Kanchan Mrug - 40 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 40. कहने को रह ही क्या गया?

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कंचन मृग - 40. कहने को रह ही क्या गया?

40. कहने को रह ही क्या गया?

बाबा पारिजात के साथ चलते हुए चन्द के आवास के सम्मुख उपस्थित हुए। पारिजात दिल्ली का कण-कण छान चुके थे। कवि चन्द का आवास ढूँढ़ने में उन्हें कठिनाई नहीं हुई। आवास अपनी भव्यता में राजप्रासाद का आभास करा रहा था। द्वार पर एक प्रहरी नियुक्त था। पारिजात ने उसी से चन्द के बारे में पूछा। उसने बताया कि महाकवि माँ शारदा की आराधना हेतु शारदा मन्दिर गए हुए हैं। बाबा पारिजात के साथ तुरन्त शारदा मन्दिर की ओर बढ़ गए। मन्दिर में माँ शारदा की विशाल प्रतिमा देखकर बाबा गद्गद हो गए। उन्होंने श्रद्धापूर्वक माँ को प्रणाम किया। चन्द माँ की स्तुति कर रहे थे-कोमल पदावली, हृदय के अन्तर से निकले शब्द। बाबा विभोर हो सुनते रहे। स्तुति समाप्त होते-होते चन्द ध्यान मग्न हो गए। ध्यान छूटा तो माँ से निवेदन करने लगे, ‘माँ, क्या युद्ध होकर ही रहेगा? तू इस युद्ध को क्यों नहीं रोकती माँ? इसमें क्या मध्यदेश के विनाश का बीज नहीं छिपा है माँ? माँ, मैं क्या करु? क्या करुं माँ? कुछ तो संकेत दो।’ चन्द माँ शारदा के चरणों में लोटते रहे। कुछ क्षण पश्चात् वे परिक्रमा के लिए जैसे उठे, उनकी दृष्टि बाबा और पारिजात पर पड़ गई। बाबा ही आगे बढ़ गए, निवेदन किया, ‘महाकवि आपसे ही निवेदन करने आया हूँ। ’ कच्चे बाबा ने स्वयं को एक साधक बता अपना मन्तव्य निवेदित किया। चन्द बाबा से लिपट गए, ‘कोई तो मिला जो मेरे विचार का सहभागी है। मैं अलग पड़ गया हूँ। आपके मन्तव्य से मुझे जीवन मिला है पर अब बहुत देर हो चुकी है। हम आप मिलकर भी कुछ कर नहीं सकेंगे।’
मैं एक बार चाहमान नरेश से मिलना चाहता हूँ। उन्हें आसन्न संकट के बारे में बताना चाहता हूँ। निर्णय उन्हें ही करना है, यह भी जानता हूँ। ’ बाबा एक ही साँस में कह गए।
‘यह तो असमय है.....महाराज से मिलना....।’ चन्द कुछ संकोच के साथ कह गए।
‘आसन्न संकट में समय देखना उचित नहीं है’, बाबा ने कहा।
‘चलो, प्रयास करते हैं।’ तीनों चल पड़े।
प्रतोलीद्वार पर नियुक्त प्रहरी ने महाकवि का स्वागत किया। चन्द केवल मन्त्री ही नहीं, महाराज के सखा थे। उनके आने जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था पर वे स्वयं समय-असमय का ध्यान रखते। महाराज अन्तरंग कक्ष में थे। प्रतिहारी ने सूचित किया, वे मन्त्रणा कक्ष में आ गए। आते ही कवि चन्द के साथ तापस की देखकर चौंके। बाबा ने हाथ उठाकर आशीष दिया। पारिजात चुपचाप खड़े थे। महाराज के आसन ग्रहण करने पर तीनों बैठ गए।
महाकवि ने संकेत किया, ‘बाबा विष्णु के उपासक हैं। तेजस्वी, लोकसंग्रही तपस्वी के मन में हमारे निर्णयों से शंका पैदा हो गई है महाराज।’
‘किस निर्णय के प्रति?’
‘वही चन्देल शासक परमर्दिदेव पर आक्रमण करने के सम्बन्ध में’ बाबा बोल पड़े। ‘क्या हमारी विजय नहीं होगी?’
‘प्रकरण यह नहीं है कि विजय किसकी होगी बल्कि यह कि इस वज्रकपाट का क्या होगा? चाहमान और चन्देल दोनों बाह्य आक्रमणकारियों को खदेड़ कर बाहर करते रहे हैं। डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महमूद ने चन्देलों पर आक्रमण किया था पर महाराज विद्याधर ने उन्हें ऐसा छकाया कि पश्चिम के आक्रमण कारी पुनः उधर मुँह नहीं कर सके। चाहमान महाराज अर्णोराज, महाराज विग्रहराज निरन्तर पश्चिमी आक्रमण कारियों से लोहा लेते रहे। आपके पश्चिमी छोर पर निरन्तर दबाव देने वाले आक्रमणकारी क्या चुप बैठेंगे महाराज? जब तक आप और चन्देलों का वज्रकपाट बना है आक्रमणकारियों को मुँहकी खानी पड़ रही है। वज्रकपाट के दो सिर ही आपस में टकरा उठें, तो’, बाबा पर स्वर भर्रा उठा।
‘बाबा युद्ध का तो निर्णय लिया जा चुका है। तैयारियाँ भी पूरी कर ली गई हैं। यदि चन्देल हमारी आधीनता स्वीकार कर लें तो हम युद्ध नहीं करेंगे।’
‘यह कैसे हो सकेगा महाराज? दासता किसे अच्छी लगती है?’
‘तब हमें परमर्दिदेव को पाठ पढ़ाना ही है। हाँ, हम इतना आश्वस्त करते हैं कि चाहमान वज्रकपाट का धर्म अधिक कर्मठता से निभाएँगे।’
‘इस पर कोई मूढ़ ही विश्वास कर सकेगा। ’ बाबा से न रहा गया। महाराज चौंक पड़े। ‘बाबा आप चन्देलों के ध्वज वाहक लगते है।’
‘मैं इस धरती का ध्वज वाहक हूँ किसी सत्ता का नहीं। धरती की पुकार सुनकर ही मैं यहाँ आया हूँ। यह पुकार आपको भी सुननी चाहिए। चाहमान और चन्देल क्या एक ही चने की दो देउली नहीं हैं, उनमें ही युद्ध? धरती की पुकार सुनें। अपनी ही जड़ न खोदें महाराज? यह युद्ध कंचनमृग न सिद्ध हो?’ ‘कंचनमृग’, महाराज की भौंहे तन गई पर बाबा को इसकी चिन्ता नहीं थी। ‘इस युद्ध में आपको अधिक लाभ नहीं हो सकेगा?’
‘लाभ-हानि वणिक देखते हैं बाबा।’
‘तब कहने को रह ही क्या गया? हम तो उस महाराज से मिलने आए थे जो आचार्यो के शास्त्रार्थ की मध्यस्थता करता था’, बाबा व्यथित हो कह उठे,
‘महाराज, आमोद का साधन नहीं है युद्ध। निरीह प्रजा ही उसके भार से दबती है। किसान, शिल्पी, श्रमिक, वणिक सभी उस भार को ढोते हैं। अहं की पूर्ति के लिए युद्ध?’ बाबा कहते हुए उठ पड़े। महाराज भी उठे। महाकवि उन्हें अन्तःपुर तक पहुँचाने गए।
बाबा के लौटने की गति तेज थी। पारिजात पीछे-पीछे चल रहे थे। दोनों निःशब्द केवल तेज पदचाप की ध्वनि ही सुनाई पड़ रही थी।