Shuny se Shuny tak - 63 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 63

Featured Books
  • فطرت

    خزاں   خزاں میں مرجھائے ہوئے پھولوں کے کھلنے کی توقع نہ...

  • زندگی ایک کھلونا ہے

    زندگی ایک کھلونا ہے ایک لمحے میں ہنس کر روؤں گا نیکی کی راہ...

  • سدا بہار جشن

    میرے اپنے لوگ میرے وجود کی نشانی مانگتے ہیں۔ مجھ سے میری پرا...

  • دکھوں کی سرگوشیاں

        دکھوں کی سرگوشیاںتحریر  شے امین فون کے الارم کی کرخت اور...

  • نیا راگ

    والدین کا سایہ ہمیشہ بچوں کے ساتھ رہتا ہے۔ اس کی برکت سے زند...

Categories
Share

शून्य से शून्य तक - भाग 63

63===

डाइनिंग टेबल के ठीक सामने उनके मम्मी-पापा की तस्वीर लगी हुई थी| जब मनु उस दुर्घटना के बाद दीना अंकल के साथ घर पर रह रहा था उन सबने मिलकर न जाने मम्मी-पापा की कितनी तस्वीरें चुनकर पूरे घर में लगा दी थीं| बच्चों को लगता जैसे मम्मी-पापा उनके साथ हर पल हैं| 

दोनों के सामने गरम फुल्के आ चुके थे, जैसे ही मनु ने अपनी रोटी का पहला टुकड़ा तोड़ा, उसकी दृष्टि मम्मी-पापा की तस्वीर पर पड़ी| उसे लगा वे उससे पूछ रहे हैं कि क्या उसे मालूम है कि दीना अंकल ने खाना खाया या नहीं?उसके हाथ का कौर वहीं रह गया| उसने तुरंत फ़ोन लगाया, रेशमा उसको देख रही थी और उसकी उदासी का कारण समझ भी रही थी| उसका हाथ भी खाते हुए रुक गया, भाई के उदास चहेरे पर उसकी नज़र टिक गई| 

“हैलो माधो---”

“जी, भैया---मैं माधो ”

“हाँ, मुझे पता है, एक बात बताओ डैडी ने अभी खाना खाया कि नहीं ?”

“आप मालिक के लिए पूछ रहे हैं?”

“हाँ, अंकल के लिए ही---पूछ रहा हूँ---”वह झेंप गया, अचानक उसे याद आया था कि एक दिन बातों-बातों में दीना अंकल ने बड़े प्यार कहा था कि अब तो मुझे पिता समझना शुरू कर दो लेकिन जब शादी की यह हालत हुई तब सभी गुमसुम से हो गए| 

“आप तो पहले से ही पिता समान हैं---”मनु ने कहा| 

“आप लोगों के साथ ही खाया था बस—अब कबसे कह रहा हूँ, कहते हैं भूख ही नहीं है| ”उसका स्वर भी उदास था| 

“आप लोगों के जाने से पूरे घर में उदासी भर गई है| ”

“अच्छा, फ़ोन दो उन्हें---”

“डैडी! आपने अब तक खाना क्यों नहीं खाया?कहकर मनु ने फिर अपनी ज़बान दाँतों में दबा ली| 

मालूम नहीं क्यों आज बार-बार उसके मुँह से डैडी निकल रहा था?दीनानाथ की तो आत्मा तृप्त हो गई जैसे!

“आशी कहाँ है अंकल?”फिर से उसने उन्हें अंकल कहकर पुकारा| 

“वो अपने कमरे में ही है---तुम चिंता मत करो मनु, मैं खा लूँगा, अभी कुछ भूख सी नहीं लगी थी| 

“पहले से ही बहुत देर हो गई है—अभी खा लीजिए, हम लोग भी अभी खाने ही बैठ रहे हैं| ”

“हाँ, हाँ जा रहा हूँ, चल माधो, नहीं तो तू भी भूखा बैठा रहेगा, चलो तुम लोग भी बैठ जाओ अब | ”शायद उन्होंने मनु को सुनाने के लिए कहा था| 

मनु ने रेशमा को इशारा किया और दोनों ने खाना शुरू कर दिया| मनु भाई का चेहरा पढ़ रही थी, भाई ऐसे ही पापा यानि डॉ.सहगल से लड़ाई किया करता था, जब वे क्लीनिक पर बहुत देर लगा देते तब वह कहता था कि पापा आप डॉक्टर हैं, अपना ध्यान नहीं रखेंगे तो पेशेंट्स का कैसे रखेंगे?

‘कैसी लड़की है ये आशी भी?दो लोग तो घर में हैं और वह अपने पिता का ध्यान भी नहीं रख पा रही है, मेरा तो भला क्या ही रखेगी?’खैर ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं थी उससे लेकिन पति-पत्नी का टैग लगने पर कभी न कभी तो इन बातों का ध्यान आना स्वाभाविक ही होता है | दोनों भाई-बहन चुपचाप खाना खाते रहे और दोनों के ही दिमाग में दीना अंकल का अकेलापन पसरा रहा| 

अगर सब चले गए थे तब आशी तो पिता के साथ बैठकर खा सकती थी | अब साथ बैठने तो लगी थी लेकिन उसे यह भी महसूस नहीं हुआ कि पापा अकेले इतने बड़े डाइनिंग में कैसा महसूस कर रहे होंगे| शायद दिमाग में आया भी हो लेकिन ज़िद और अपने अहं की सिर पर धरी गठरी उठाकर फेंक देती तब तो समझती| यही तो तकलीफ़ थी, बस उसके मन की ही चलती रहे और जैसा भी वह चाहे| 

जब डॉ सहगल थे तब उन्होंने साउथ से आए हुए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ.कुरूप को बुलाया था, उनकी भी यही राय थी कि उसे बहुत छेड़ा न जाए| जितना उसे मनाया जाएगा, उतना ही वह बिफर जाएगी| जो करे, करने दिया जाए शायद कभी उसकी अपनी बुद्धि में ही आए और वह नॉर्मल बिहेवियर करने लगे| मुश्किल ऐसे भी थी, वैसे भी, दीना अपने किए पर पछताने के अलावा अब कुछ नहीं कर सकते थे, कर चुके थे वे मनु का भविष्य अंधकार में ! वे इस बात को सोचते हुए अंदर से कमजोर पड़ते जा रहे थे लीक आज तो उनकी मानसिक स्थिति को समझने वाला रघु के अलावा कोई कहाँ था”?

‘ठीक भी है, मनु अपनी खुद्दारी से जीना चाहता है तो, यदि वह अपने पिता के घर गया तो ठीक ही तो था| आखिर कब तक उस घर को नेगलेक्ट करता रहेगा?’खाना तो क्या खाया उन्होंने, सोच का भोजन उनके मस्तिष्क में भरता रहा जो उनके लिए पौष्टिक नहीं था, उन्हें बीमार कर देने में ही सहायक सिद्ध होने वाला था| थोड़ा-बहुत खाकर वे खड़े हो गए और रघु से खाने के लिए कहकर अपने कमरे की ओर चल दिए| 

रघु भी बहुत दिनों बाद उस दिन बस नाम का ही खा पाया फिर ऊपर चल गया| उसे अपने मालिक का ध्यान रखना था!!