D-Four in Hindi Motivational Stories by Yogesh Kanava books and stories PDF | डी-फोर

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डी-फोर

डी-फोर


शिवम् बैठा सोच रहा था कि सुबह तो ज़ल्दी ही उठना पड़ेगा, चार बजे उठने से ही सही समय पर रेल्वे स्टेशन पहुंँच पाएगा। इन्हीं विचारों के बीच शिवालिका ने उसे कहा

- क्या सोच रहे हैं आप, सुबह जाने का मन नहीं है ना, चलो कल की छुट्टी ले लो।

- नहीं रे छुट्टी और वो भी मार्च के महिने में, संभव नहीं है। दफ़्तर में मार्च की फाईनेन्शियल क्लोजिंग, आडिट के पैरो से बचना कितने ही लफड़े होते है। वैसे बीबी से दूर जाने का मन किसका करेगा भला, और वो भी तुम जैसी हो तो बिल्कुल नहीं। लेकिन जाना तो पड़ेगा ही ना।

बस वो थोड़ा-सा उदास भाव लिए यूँ ही लेटा रहा चुपचाप। मोबाईल में सुबह चार बजे का अलार्म लगाकर सोने का यत्न करने लगे दोनों ही लेकिन नींद दोनों की आंँखों में ही नहीं। धीरे से शिवम् ने करवट बदली तो शिवालिका ने फिर पूछा- क्या हुआ नींद नहीं आ रही है क्या ? वो बोला- आ जाएगी, तुम सो जाओ। और फिर शिवम् विचारों के प्रवाह में चलता गया, उसे कब नींद आई पता नहीं लेकिन ठीक चार बजे अलार्म ने उसकी नींद को तोड़ दिया। वो चुपचाप उठा और किचन में जाकर खुद के लिए चाय बनाने लगा। वो नहीं चाहता था कि शिवालिका अभी उठ जाए। थोड़ी देर और सो लेगी तो उसे आराम मिलेगा। यही सोचकर वो बस बैठा चाय पीने लगा।

चाय पीते ही उसकी नज़र कल के अखबार पर पड़ी। किसी पुस्तक की समीक्षा छपी थी पर शीर्षक बड़ा ही आकर्षक था डी-फोर। आखिर यह डी-फोर क्या है ? कल तो मैंने अख़बार पढ़ा था फिर यह कहाँ था। अचानक ही उसे याद आया कि कल वो जब अख़बार पढ़ रहा था तो उसका पड़ौसी आ गया था और अख़बार बीच मे ही छोड़ना पड़ गया था। उसने अख़बार पढ़ना तो चाहा लेकिन तभी नज़र घड़ी पर पड़ी, वो अनमने से अख़बार को छोड़ ब्रश करने लग गया। चाय पी चुका था, दरअसल उसे सुबह उठते ही चाय पीने की आदत थी, शिवालिका कई बार टोक चुकी थी कि कम से कम ब्रश तो कर लिया करे लेकिन वो आदत से मजबूर। वैसे भी आदत अपने ही सर का बोझ होती है जिसे हर हाल में खुद को ही ढोना पड़ता है। वो जब नहाकर आया तो उसने शिवालिका को जगाया। शिवालिका हड़बड़ा कर उठी- अरे आप, पहले नहीं जगा सकते थे, इतना टाइम हो गया, खुद ही लगे रहते हो, ज़ल्दी उठती हूँ तो वापस सुला देते हो, चलो हटो, जल्दी से खाना बनाती हूँ।

और वो बस.......जल्दी से शिवम् के लिए खाना बनाने लग गई। हर सोमवार यही क्रम होता था, जल्दी से नाश्ता करना और फिर बैग उठाकर घर से रवाना हो जाना। आज जाते-जाते वो कल का अख़बार भी साथ लेकर चल निकला था। रास्ते में उसने आज का भी अख़बार ले लिया था लेकिन उसका मन तो अटका था डी-फोर में। जल्दी के कारण अभी तक वो देख ही नहीं पाया कि आखिर यह डी-फोर क्या है। अपने ही ख़यालों में चलते उसे ध्यान हीं नहीं रहा कि वो डी-फोर कोच में ही चढ़ गया था। अवचेतन में बैठी कई बातें व्यक्ति से वही करवाती हैं। सुबह ज़हन में अटका डी-फोर शिवम् को डी-फोर कोच में ही ले गया। वो एक सीट खाली देखकर बैठ गया। रिजर्वेशन नहीं करवाया था फिर भी रिजर्वेशन कोच में बैठ गया था।

बगल में एक खूबसूरत सी युवती बैठी थी। देखने में वो बड़ी ही भली सी लग रही थी, उसके चेहरे से लग रहा था कि उसे कहीं देखा है, लेकिन अब किसी अनजान युवती को कैसे कहे कि उसे कहाँ देखा है। खैर......वो आज का अख़बार देखने लगा। बस, उलट-पुलटकर देखा कोई खास ख़बर नहीं लगी, वही खबरें , भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा, लड़कियों के प्रति बढ़ते यौन अपराध, जालसाजी और भी बस इसी तरह की ख़बरें। अख़बार पढ़कर वो मन ही मन बुदबुदाने लगा- पता नहीं क्या हो गया है, क्यों लोग नहीं समझते हैं , भ्रष्टाचार की जड़ तो हम खुद ही हैं । ज़रा सी सुविधा के लिए हम स्वंय तो नियमों को तोड़ते हैं । वो सोचे जा रहा था, आज मैंने भी तो नियम तोड़ा है, बिना रिजर्वेशन के रिजर्वेशन कोच में दाखिल हो गया और अब यात्रा भी कर रहा हूँ।

तभी उसने सोचा- कोई बात नहीं टी.टी. आएगा तो डिफरेन्स अमाउण्ट ले लेगा। उसे इस प्रकार बुदबुदाते देख पड़ौस वाली सीट पर बैठे सज्जन ने कहा- क्यों घबरा रहे हैं , कोई टी.टी. नहीं आता है साहब इसमें। ये डी-फोर है। यहाँ तक आते-आते टी.टी. थक जाता है बेचारा, बस आता ही नहीं। शिवम् बोल पड़ा- लेकिन यह तो सरकार का नुकसान है और टी.टी. की ड्यूटी भी तो है टिकिट चैक करना। वो पडोसी कुछ नहीं बोला बस शिवम् की बातों को बेवकूफी भरी समझ मुुस्कुराता रहा। शिवम के भीतर एक फांस चुभती सी नज़र आई उसने तत्काल अपने बैग से कागज़ निकालकर एक नई कहानी की शुरूआत कर दी। उसे लिखता देख वो युवती बोल पड़ी- सर आप राइटर हैं ? जिस तरह से आप लिख रहे हैं, और जो थोड़ा आपके चेहरे पर दिख रहा है ना उससे तो लगता है, आप ज़रूर लेखक ही होंगे या फिर मीडिया से जुड़े होंगे - पर मैं सोचती हूँ आप राइटर ही होंगे। अगर आप कोई कहानी लिख रहे हैं तो कहानी का शीर्षक डी-फोर ज़रूर रखना सर।

उसके इस तरह से बिना रूके बोलने पर शिवम् उसकी ओर देखता ही रहा तभी उसने अपना परिचय देते हुए कहा- मैं योगिता हूँ, एक बैंक में पी.ओ. हूँ, आप उम्र में मुझसे बडे़ हैं पर आपको लिखते देखा तो अच्छा लगा। इसीलिए आपको शीर्षक भी सुझा दिया आपको बुरा लगा हो तो साॅरी सर। शिवम् उसको देखे जा रहा था। सोच रहा था कितनी साफगोई से इस युवती ने अपनी बात कह दी है, दरअसल उसे अच्छा भी लग रहा था। वो बोला- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मुझे अच्छा लगा, मैं ज़रूर लिखूंगा।

और फिर पाँच दिन बाद वापस शिवम् अपने घर पहूँचा- उसने शिवालिका को यह बात बताई, साथ ही वो बोला एक बात का दुःख मुझे हो रहा है शिवालिका। किस बात का, उस लड़की के इस तरह बोलने का। नहीं पूरी यात्रा में टी.टी.ई टिकिट चैक करने नहीं आया। मेरी तरह पचासों लोग उस डी-फोर कोच में बिना रिजर्वेशन के ही बैठे थे, अब सोचो अगर पचास लोगों से भी रिजर्वेशन चार्जेज लिया जाता तो रेल्वे को कितनी आमदनी होती ?

आप भी ना- क्या-क्या सोचते रहते हो, इतने बड़े देश में क्या फर्क पड़ता है? नहीं शिवालिका फ़र्क पड़ता है, केवल एक दिन की ही बात नहीं है, एक कोच या एक ट्रैन की ही बात नहीं है, यह हमारी नैतिकता की बात है। हमें खुद ही आगे होकर यह पैसा रेल्वे को जमा करवाना होगा। बस इसी तरह दो दिन छुट्टी के बीत गए और फिर सोमवार का दिन और वही डी-फोर कोच सामने था। वो सोच रहा था कि क्या करे, बैठे या नहीं, तभी उसी युवती योगिता ने आवाज़ लगाई सर.....आइए आपके लिए मैंने एक सीट रखी है। आ जाइए-उस दिन मैं आपका नाम पूछ ही नहीं पाई थी- हाँ, मेरा नाम शिवम् है। आपने डी-फोर कहानी लिखी या नहीं। लिखी है - डी-फोर का मतलब है- ड्रीम, डामेन्शन, डिसाइड एण्ड़ डिजाइन यूअरसेल्फ। अरे वाह! क्या बात है सर, मैं तो इस डी-फोर कोच की कहानी के लिए सोच रही थी पर आपने तो बिल्कुल बात ही पलट दी। योगिता की बात सुन वो चुप रहा, फिर बोला- देखो मैंने कुछ नहीं पलटा वही सब कुछ है, यही डी-फोर है बस मैंने एक सपना, एक ड्रीम देखा, खुशहाल देश का, जिसको डायमेन्शन हम और आप दे रहे हैं , यह हमें डिसाइड करना है कि किस तरह की स्थितियाँ चाहते हैं और फिर उसी हिसाब से हमें अपने आपको डिजाइन करना है।

हम सब इस कोच में बैठे भी तो यही कर रहे हैं - जैसे लोग अपने-आप पास होते हैं , जैसा माहौल होता है, वैसे ही तो हम अपने आपको ढाल लेते हैं । उसकी यह बात सुनकर योगिता सहित आस-पास बैठे सभी लोग एक साथ मुस्कुरा दिए। उस दिन हम सभी बिना रिजर्वेशन के ही यात्रा कर रहे थे ना......जी हाँ! पर हमारी कहाँं गलती है, टी.टी. आया ही नहीं था हम तो डिफरेन्श अमाउण्ट देने के लिए तैयार थे ना......बस यही अन्तर है योगिता, हम सिर्फ सोचते है इसीलिए मैंने रेल्वे बोर्ड़ को ई-मेल कर पूछा है कि रिजर्वेशन के डिफरेन्श पैसे कहाँं और कैसे जमा करवाने हैं । जवाब आने पर मैं उस दिन के पैसे रेल्वे को ज़रूर दूंगा।

तभी शिवम् की मंज़िल आ गई वो नीचे उतर गया, लेकिन डी-फोर वैसे की वैसे - अपनी जगह कायम आगे धीरे-धीरे सरकते हुए