेटा तुम जैसा विद्वान व्यक्ति मिलना आज के युग में मुश्किल तो नहीं लेकिन थोड़ा मुश्किल जरूर है और जोर जोर से हंसने लगे। मैं भी हंसने में उनका साथ देने लगा।

तो प्रिय पाठको आपको यह भाग कैसा लगा? कृपया कमेंट कर बताइए और स्टीकर भी प्रदान कीजिए। धन्यवाद।