Kurukshetra ki Pahli Subah - 28 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 28

Featured Books
  • തെറ്റിലെ ശരി

    ആകാശ് ഒരു ദിവസം  Instagram നോക്കുമ്പോഴാണ് ഒരു മുഷിഞ്ഞ പ്രൊഫൈ...

  • അവൾ അവനായി മാറുമ്പോൾ

    കുളി കഴിഞ്ഞ് അവൻ കണ്ണാടിയുടെ മുന്നിൽ വന്നു നിന്നു. അവന്റെ താ...

  • അഗ്നി വലയം - 1

    കൗസല്യാ സുപ്രജാ രാമ പൂർവാസന്ധ്യാപ്രവർത്തതേഉത്തിഷ്ഠ നരശാർദൂല...

  • പ്രണയരാഗം - 1

    ഭാഗം 1ബസ് ഡിപ്പോയിലെ ശബ്ദങ്ങൾ അവികയുടെ ചെവിയിൽ അടർന്നു വീണു....

  • നെഞ്ചോരം - 2

    ഗ്ലാസ്‌ ഡോർ ആയതുകൊണ്ട്  ക്ലാസ്സിന് മുന്നിലെത്തിയപ്പോൾതന്നെ ത...

Categories
Share

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 28

28.विशिष्ट व्यक्ति में होती है व्यग्रता

हजारों मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धि के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले साधकों में से कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है। 

अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभु!आप स्वयं सभी तरह की कलाओं, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य, मीमांसा, योग- वैराग्य, ज्ञान -भक्ति आदि सभी के स्रोत हैं। हम साधक लोग आप को जितना जान पाते हैं, वह इस धरती पर प्रकट होने वाली आपकी लीलाओं के माध्यम से ही है। वह भी आपकी प्रकृति का केवल एक ही अंश है केशव। मुझे आपके स्वरूप को संपूर्ण तत्व के साथ जानना है प्रभु। कृपया मार्गदर्शन कीजिए। 

एक क्षण को वासुदेव श्री कृष्ण ने आंखें बंद की। मानो वे कोई चिंतन कर रहे हों। फिर आंखें खोल कर अर्जुन की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहने लगे-

मेरी प्रकृति दो तरह की है एक अपरा या जड़ प्रकृति और दूसरी परा या चेतन प्रकृति। अपरा प्रकृति 8 भागों में विभाजित है। मैंने पहले भी चर्चा की है कि प्रकृति मूल रूप से सत्व, रजस और तमस गुणों की साम्यावस्था है। इसमें विक्षोभ या असंतुलन से बनने वाला पहला तत्व बुद्धि है। इसका दूसरे तत्व अहंकार में विभाजन होने से तीसरा तत्व मन और (इस अहंकार से पंच तन्मात्राएँ-ध्वनि (शब्द), स्पर्श (स्पर्श), दृष्टि (रूप), स्वाद (रस), गंध ;इन तन्मात्राओं से स्थूल रूप में) क्रमशः पंचमहाभूत आकाश, वायु, अग्नि जल और भूमि प्रकट होते हैं। 

अर्जुन:जी प्रभु!आकाश तत्व की तन्मात्रा ध्वनि या शब्द है। वायु तत्व की स्पर्श है। अग्नि तत्व की तन्मात्रा रूप है। जल तत्व की तन्मात्रा स्वाद या रस है। पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा गंध है। 

श्री कृष्ण: एक दूसरी परा या चेतन प्रकृति(पुरुष तत्व) भी है अर्जुन। यह मेरी चेतन या आध्यात्मिक शक्ति है। यही आत्म तत्व है। 

अर्जुन: जी प्रभु! यह कितना अद्भुत है। एक आपकी यह शक्ति इस दुनिया में इतने रूपों, आकारों और स्तरों में प्रकट हुई है और आगे भी होती रहेगी। 

श्री कृष्ण: हां अर्जुन! ज्ञान- विज्ञान के आने वाले युग के हजारों अन्वेषण इसी मूल सिद्धांत पर आधारित होंगे। सारी सृष्टि इसी परा और अपरा प्रकृति से उत्पन्न होने वाली है और इसीलिए मैं (ईश्वर) संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं। आदि और संपूर्णता हूं। 

अर्जुन भावविभोर हो गए। अर्जुन भविष्यदृष्टा तो नहीं हैं, लेकिन आने वाले कल का अनुमान लगा सकते हैं। वे सोचने लगे कि इस द्वापर युग में मानव सभ्यता के इस स्तर पर तो हम पहुंचे हैं और आगे न जाने कितनी नई-नई खोजें होंगी, अन्वेषण होंगे, लेकिन वासुदेव ने जिस तत्व को संपूर्ण सृष्टि का मूल तत्व कहा है; मानव को उसे हमेशा ध्यान में रखना होगा तभी उसकी दिशा सार्थक रहेगी। 

हां! आपमें ही हैं ईश्वर

ईश्वर संपूर्ण जगत के मूल कारण हैं। आदि और संपूर्ण हैं। वे एक हैं। भले ही हम उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। 

श्री कृष्ण के मुख मंडल पर दैवीय आभा है। यह एक ऐसा प्रकाश है, जो देखने वालों के हृदय और उनकी आत्मा में छाए हुए ज्ञान के अंधकार को सदैव के लिए दूर कर देता है। यह सौंदर्य अद्भुत है। अप्रतिम है। अलौकिक है। अद्वितीय है। आज श्री कृष्ण की भाव भंगिमा में भी एक खास तरह की असाधारणता है। अर्जुन श्रीकृष्ण को अपलक निहारते हैं। गहरे आत्मविश्वास और संपूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण हैं श्री कृष्ण। नकारात्मकता का एक अंश भी नहीं और उन्हें  देखते ही तत्क्षण सकारात्मक ऊर्जा का शरीर की सभी रक्तवाहिनियों में संचार हो जाता है। 

अर्जुन उन्हें निहार ही रहे हैं कि श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं:-मैं स्वयं इस संसार का परम कारण हूं अर्जुन!और कोई कारण मुझसे बढ़कर नहीं है। अंतत: यह युद्ध भी मेरे ही कारण हो रहा है। मुझसे बढ़कर और कोई सत्ता नहीं है। सभी कारण परिणाम मुझमें व्याप्त हैं। 

अर्जुन: मुझे क्षमा करें देव। आपके सानिध्य में दिन-रात रहने के बाद भी मैं आपके स्वरूप को नहीं जान पा रहा था। स्वयं मैं आपसे अलग नहीं हूं। संसार के सारे प्राणी आप परमात्मा से अलग नहीं हैं। 

श्री कृष्ण: तुमने सत्य समझा अर्जुन। जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोई हुई होती हैं, वैसे ही यह सम्पूर्ण संसार मुझमें ही पिरोया हुआ है। 

अर्जुन: जी भगवन! अद्भुत उदाहरण से आपने समझाया है। आप सभी प्राणियों में हैं तो सभी प्राणी आपमें हैं। अगर दुष्ट बुद्धि दुर्योधन इस बात को समझ जाता, तो इस आसन्न युद्ध की आवश्यकता ही नहीं होती। फिर भी मैं समझ रहा हूं प्रभु कि यह सब भी एक अंतिम उपाय के रूप में आप ही की इच्छा से हो रहा है।