Uttrayan - 2 in Hindi Poems by Choudhary SAchin Rosha books and stories PDF | उत्तरायण - 2

Featured Books
  • خواہش

    محبت کی چادر جوان کلیاں محبت کی چادر میں لپٹی ہوئی نکلی ہیں۔...

  • Akhir Kun

                  Hello dear readers please follow me on Instagr...

  • وقت

    وقت برف کا گھنا بادل جلد ہی منتشر ہو جائے گا۔ سورج یہاں نہیں...

  • افسوس باب 1

    افسوسپیش لفظ:زندگی کے سفر میں بعض لمحے ایسے آتے ہیں جو ایک پ...

  • کیا آپ جھانک رہے ہیں؟

    مجھے نہیں معلوم کیوں   پتہ نہیں ان دنوں حکومت کیوں پریش...

Categories
Share

उत्तरायण - 2

१. पत्थर दिल

डर के बिना कठोरता का कोई अस्तित्व ही नहीं

पर कठोरता को निष्ठुरता या निर्दयता तुम समझना नहीं

कठोरता गुण है पदार्थ का,ऊर्जा का नहीं।

भ्रम से निकल सचिन, क्योंकि

कठोर हृदय या पत्थर दिल कुछ होता ही नहीं।

Rosha



२. आर्य कौन है?

आर्य कौन है?

जो सुबह को दस चिड़ियों का पेट भरे और

शाम को भोजन में मात्र एक मुर्गा चरे। या फिर,

वह जो धर्म के नाम पर धन एकत्र करे और

धर्म पर एक रुपया भी व्यय न करे। या

वह जो शीश पर लम्बी–सी शिखा धारण करे और

जीवन–भर अज्ञान में ही जिए व अज्ञान में ही मरे। या

वह, ‘आर्य’ जिसके नाम के पीछे जुड़े या

वह जिसको नाम तक का बोध नहीं पर आत्मीयता जिसके व्यवहार में बसे। या

वह जो सत्पुरुष होने का नाटकीय वेश धारण करे या

वह जो किसी भी वेश में तेज, ओज व ज्ञान को धारण करे।

आर्य कौन है? यह प्रश्न मेरे हृदय में बसा अन्धकार है

किस दीपक से मैं लौ लगाऊं, यहां तो भ्रम की ही भरमार है

धन की लौलुप्ता व अन्यत्र वासनाओं से घिरा,

परन्तु फिर भी चमक रहा यह संसार है।

किस दीपक से मैं लौ लगाऊं, यहां तो भ्रम की ही भरमार है।

Rosha




३. रावणपक्ष

मैं रावण, था बड़ा ज्ञानी , महाविद्वान

काल को भी वश में करलू ऐसा मिला मुझे वरदान

किसी शक्ति में इतनी शक्ति नहीं थी जो रावण को हरा पाए

फिर भी राम के भाई लक्ष्मण से,

रो रही थी बहन रावण की अपनी नाक कटायें

भला कौन भाई है इस जग में

सम्मान जाए अगर बहन का और क्रोध उसे न आये

हां बुद्धि भ्रष्ट हुई थी मेरी जो मन में यह विचार उठा

सर्वशक्तिशाली हूं मैं और वह तुच्छ मानुष,

हृदय में यह अहंकार उठा,

हरूंगा मैं भी उस राम के सम्मान को

क्योंकि घात किया था उसने मेरे अभिमान को

सारा ज्ञान झड़ चुका था और मैं सीता को हर चुका था

एक नारी के सम्मान हेतु,

अन्य नारी को रथ में अपने, मैं धर चुका था

हां हरण अवश्य सीता का किया था मैंने,

बिना स्वीकृति सीता की, स्पर्श तक भी

नहीं उस देवी का किया था मैंने l

समझाया बहुत विभीषण,बालीपुत्र अंगद और हनुमान ने

शब्दो से ही मेरा वंशनाश होता दिखाया मंदोदरी नार ने

बोली लौटा दो वापस राम के सम्मान को

परन्तु नहीं हरा पाया मैं रावण के अभिमान को

हां, अभिमान था मुझे अपनी शक्ति का,अपनी विद्वता का

अपमान किया था मैंने अपने ही भ्राता का

आज अपनी ही मूर्खता से धरा पर शक्तिहीन पड़ा हूं मैं

हाय प्राण अब निकले के अब निकले,

अब छोड़ अहंकार शिवचरणों में चला हूं मैं।

परन्तु स्मरण रहे अपनों के ही विश्वासघात से मरा हूं मैं

सम्भल मानव तू रावण के परिणाम से

जब महाविद्वान, महाज्ञानी, शक्तिशाली रावण का अहंकार न बचा

तो तुझ अज्ञानी, अधम से मानव का अहंकार

कैसे बचेगा काल की तलवार से।

Devank Singh Rosha




४. उठ जाग मुसाफ़िर

उठ जाग मुसाफ़िर, अब भौर भई

उतार फेंक ,निंद्रा चादर जो ओढ़ी हुई

आ देख नया सवेरा कैसा है

धरती पर फैली कैसी अद्भुत उषा है।

पक्षियों ने जो मधुर गीत गाया

क्या तू उसको सुन पाया

ठंडी ठंडी हवा, छूकर तेरे अंगो को

क्या तुझको आनंदित कर पाई

निकल अज्ञाननिंद्रा से तू, मत ले अब अंगड़ाई

उठ जाग मुसाफिर ,अब भौर भई

उतार फेंक उसको निंद्रा चादर जो ओढ़ी हुई।

Devank Singh Rosha



शुभ परिवर्तन के विचारों को केवल चिन्तन करने, कहने–सुनने, पढ़ने–पढ़ाने से कुछ नहीं होगा उनका यथावत पालन करना भी आवश्यक है।

धन्यवाद🙏😊 ........................