Kataasraj.. The Silent Witness - 62 in Hindi Fiction Stories by Neerja Pandey books and stories PDF | कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 62

Featured Books
  • Fatty to Transfer Thin in Time Travel - 13

    Hello guys God bless you  Let's start it...कार्तिक ने रश...

  • Chai ki Pyali - 1

    Part: 1अर्णव शर्मा, एक आम सा सीधा सादा लड़का, एक ऑफिस मे काम...

  • हालात का सहारा

    भूमिका कहते हैं कि इंसान अपनी किस्मत खुद बनाता है, लेकिन अगर...

  • Dastane - ishq - 4

    उन सबको देखकर लड़के ने पूछा की क्या वो सब अब तैयार है तो उन...

  • हर कदम एक नई जंग है - 1

    टाइटल: हर कदम एक नई जंग है अर्थ: यह टाइटल जीवन की उन कठिनाइय...

Categories
Share

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 62

भाग 62

उर्मिला पुरवा और अशोक के लिए यहां नई जगह में खुद को सामान्य रखना बड़ी चुनौती थी। सलमा के कमरे के बाहर जाते ही पुरवा को जैसे सुकून मिल गया। वो अपने गले में लिपटी ओढ़नी को निकाल कर बिस्तर पर फेंक दिया और खुद धम्म से बिस्तर पर बैठ गई। फिर उस पर बैठे बैठे ही उछलने लगी और अशोक से बोली,

"बाऊ जी… ! आप भी आओ ना बैठ कर मेरे साथ ऐसे ऐसे करो… देखो ना कितना मुलायम है। बड़ा मजा आ रहा है।"

उर्मिला को बेटी की ऐसी बेढंगी हरकत बिलकुल भी अच्छी नहीं लग रही थी। उसने गुस्से से उसे घूरा। पर पुरवा का जरा सा भी ध्यान अपनी अम्मा की ओर नही था। पर अशोक उर्मिला की नाराजगी भांप जाते हैं। और पुरवा के पास आ कर उसे समझाते हुए बोले,

"देख बिटिया…! ऐसा नहीं करते.., दूसरे का घर है। कहीं कुछ टूट फूट गया तो..! क्या सोचेंगे ये लोग.. हमारे बारे में..! यही कहेंगे कि हम गंवार लोग है, हमको कुछ पता ही नही है।"

बाऊ जी की बात सुन कर पुरवा ने उछलना तो बंद कर दिया। पर अशोक को अपने पास बिठा कर बोली,

"नही टूटेगा कुछ बाऊ जी..! हम इतने बुद्धू थोड़े ना है कि जिस घर में मेहमान बन कर आयेंगे उसी में तोड़ फोड़ कर देंगे।"

फिर अशोक के गले लग कर दुलराते हुए बोली,

"बाऊ जी..! बाऊ जी..! आप भी हमारे घर ऐसा ही गद्दा लाइए ना..! अपनी खटिया और उस पर बिछी सुजनी पर सोने से तो कमर ही अकड़ जाती है।"

दोनो होठ सिकोड़ कर बोली वो।

अशोक ने प्यार से उसकी गाल पर चपत लगाई और बोले,

"अब तेरे बाऊ जी कोई कारोबार तो करते नही हैं। जो इफरात रुपए हो उनके पास बिटिया। है तो हमारे पास खेती का ही सहारा। कहां से खरीदेंगे हम..!"

फिर थोड़ा रुक कर बोले,

"पर बिटिया..! तेरे ब्याह में जरूर कोशिश करेंगे कि ऐसा ही गद्दा तुझे दें।"

पुरवा अशोक की बात से भावुक हो गई और अशोक के कंधे से लग कर आहिस्ता से बोली,

"बाऊ जी..! नही चाहिए हमको मुलायम वाला गद्दा..। हमको सुजनी बिछा कर खटिया पर ही अपनी अम्मा के साथ ही सोना है।"

पुरवा की भावुक बात को सुन कर थोड़ी ही देर पहले उसकी हरकत पर नाराज उर्मिला की आंखे भर आई। अशोक भी भावुक हो गए। कुछ भी उनसे बोलते नही बना। खामोशी से पुरवा का सिर सहला दिया और अपनी भरी आंखों को छुपाने के लिए वहां से उठ कर पुरवा की ओर पीठ कर कुछ सामान इधर उधर करने का उपक्रम करने लगे।

लंबे सफर में बिना नहाए हुए उर्मिला की बड़ा ही गंदा महसूस हो रहा था। वो अपने कपड़े ले कर गुसलखाने में नहाने चली गई।

जब नहा कर कुछ देर बाद बाहर आई तो बोझिल माहौल को सामान्य करने की गर्ज से उर्मिला अपनी पुरानी लय में लौटते हुए बोली,

"अब हो गया…बहुत आराम पुरवा…! चलो दोनो हाथ मुंह धो कर कपड़े बदल लो। वरना सलमा बहन बुलाने आ जाएंगी खाने के लिए। और तुम दोनो ऐसे ही बैठे रह जाओगे।"

पुरवा वैसे ही लेटी रही। तकिए में सिर गाड़े हुए ही बोली,

"अम्मा..! पहले बाऊ जी को भेजो। तब फिर हम जायेंगे।"

अशोक गमछा कंधे पर ले कर बोले,

"हां अब हम ही जायेंगे। तू मेरे आने पर जाना।"

अशोक नहाने चले गए।

सलमा ने रसोई में कुछ भी मांसाहारी बनाने से सीमा और गुड़िया को मना कर दिया था।

सादा खाना ही बनाने को सहेज दिया था।

सब सुख सुविधा से भरा पूरा था सलमा और साजिद का ये घर। घर में हर काम के लिए अलग अलग नौकर चाकर थे। खाना बनाने के लिए महाराज, बगीचे के लिए माली, साफ सफाई के लिए जमादार, कपड़े साफ करने के लिए धोबी बरतन साफ करने के लिए और पानी भरने के लिए कहार। नौकरों की फौज होने के बावजूद भी सलमा ने खाना बनाने ले लिए महाराज से सिर्फ मदद लेने का नियम बनाया हुआ था। जब तक कि कोई बहुत बड़ी दिक्कत ना हो एक साथ घर की सभी औरतें लड़कियां बीमार ना पड़ जाए.. महाराज जी खाना नही बनाते थे। या फिर बहुत सारे मेहमान ना आ जाएं। ये नियम अभी तक कायम था।

आज भी महाराज जी के सहयोग से गुड़िया और सीमा ने सभी के लिए खाना पकाया था।

रसोई घर के सामने ही खूब बड़ा बरामदे नुमा दस्तरखान कक्ष बना हुआ था। खूब बड़ी सी मेज रक्खी हुई थी। उसके चारों ओर कुर्सियां लगी हुई थी।

खाना तैयार होने पर दोनों ननद भौजाई ने महाराज जी को मेज सजाने को बोल कर साथ में लग कर सब कुछ करवाया। फिर सलमा को बताया कि मेज सज गई है। वो खुद भी आ जाएं और मेहमानों को भी बुला लें।

सलमा खुद भी बहुत थक गई थी इस लिए जब गुड़िया ये बताने उसको आई तो उसने खुद जाने की बजाय थके होने का हवाला दे कर गुड़िया को ही उन लोगों को बुलाने भेज दिया।

गुड़िया का भी संकोची स्वभाव था। वो जल्दी किसी से हिलती मिलती नही थी। पर अम्मी जान के कहे को टालने की उसकी हिम्मत नही थी। इसलिए चुप चाप वो सामने वाले कमरे के पास चली गई। पर जाने से पहले पूछा,

"अम्मी जान..! मैं उनको क्या कह कर बुलाऊंगी..?"

सलमा बोली,

"मेरी सहेली है और उसके शौहर हैं तो क्या कहोगी..? चाहे खाला और खालू बोलो, या फिर मौसी मौसा बोलना। जो तुम्हें ठीक लगे।"

गुड़िया ने पूछा,

"अम्मा ये लोग हिन्दू हैं ना..!"

सलमा बोली,

"हां ..! गुड़िया..!"

गुड़िया ने पूछा,

"फिर तो मौसी मौसा जी कहना ही ठीक रहेगा। ना अम्मी।"

सलमा को खुशी हुई कि उसकी बच्ची के अंदर सामने वाले की भावना का सम्मान करने का जज्बा है। वो सबका सम्मान करना जानती है छोटी सी उम्र होते हुए भी।

इतना कह कर गुड़िया ने झिझकते झिझकते धीरे से उनके दरवाजे पर दस्तक दी।

उर्मिला भी आराम करने लेट गई थी।

अशोक बैठा हुआ था।

दरवाजे पर थाप सुनते ही वो उठ खड़ा हुआ और दरवाजा खोल कर देखा।

सामने गुड़िया खड़ी हुई थी।

वो बोली,

"वो…. खाना लग गया है। अम्मी ने आप सब को बुलाने के लिए भेजा है।"