Kanchan Mrug - 45 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 45. शीघ्रता करो अन्यथा

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कंचन मृग - 45. शीघ्रता करो अन्यथा

45. शीघ्रता करो अन्यथा-

उदयसिंह , देवा और कुँवर लक्ष्मण राणा अश्वारोहियों का पीछा करने के लिए चले किन्तु पैदल होने के कारण वे बहुत पीछे रह गए। दिन निकलने पर वे एक गाँव में पहुँचे। तीन अश्वों को लिया। अश्व यद्यपि बहुत स्वस्थ नहीं थे किन्तु उनकी तीव्र चाल ढाल से उदयसिंह को लगा कि इनसे काम लिया जा सकता है। अब अश्वारोही बहुत दूर जा चुके थे। तीनों यद्यपि रात्रि में जगने के कारण कुछ थकान का अनुभव कर रहे थे, पर अश्वारोहियों को पकड़ने की ललक उनमें स्फूर्ति का संचार कर रही थी। उन्होंने अल्प उपाहार लिया, अश्वों को पानी पिलाया और सवार हो गए।
वे अश्वों के खुरों को पहचानते, राहियों से पूछताछ करते आगे बढ़े। कुछ दूर चलने पर चम्बल के भयानक बीहड़ में मार्ग खोजना कठिन हो गया। राही भी प्रायः दिखाई नहीं पड़ते। पर तीनों चलते रहे। जिधर मार्ग जाता उधर ही अश्व दौड़ाते रहे। उन्हें संभावना थी कि इसी बीहड़ में अश्वारोही छिप गए होंगे। वे आगे बढ़ रहे थे। उन्हें एक वणिक दल मिला। उदयसिंह ने उनसे अश्वारोहियों के बारे में पूछा पर वे इतने डरे हुए थे कि किसी से वाणी नहीं फूटी। उनकी सामग्री जो भी वे लेकर चल रहे थे, लूट ली गई थी। उदयसिंह ने अपना परिचय दिया तब भी वे केवल हाथ जोड़ते रहे, कहा कुछ नहीं। कुँवर ने डाँट लगाई तो उनमें से एक बोल पड़ा, उसकी आवाज़ काँप रही थी। ‘महाराज, हमारी गति साँप छछूँन्दर जैसी है। मुँह से कुछ निकल जाए तो दस्यु जीवित नहीं छोड़ेंगे और मुँह बन्द रखने पर आपकी प्रताड़ना सहनी है। हम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है महाराज। ओठ सिलकर ही हम इस क्षेत्र में यात्रा करते हैं। यहाँ बीहड़, और जंगल के बीच हमारी सुरक्षा कौन कर सकेगा?’
‘ग्रामपति , विषयपति क्या करते हैं?’
‘कर उगाहना उनका काम है पर इस बीहड़ में जहाँ दूर-दूर तक कोई अधिवास नहीं है, कौन सुरक्षा दे सकेगा, महाराज? यथा शक्ति वे सहयोग करते ही हैं।’
‘इतना संकट फिर क्यों उठाते हो?’
‘यही हमारी वृत्ति है। पुरखातन से यही करते आए हैं। संकट का मूल्य कहीं न कहीं मिलता है। असत्य कैसे कहूँ? हमारा सम्पूर्ण आचार हमारी वृत्ति से जुड़ा है। परिवार के वृद्ध जन बताते है कि हमारे परबाबा काम्बोज तक जाते थे। हमारे पूर्वज यवद्वीप और बाली गए थे।’
‘अब देर हो रही है। अश्वारोही किस दिशा में गए हैं, यही बता दो।’, देवा ने पूछा। वणिक फिर थरथरा उठा। उसकी वाणी मौन हो गई। शीश झुका ‘महाराज’ कहकर उसने हाथ जोड़ लिया।
‘चलो, चलें। ये वणिक हैं’ कहकर उदयसिंह ने अपना अश्व बढ़ा लिया। तीनों कुछ ही दूर गए होंगे कि एक भयानक चीख सुनाई पड़ी। उन्होंने उधर ही अश्व दौड़ा दिया। कुछ ही क्षण में उन्होंने एक निर्वस्त्र महिला के पेट से तलवार खींचते हुए अश्वारोही को देखा। एक टीले पर पारिजात भी दिखे। उन्होंने अश्वारोही पर एक पत्थर लुढ़काया था किन्तु अश्वारोही बच गया। पत्थर महिला के सिर से टकरा गया था। जैसे ही उदयसिंह ने अश्वारोही को ललकारा, उसने अपना कुन्त उदयसिंह पर फेंका। कुन्त बचाते हुए उस पर प्रहार कर, उन्होंने सिर को धड़ से अलग कर दिया। अश्वारोही को लिए हुए अश्व ने भागने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसका पीछा नहीं किया। कुछ दूर पर ही अश्वारोही गिर पड़ा, अश्व भी खड़ा हो गया। पारिजात निकट आ गए। महिला के शरीर को अपने उत्तरीय से ढकते हुए वे फफक पड़े, मुँह से निकल पड़ा ‘सुमुखी। उदयसिंह चौंक पड़े ‘ तो यह सुमुखी ही है।’ कुँवर और देवा भी अधीर हो उठे। ‘सुमुखी का यह अन्त’, उदयसिंह रो पड़े। भरे कण्ठ से उन्होंने पारिजात से कहा’, आदेश दें, हमें क्या करना है?’
‘कुछ नहीं, मैं इसे ले जाकर चर्मण्वती तट पर ही अग्नि को समर्पित करूँगा, पर राजपुरुष तुम यहाँ क्या कर रहे हो? महोत्सव का दीप बुझ रहा है और तुम यहाँ?’
‘क्या महोत्सव का दीप?’
‘हाँ, क्या तुम्हें पता नहीं? अनर्थ को कौन बचा सकेगा? शीघ्रता करो, अन्यथा....।’ उदयसिंह पारिजात की शैली से परिचित थे। उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया। देवा और कुँवर को साथ ले शीघ्रता से महोत्सव की ओर चलने को उद्यत हुए। पर वे पारिजात को भी सुमुखी समेत चर्मण्वती तीर पहुँचाना चाहते थे। पारिजात ने सुमुखी को उत्तरीय में बाँधा। उदयसिंह अश्वारोही के अश्व को पकड़ लाए। उन्होंने सुमुखी का शरीर अश्व पर रख दिया। पारिजात ने विरोध नहीं किया। अश्वारोही की कोई पहचान नहीं हो सकी। सभी चर्मण्वती तीर तक गए। तीर पर सुमुखी को उतारा। थोड़ी दूर पर कुछ लकड़हारे लकड़ी जलाकर बाजरे की रोटियाँ सेंक रहे थे। उन्होंने लकड़ियाँ इकट्ठी कर रखी थी। उदयसिंह ने लकड़हारों से लकड़ियाँ ली। लकड़ी के साथ अग्नि भी ले आए। चिता बनाई गई। पारिजात ने स्नान किया, शव को भी नहलाया। उत्तरीय में लपेट कर शव चिता पर रखा गया। शव की परिक्रमा कर पारिजात ने अग्नि प्रज्वलित कर दी। पर उसी समय वे लगभग चीखते हुए बोल पड़े, ‘यहाँ क्यों रुके हो? महोत्सव की ओर भागो।’ उदयसिंह पारिजात के तेवर से परिचित थे। तुरन्त कुँवर और देवा को साथ ले चल पड़े। कुँवर मौन थे, व्यग्र भी। महोत्सव में क्या अनर्थ घट गया, जिसकी उन्हें सूचना नहीं मिल सकी। कुछ दिन में कुमार की गौने की तैयारियाँ होनी थी। क्या चाहमान सेना ने आक्रमण कर दिया? ग्रामवासियों से भी कोई संकेत नहीं मिल सका। सेना तो कालिन्दी के किनारे से ही गई होगी। बीहड़ निकल गया। एक खेत में कृषक हल जोत रहा था। उदयसिंह ने पूछा,’ क्या इधर से कोई सेना गई है?’ ‘सेना तो आती जाती रहती है’ कहकर किसान मुस्करा उठा। ‘क्या चाहमान सेना?’
‘सेना, सेना है चाहे कोई भी हो’, कहकर उसने बैलों को पुचकारा, बैल चल पड़े। उदयसिंह का समाधान न हुआ। वे शीघ्रता से आगे बढ़े। शिशिरगढ़ के समीप जहाँ अश्व बँधवाकर तापस वेष धारण किया था, पहुँच कर उन्होंने वेष बदला। अपने अश्वों पर सवार हुए। साथ लाए अश्वों को वहीं बँधवा दिया।
आगे बढ़ने पर बेसिर पैर की सूचनाएँ तैर रहीं थीं। कोई कहता दो राजकुमारों में युद्ध हुआ, एक घायल हो गया है। कोई कहता अरब देश के सैनिक आए हैं। कोई कहता कुमार ब्रह्मजीत गौना लेने गए हैं। सभी कुछ अप्रत्याशित लगता। कोई कुछ सुनता कुछ अपनी ओर से सुना देता। तीनों लोग व्यग्र थे। अश्व भी अपनी शक्ति भर उड़ रहे थे। देवा की ज्योतिषीय गणना भी शुभ का संकेत नहीं दे रही थी।
रात्रि का पिछला प्रहर। अश्व एवं अश्वारोही थककर चूर हो रहे थे। महोत्सव के कलश दिखते ही तीनों में हर्ष की लहर दौड़ गई। नगर शान्त था, कहीं कोई कोलाहल नहीं। अश्वों की टाप ही सुनाई पड़ रही थीं। नगर के समीप आने पर श्वान भौंकने लगे। पर परिचित स्वर सुनकर धीरे-धीरे चुप होते गए। एक नगर वासी ने बताया, ‘सुना गया है कुमार मूर्च्छित हो गए हैं।’ तीनों व्याकुल हो गए। नगर रक्षक प्रणाम कर सिर झुका लेते। किसी ने कोई बात नहीं की। उनके उदास मुखमण्डल अशुभ की ही सूचना दे रहे थे। निकट आने पर रूपन दिखाई पड़ा। तीनों को देखते ही अश्व से उतर कर प्रणाम किया। कुँवर ने जैसे ही कहा ‘कुशल तो है?’, रूपन भहरा गया, ‘स्वामी अब कुशल कहाँ है? आपकी राह देखते रात बीत गई। महाराज, महारानी, रानीजू, माण्डलिक, महामन्त्री, चाचा सैयद सभी रात भर विमर्श ही करते रहे।’ ‘कुमार कैसे मूच्र्छित हो गए रूपन?’ उदयसिंह ने पूछा ‘कुछ भी कहने योग्य नहीं है, स्वामी। आप लोग भी नहीं थे। माण्डलिक और महासचिव कालिंजर गए हुए थे। उसी बीच कुमार गौने के लिए चले गए। सुना गया कुमारी वेला का सन्देश आया था। मार्ग में ही चामुण्डराय की कपट नीति के शिकार हो गए कुमार। सुना है उन्होंने लौटना स्वीकार नहीं किया। धूरे पर ही पड़े है। आचार्य जगनायक उनके साथ हैं। उन्होंने ही सन्देश भेजा है।’ तीनों सीधे दशपुरवा चले गए। पूरे राजप्रासाद में उदासी छाई थी। अकल्पनीय घट गया था।