Dwaraavati - 22 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 22

Featured Books
  • فطرت

    خزاں   خزاں میں مرجھائے ہوئے پھولوں کے کھلنے کی توقع نہ...

  • زندگی ایک کھلونا ہے

    زندگی ایک کھلونا ہے ایک لمحے میں ہنس کر روؤں گا نیکی کی راہ...

  • سدا بہار جشن

    میرے اپنے لوگ میرے وجود کی نشانی مانگتے ہیں۔ مجھ سے میری پرا...

  • دکھوں کی سرگوشیاں

        دکھوں کی سرگوشیاںتحریر  شے امین فون کے الارم کی کرخت اور...

  • نیا راگ

    والدین کا سایہ ہمیشہ بچوں کے ساتھ رہتا ہے۔ اس کی برکت سے زند...

Categories
Share

द्वारावती - 22







22

‘कोई तो है जो मेरा पीछा कर रहा है। कौन होगा? क्यों करता होगा? क्या चाहिए उसे मुझसे ?’
कुछ क्षण वह रुक गया। कन्दरा से कोई नहीं आया।
‘भीतर जाकर देख लूँ कि कौन है?’
वह कन्दरा की तरफ़ चलते ही रुक गया।
‘कोई लुटेरा भी हो सकता है। मुझे नहीं जाना चाहिए।’
वह लौट गया। चलने लगा।
उसके कानों ने कुछ ध्वनि को पकड़ा। वह शांत हो गया। ध्वनि को सुनने लगा।
“ओम्, ओम्, ओम्, “
‘यह तो ओम् का नाद है। कौन बोल रहा है? उसने ध्वनि पर ध्यान दिया।
‘यह तो कन्दरा से आती ध्वनि है। कौन होगा? किसकी ध्वनि है यह? अरे, यह तो किसी कन्या की ध्वनि है। कोई कन्या ओम् का जाप कर रही है।एक कन्या इस समय? इस कन्दरा में क्यूँ जाप कर रही है? मैं देखता हूँ कि कौन है वहाँ?’
‘इस कन्दरा में कोई योगिनी तो नहीं? यदि ऐसा है तो मुझे भीतर नहीं जाना चाहिए। मेरे भीतर जाने से उसकी तपस्या भंग हो सकती है, उसका ध्यान भंग हो सकता है। ऐसा तो अनुचित है। नहीं मैं भीतर नहीं जाऊँगा। मैं यहीं खड़ा रहूँगा, कन्दरा के बाहर। उसकी तपस्या पूर्ण होने तक।’
केशव कन्दरा के मुख पर रुक गया। उस ध्वनि को सुनने लगा।
“ओम्, ओम्, ओम् ....”
‘कितना मधुर स्वर है इसका? कितनी दिव्य अनुभूति है इन स्वर में! कन्दरा के भीतर अन्य कोई ध्वनि नहीं है। कितना शांत, कितना स्थिर ! ओम् के एक उच्चार के पश्चात कन्दरा के भीतर उठते प्रतिध्वनि में भी अनूठा अनुभव हो रहा है।’
अनेक क्षण व्यतीत हो गए। ओम् का नाद पूर्ण हुआ।
“केशव, कन्दरा के भीतर नहीं आओगे?”
केशव सावधान हो गया।
“कौन हो तुम? क्या तुम कन्दरा छोड़कर बाहर नहीं आ सकती? तुम हो कौन?”
भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। कन्दरा मौन हो गई। केशव धैर्य रखे खड़ा रहा।
“केशव, तुम्हें विस्मरण हो गया है क्या? मैं ही बाहर आती हूँ।”
वह कन्दरा से बाहर आइ, केशव के सम्मुख आ गई।
“केशव, मैं गुल हूँ।”
केशव गुल को देखता रह गया। चंचल सी गुल अब धीर गम्भीर लग रही थी। मुख पर स्थिर भाव थे जो उसे उसकी आयु से बड़ी दिखा रहे थे। अधरों पर एक स्मित था, जो अत्यंत मोहक था। यह स्मित उसे अपनी आयु से छोटी दिखा रहा था। उस स्मित में कोई आकर्षण था। वह मोहक था। उसके केश खुले हुए थे।
“केशव, कहाँ हो तुम?”
केशव जगा, “गुल, यह क्या है? तुम्हारी आभा आज कुछ भिन्न ही निखरी है।”
केशव अभी भी उस आभा के प्रभाव में था।
“तुम्हारा यह रूप मुझे ..., मुझे कुछ ही समज नहीं आ रहा है। क्या है यह सब?”
“केशव, आओ यहाँ बैठो। सब बताती हूँ।” गुल कंदरा के मुख पर स्थित छोटी सी एक शिला पर बैठ गई। सम्मुख दूसरी शिला पर केशव भी बैठ गया। उसके मुख पर अनेक प्रश्न थे, अनेक उत्सुकता थी।
“केशव, इस कन्दरा के भीतर कभी गए हो?”
केशव के मुख पर नकार के भाव थे।
“यह वही कंदरा है जिसके ऊपर जो शिला है उस पर बैठ कर तुम ओम् का जाप किया करते हो।” गुल ने ऊपर की तरफ़ संकेत किया, केशव ने उस दिशा में देखा।
“ऊपर बैठे बैठे जब तुम ओम् का जाप करते हो तब मैं इसी कन्दरा में, यहीं जहां अभी मैं बैठी हूँ, बैठ जाती हूँ। तुम जैसे ही ओम् का उच्चार करते हो, वह शब्द इस कंदरा में भी सुनाई देता है। मैं उसे सुनती रहती हूँ। सुनते सुनते मुझे भी ओम् का यह जाप, जिसे मैं कभी गीत कहा करती थी, सिख गई। जाप पूर्ण कर तुम सूर्य को अर्घ्य देते हो उस मंत्र को भी मैं सुनती हूँ। तुम गुरुकुल लौट जाते हो तब मैं यहाँ बैठ कर ओम् का जाप करती हूँ। यह सब मैंने तुमसे ही सिख है केशव।”
केशव गुल की बातें सुनता रहा, मौन होकर, मंत्रमुग्ध होकर, कौतुक के साथ, विस्मय के साथ।
“गुल, तुम्हें यह ओम् का जाप, यह सूर्य मंत्र सीखना ही था तो तुम मुझे कह देती। मैं तुम्हें सिखा देता। तुम मेरे सम्मुख बैठती, मैं तुम्हें सिखाता जाता। इस प्रकार इस कन्दरा में छुपकर बैठने की क्या आवश्यकता थी?”
हंस पड़ी गुल। वही मोहक स्मित। केशव उस स्मित को देखता रहा।
“केशव, मेरे मुख पर यह जो स्मित देख रहे हो वह भी मैंने तुमसे ही सिखा है।”
केशव अचंभित हो गया,स्मित भी? स्मित तो व्यक्ति का सहज भाव है, जो प्रत्येक का भिन्न भिन्न होता है। वह स्वयं ही प्रकट होता है। कोई किसी से स्मित करना कैसे सिख सकता है? कोई किसी को स्मित करना तो नहीं सिखा सकता।”
“किंतु यह सत्य है, केशव। कुछ दिवस पहले जब हम मिले थे तब से तुम वही स्मित करते रहे हो। परंतु…।
गुल रुक गई। केशव को निहारने लगी। मौन हो गई।
“परंतु से आगे भी कोई बात होती है, कोई शब्द होते हैं।”
“परंतु मेरे पास इन परंतु से आगे कोई शब्द नहीं है।”
“शब्द अवश्य नहीं होंगे परंतु बात तो अवश्य ही होगी। वास्तव में जब कोई परंतु शब्द पर अटक जाता है, रुक जाता है, मौन हो जाता है तो समझ लो कि इस परंतु के उपरांत ही कोई बात अवश्य है जो मूल्यवान है, महत्वपूर्ण है। परंतु एक ऐसी कला है जहां यह शब्द बोलने वाला बात कहना भी चाहता है और उसे छुपाना भी चाहता है। इस परंतु शब्द से आगे बढ़ो, तुम उस बात को प्रकट कर दो, गुल।”
गुल हंस पड़ी। कंदरा उसके प्रतिघोष से भर गई। केशव को यह प्रतिघोष मनभावन लगा। उसके अधरों पर स्मित आ गया। गुल उस स्मित को देख बोली, “यही स्मित, हां, यही स्मित जो तुम्हारे होंठों पर है। मैं इसी स्मित की बात कर रही हूँ।”
“तो कहो, गुल। मैं भी तो उसे सुनने को उत्सुक हूँ।”
“मेरे परंतु शब्द से आगे की बात यही थी कि आज तुम्हारे मुख पर से वह स्मित अलोप था। मुझे तो आशंका होने लगी थी कि कहीं तुम्हारा वह स्मित लुप्त तो नहीं हो गया?”
“तुम्हारे हास्य से इस कन्दरा से उठे प्रतिघोष ने मुझे प्रसन्न कर दिया तो मेरा स्मित सहज ही मेरे मुख
पर आ गया। इस बात को यहीं छोड़ो। हम कुछ ....।”
“चलो स्मित की बात अभी छोड़ देती हूँ किंतु ...।”
“किंतु शब्द भी परंतु शब्द का ही भाई है। तुम किंतु परंतु शब्द का उपयोग ना किया करो।” केशव व्याकुल हो गया।
“केशव, शांत हो जाओ। मैं तो कहना चाहती थी कि स्मित की बात छोड देते हैं किंतु तुम स्मित को कभी नहीं छोड़ना।”
गुल हंस पड़ी, केशव भी।
“मैं कह रहा था कि यदि तुम्हें ओम् के जाप सीखने थे, सूर्य मंत्र सीखना था तो तुम मेरे सम्मुख बैठ जाती, इस कंदरा से ऊपर वाली शिला पर। मैं तुम्हें सिखाता। इस प्रकार इस कंदरा में छुप कर सीखना मुझे समझ नहीं आया।”
गुल कुछ क्षण मौन रही। एक प्रलंब श्वास लिया और बोली, “केशव, यदि मैं सामने बैठ कर सीखती तो तुम्हारा ध्यान भंग होता, और भी अनेक वस्तु हमें आकर्षित करती। मेरा ध्यान भी भंग होता, उन सभी वस्तुओं को देखकर। यह कन्दरा में कोई व्यवधान नहीं, एक ही ध्यान। और यहाँ उठती प्रतिध्वनि एक भिन्न ही अनुभव देती है। वह स्वयं में ही कोई गीत है।”
“इस कंदरा से उत्पन्न होने वाले प्रतिघोष का अनुभव तो मैंने भी किया है।”
“कब? तुम तो आज से पहले कभी इस कन्दरा में नहीं आए। तुमने ही तो कहा था।”
“किंतु आज तो आया हूँ। आज तो अनुभव किया है।”
“वह कैसे?”
“तुम्हारे हास्य का प्रतिघोष। कुछ क्षण पहले ही सुना था हम दोनों ने।”
“हां केशव। एक काम करते हैं। तुम यहाँ बैठो। मैं ऊपर जाकर गाती हूँ, तुम सुनो।”
गुल कंदरा से बाहर आइ, ऊपर की तरफ़ गई। उसकी दृष्टि सूर्य पर गई। उसने एक दृष्टि सारे तट पर डाली।
“केशव, मुझे विलम्ब हो रहा है, मुझे जाना होगा। मैं जाती हूँ।” गुल घर तरफ़ दौड़ने लगी।
“कहाँ जा रही हो? रुको तो...।” केशव ने पुकारा परंतु वह भागती रही।
“मैं ...कल ... आऊँगी।” गुल के बाक़ी के शब्द समुद्र तरंगों की ध्वनि में विलीन हो गए। तट पर, खड़क पर, कन्दरा पर, भीगी रेत पर अपने पद चिन्हों को अंकित करती हुई गुल चली गई। एक लय, एक ताल के साथ गति कर रहे गुल के चरणों को केशव देखता रहा। उससे उत्पन्न संगीत, समुद्र की ध्वनि तथा पवन की गति सब एकरूप हो गया। गुल दृष्टि से दूर जा चुकी थी। उसके पदचिह्न अभी भी रेत पर अंकित थे।
‘यह पदचिह्न कितने जीवंत लग रहे हैं। जैसे अभी यह चरण चल पडेंगे और यह ध्वनि भी, यह संगीत भी।’
संगीत के उस भाव विश्व में केशव खो गया। आँखें बंद कर वह उसकी अनुभूति करने लगा।
क्षण पश्चात केशव ने आँखें खोली। संगीत ने अपनी धुन बदल दी थी। गुल की पदध्वनि शांत हो गई थी। केशव ने रेत पर देखा। वहाँ गुल के पदचिह्न भी नहीं थे।
‘कहाँ गए यह पदचिह्न? कहाँ गया वह संगीत?’
समुद्र की अविरत तरंगें तट को भिगो रही थी। तट पर अंकित चिन्हों को मिटा रही थी।
केशव गुरुकुल लौट गया।