Aakhet Mahal - 14 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | आखेट महल - 14

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आखेट महल - 14

चौदह

बातें न जाने कब तक चलती रहीं। गौरांबर को यह भी पता न चला कि कब उसे गहरी नींद आ गयी। अब उसकी आँख खुली तो सवेरे के छ: बजे थे। उठते ही उसने देखा, बूढ़ा और शंभूसिंह वहाँ नहीं थे। वह अनमना-सा उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा। वह अभी बीड़ी सुलगाकर माचिस की तीली दरवाजे पर फेंकने ही जा रहा था कि दरवाजे से पुखराज आ गया। आकर बोला—

''काका और शंभूसिंह जी मन्दिर में चले गये हैं।'' लड़का शंभूसिंह को भी काका ही कहता था, मगर गौरांबर को बताने के लिए शंभूसिंह का नाम लिया। पुखराज के हाथ में लोहे के डिब्बे में पानी भरा देखकर गौरांबर भी उठ गया और दोनों साथ-साथ खण्डहर के पिछवाड़े से जाने वाली पतली-सी पथरीली पगडंडी पर चल पड़े। पुखराज आगे-आगे चल रहा था। सुबह का समय था, पर पहाड़ की तलहटी होने के कारण धूप अब तक न आयी थी। शायद सामने वाले पहाड़ की पीठ पर सेंक कर रहा था सूरज। पथरीले से उस मैदान में दूसरी दिशाओं से भी दो-चार लोग निवृत्त होने के लिए आ रहे थे।

थोड़ा आगे चलकर पुखराज ने एक बड़े-से पत्थर के पास पानी का डिब्बा टिकाया और बैठ गया। गौरांबर ने भी जलती हुई बीड़ी फेंक दी और पत्थर के दूसरी ओर घूमकर झुक गया।

पत्थर काफी बड़ा और चपटा-सा था, जिसके आर-पार से दोनों को एक-दूसरे का मुँह दिखाई दे रहा था। गौरांबर अब तक पुखराज से कुछ बोला नहीं था। पुखराज ने ही उससे पूछा-

''तुम शंभूसिंह काका के घर में ही रहते हो क्या?''

''हाँ, अभी थोड़े दिन से वहाँ रह रहा हूँ।''

''वैसे तुम्हारा घर कहाँ है?''

गौरांबर उस लड़के से उम्र में बड़ा था, परन्तु शायद उस लड़के पर कॉलेज में पढ़ने के कारण एक आत्मविश्वास-सा था। दूसरे उसका गाँव होने के कारण भी वह गौरांबर जैसे संकोच में नहीं था। इसी से वह गौरांबर को न केवल तुम कह कर सम्बोधित कर रहा था, बल्कि उससे सवाल पूछ रहा था। परन्तु गौरांबर को भी कल से अपना मौन खल रहा था। उसे अच्छा लगा लड़के का ये सब पूछना।          

गौरांबर ने अपने गाँव का नाम बता डाला और संक्षेप में यह भी बता डाला कि वह किस मकसद से अपना गाँव छोड़कर शहर में चला आया था।

जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, वहाँ लोगों की आवाजाही बढ़ती जा रही थी। वहाँ से निबट कर पुखराज गौरांबर को पास ही एक बावड़ी में ले गया। वहाँ दोनों ने स्नान किया। बावड़ी में और भी कई लोग नहा रहे थे। कुछ बच्चे तैर रहे थे। एक बड़ी-सी दीवार के पीछे बावड़ी का दूसरा हिस्सा था, जहाँ से औरतों और लड़कियों के नहाने, कपड़े धोने और बातें करने की मिली-जुली आवाजें आ रही थीं।

ताजादम होकर दोनों वापस कमरे में आये। गौरांबर ने यहाँ आकर कपड़े पहने और दोनों मन्दिर की ओर चल पड़े। पुखराज ने कमरे का दरवाजा भेड़ कर बन्द कर दिया और रास्ता बताने की मुद्रा में गौरांबर को साथ लेकर आगे-आगे चल पड़ा।

मन्दिर में इस समय काफी भीड़भाड़ थी। बूढ़ा, पुजारी जी के पास ही बैठा था। शंभूसिंह भी वहीं थे। कुछ देर बाद उन सभी ने पुजारी जी के घर में जाकर नाश्ता किया।

नाश्ते के बाद थोड़ी देर पतली गली के आगे वाले बाजार में टहल कर शंभूसिंह ने एक-दो दुकानें देखीं। बूढ़ा, पुजारी जी के घर से निकल कर वापस खण्डहर की तरफ से अपने कमरे की ओर चला गया।

उस इलाके में बड़ी चहल-पहल थी। दुकानों की साज-सज्जा और लोगों के उत्साह से इधर-उधर आने-जाने से लग रहा था कि जैसे मन्दिर में कई उत्सव होने वाला हो, जिसकी तैयारियाँ चल रही हों। शंभूसिंह से पूछने पर गौरांबर को पता चला कि मन्दिर में सात दिन तक लगातार कोई बड़ा अनुष्ठान अगले सप्ताह से शुरू होने वाला है। इसमें देश के कई हिस्सों से कई साधु-सन्तों के आने की सम्भावना थी। शंभूसिंह ने बताया कि वह बूढ़ा, जिसके साथ कमरे में वे लोग ठहरे हुए थे, बहुत नामी आदमी है और उससे मिलने के लिए दूर-दूर से कई लोग आते हैं। वह मन्दिर में होने वाले समारोह के लिए पुजारी जी को बहुत-सी बातों का निर्देश समय-समय पर दे रहा था। यह खुद गौरांबर ने भी देखा था। पुखराज ने उसे बताया था कि यह समारोह नौ वर्षों में एक बार हो रहा था। जब ये समारोह होता था तो मन्दिर के आस-पास का दो किलोमीटर तक का इलाका कारों, बसों और ताँगों आदि से भर जाता था। मन्दिर के सामने के कई दुकानदार अपने घरों के कमरे धर्मशालाओं के रूप में बदल देते थे। आने वाले लोगों के खाने-पीने की व्यवस्था कई लोग स्वेच्छा से अपने स्रोतों से करते थे। मन्दिर का अपना भी बड़ा ट्रस्ट था। दायीं ओर के बड़े से मैदान में शामियाने और टैंट लगाकर लोगों के ठहरने की व्यवस्था की जाती थी। लोगों में इतना जोश और आस्था दिखायी देती थी कि किसी मेले का-सा दृश्य उपस्थित हो जाता था। 

शंभूसिंह उस आयोजन के बाबत बात करते हुए उत्तेजित हो जाते थे। कहते थे, ''देखो, लोग बिना किसी के बताये, बिना किसी से पूछे अपने आप सब कर रहे हैं। अपने पास से अपनी-अपनी शक्ति भर पैसा बिना माँगे दे रहे हैं। यहाँ जबरदस्ती गुण्डागर्दी से वसूल कर लाया गया चन्दा नहीं आता। यहाँ सरकारी दफ्तरों और स्कूलों में छुट्टी करवाकर भीड़ नहीं जुटायी जाती। यहाँ पर सरकारी पेट्रोल फूँक-फूँककर ट्रकों और बसों से, लोगों को जबरदस्ती नहीं लाया जाता। टैंटों में छिप-छिपाकर दारू की बोतलें सप्लाई नहीं की जातीं। खादी के कपड़े लपेट-लपेट कर रखैलें नहीं आतीं। और हरामी के पिल्ले कहते हैं, राजनीति से धर्म को अलग करेंगे। अरे कम्बख्तो, तुम्हें अधर्म खत्म करने के लिए वोट देती है जनता, धर्म खत्म करने के लिए नहीं..

सत्रह बार पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को हराया और हर बार इंसानियत के नाते क्षमा करके छोड़ा। और जब अठारहवीं बार नसीब से मोहम्मद गौरी जीता, तो दरिंदे ने उसके प्राण लेने की ठान ली। गुण्डों और रण्डीबाजों को तो अपने बाहुबल पर भी भरोसा नहीं रह जाता, कमीनों को विधेयकों का सहारा लेना पड़ता है। देश को खोखला कर दो। अपने लोगों के दिमागों को खोखला कर दो। तब शाबासी देकर विदेशी पीठ ठोकेंगे ही। आयेगा विदेशी पैसा देश में। खूब आयेगा। क्यों नहीं आयेगा, जब यहाँ आकर ही वह दुगना-चौगुना होता है। दो मुट्ठी गेहूँ और बीड़ी के बण्डल में सारा दिन पत्थर खोदने वाले सुदामा और कहाँ मिलेंगे? दारू की बोतलों में फर्जी डिग्रियाँ और लाइसेंस कहाँ बनेंगे? बहन-बेटी की अँगुली पकड़ा कर ठेके कहाँ मिलेंगे? अपनी गायों को अकाल से मरने दो, कटने दो। उनके दूध, मट्ठे के लिए यहाँ बाजार नहीं है। विदेशी नशीले शरबतों के लिए बाजार ही बाजार है। आयुर्वेद ने सैकड़ों, एक से एक नायाब शरबत दिये हैं, जिनके नाम दो-चार वैद्य-हकीमों को ही याद हैं, उनके लिए बाजार की जरूरत नहीं है, प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है। कोकाकोला और शराबें चाहिये, क्योंकि उन्हें बनाने वाले अस्सी करोड़ लोगों का खून चूसकर अस्सी तिजोरियों में खजाना भेजेंगे।

शंभूसिंह जब बोलते थे तो बोलते चले जाते थे। और गौरांबर शब्दों को न समझे, सुर के उतार-चढ़ाव को न समझे, बात का आशय जरूर समझ जाता था।

दोपहर को शंभूसिंह बूढ़े संन्यासी के साथ फिर कहीं बाहर चले गये और खाना खाकर गौरांबर गहरी नींद सो गया। इतनी गहरी नींद कि एक बार पुखराज देखने आया तो दो-चार आवाजें देकर वापस चला गया।

आज सोते समय न जाने क्यों गौरांबर को अपने गाँव की याद बेतहाशा आ रही थी। उसे उस लड़की का चेहरा भी बार-बार याद आ रहा था, जिसे बीमार बूढ़े बाप के साथ, उसकी रोजी-रोटी को भी मुसीबत में डालकर गौरांबर गाँव में ही छोड़ आया था। लड़की का चेहरा बार-बार उसकी नजरों के सामने आता था। गौरांबर ने गाँव में रहते समय कभी उस लड़की को प्यार नहीं किया था। कमरे में उसके बाप के न रहने पर एकाध बार हाथ-वात पकड़ लेना प्यार नहीं होता। फिर प्यार क्या होता है? क्या प्यार वो होता है जो नरेशभान सरस्वती को कोठी में लाकर उसके साथ करना चाहता था। नहीं, प्यार वह होता है जो गाँव छोड़ने के बाद गौरांबर को गाँव की याद दिलाता रहा। प्यार वो होता है जो सारा दिन गौरांबर से एक अपरिचित बूढ़े का रिक्शा चलवाता रहा। सचमुच उसे उस लड़की से प्यार था। यदि वह लड़की खुद एक बार भी उससे कह देती कि वह गौरांबर को प्यार करती है तो शायद गौरांबर ने भी उस नजर से उसे देखा होता। सरस्वती की भाँति किसी मजबूरी में नहीं, बल्कि अपने दिल से वह लड़की कहती है कि वह गौरांबर को चाहती है, तो वह शायद जान जाता कि प्रेम किसे कहते हैं। और देर रात को सपने के किसी अंश में शायद लड़की ने सोते हुए गौरांबर को यह कह दिया कि वास्तव में वह उससे प्रेम करती है और तब गौरांबर के मन में कोई दुविधा न रही। उसने हरियाले बगीचे में खड़े होकर फूलों की एक डाली पकड़ ली। और फूल झरा-झरा कर उस पर बैठी तितली को उड़ाने लगा। बड़ी ढीठ तितली थी। उसने भी गौरांबर को खूब छकाया। खूब सताया। किसी फूल के पराग कणों से जैसे चिपकी बैठी रही।

और तभी, जब पुखराज शरबत का गिलास लेकर आया, तो आश्चर्य से गौरांबर को देखता रहा। दो-एक आवाज के बाद गौरांबर उठ तो गया, पर उठते ही अपनी हालत पर खुद उसे भी झेंप हुई। उसने पहले खड़े होकर पुखराज की ओर पीठ किये-किये खिड़की के पास आकर अंगड़ाई-सी ली, तब जाकर लिया शरबत का गिलास। और पुखराज के जाने के बाद दरी पर वापस बैठकर गौरांबर शरबत पीने लगा।

अगली सुबह शंभूसिंह और गौरांबर को वापस अपने गाँव लौटना था। शाम को गौरांबर अकेला ही कस्बे के बाजार की ओर घूमने के इरादे से निकल गया।

रात का खाना खाने के लिए जब पुजारी का लड़का मेहमानों को बुलाने आया, तो गौरांबर तब तक वापस नहीं लौटा था। शंभूसिंह और बूढ़ा आदमी बैठे हुए बातें कर रहे थे। पुखराज को उन्होंने वापस भेज दिया और वे दोनों गौरांबर की प्रतीक्षा करने लगे।

देखते-देखते रात के ग्यारह बज गये। लेकिन गौरांबर अब तक वापस नहीं आया था। अब शंभूसिंह को चिन्ता होने लगी। क्या हुआ, कहाँ चला गया लड़का। कुछ कहकर भी नहीं गया। बूढ़ा चुप होकर बैठ गया। पर शंभूसिंह की चिन्ता समय के साथ-साथ बढ़ती ही जा रही थी। पुखराज दो बार खाने के लिए कहने आ चुका था। शंभूसिंह ने पुखराज से भी पूछा-

''तुमसे कुछ कहा था क्या उसने? कहाँ चला गया। यहाँ तो कोई उसका जानने वाला भी नहीं था।''

बूढ़े ने अपना मौन तोड़ा। भारी-सी आवाज में बोला, ''पुलिस से भागा हुआ लड़का था, कहीं निकल तो नहीं गया।''

''नहीं-नहीं, ये कैसे हो सकता है!'' 

''हो क्यों नहीं सकता! पुलिस उसे ढूँढ़ रही होगी, ये तो वो जानता ही है।''

''पर वह भागा हुआ नहीं है। मैंने भगाया है उसे, मैंने। वह मुझे बताये बिना, मुझे छोड़कर नहीं जा सकता।'' शंभूसिंह उत्तेजित होकर कह रहे थे। उनके मुँह से ऐसी बात सुनकर पुखराज की आँखें डर से फैल गयीं। उसको इन लोगों की इस सच्चाई का पता न था। उसे इस बात का जरा भी आभास न था कि जिन लोगों को पिता का मेहमान समझ कर वह दो दिन से आवभगत कर रहा है, वे इस तरह पुलिस और अपराध से जुड़े हुए लोग हैं। वह वहाँ जरा देर भी नहीं ठहरा। वह घर लौट गया और वहाँ भी भयवश उसने किसी से कुछ नहीं कहा। उसे यह जानने की जिज्ञासा थी कि उसके पिता उन लोगों का राज जानते हैं अथवा नहीं। 

उसने जाकर पिता को सिर्फ इतना बताया कि वह लड़का अभी तक लौट कर नहीं आया है, इसलिए काका खाना खाने नहीं आ रहे हैं। यह सुनकर पुजारी जी भी चिन्तित हो गये और झटपट जूते पहनकर खण्डहर की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने पुखराज को भी साथ आने के लिए आवाज दी। पुखराज कमरे में जाकर पायजामा उतार, खूँटी पर टाँग चुका था। पिता की बात सुनकर बेमन से उसी तरह चप्पल पहनकर उनके पीछे दौड़ गया।   

तीनों लोग किसी मंत्रणा में व्यस्त थे। पुखराज ने देखा कि उसके पिता भी उन लोगों की सच्चाई से परिचित  थे, क्योंकि उनकी उपस्थिति में भी उसी तरह की बातें हो रही थीं। उसका भय जरा कम हुआ और वह खिड़की में पैर लटका कर बैठा उनकी बातें सुनने लगा।

''क्यों रे, कुछ बोल-बता के गया है क्या छोकरा? यहाँ कहाँ जा सकता है।'' बूढ़ा बोला।

''मुझे तो कुछ नहीं मालूम।''

''इतनी रात तक तो कहीं बाहर रहने का सवाल ही नहीं है। और बिना कहे लड़का कहीं जाता है नहीं। यहाँ वैसे भी इस समय कौन-सी जगह है जहाँ जायेगा!''

''इसे भेजो, छोकरे को, एक चक्कर लगाकर देख आयेगा।'' 

बूढ़े का यह कहना पुखराज को बिलकुल नहीं भाया। भला इतनी रात को वह उसे कहाँ ढूँढ़ने जायेगा। और उसकी असलियत सुन लेने के बाद तो पुखराज को उससे डर ही लगने लगा था। पुखराज उस बात का कोई जवाब दिये बिना उसी तरह बैठा रहा।

''जा बेटा, चौराहे वाले होटल तक देख आ जाकर।''

''अकेला..'' पुखराज ने अनिच्छा से कहा।

''तो क्या दस-बीस को लेकर जायेगा।''

''मैंने कपड़े भी उतार दिये।'' पुखराज ने जाने से बचने का एक बहाना और किया।

''अरे बेटा, जा भागकर देख आ ऐसे ही। चड्डी बनियान पहने तो है, नंगा थोड़े ही है।'' बूढ़े ने कहा, ''हो सकता है, खाना-पीना पसन्द नहीं  आया हो तो होटल में कुछ खाने-पीने बैठ गया हो।'' फिर एकाएक शंभूसिंह की ओर मुखातिब हुए, बोले—''मांस-मच्छी खाता है क्या?''

''क्या पता! और खाता होगा तो भी अब तो इतनी देर हो गयी, उसे आ जाना चाहिये।''

पुखराज अब तक उसी तरह बैठा हुआ था। उठ कर गया न था। इतनी रात को अकेले उसकी इच्छा सारे बाजार की सड़क पार करके चौराहे तक जाने की नहीं थी। उसे बैठा देखकर पुजारी जी भाँप गये कि उसकी जाने की इच्छा नहीं है। अत: बोले,

''आओ, मैं ही देख आऊँ उसे।''

''अरे, अब आप कहाँ जायेंगे इतनी रात में। मैं ही एक चक्कर लगा आता हूँ। वैसे इतनी रात में मुझे उम्मीद तो नहीं है कि वह ऐसे कहीं बैठा मिलेगा। जरूर कोई बात ही हो गयी है उसके साथ।''

पहले पिता को, फिर शंभूसिंह को जाने के लिए उठते देखकर, पुखराज को संकोच-सा हुआ और वह इच्छा न होते हुए भी कूदकर खिड़की से उतरता हुआ बोला, ''मैं जाता हूँ।'' 

पुजारी जी उत्साहित हो गये, ''हाँ बेटा जा, एक चक्कर चौराहे पर लगा लेना और अच्छी तरह देखकर आना। वहाँ न दिखे तो उसे कलाल के पिछवाड़े ठेके पर देखते आना।''

''अरे बेचारे बच्चे को अकेले रात में दारू के ठेके पर कहाँ भेज रहे हो आप।''

''अजी, अब कोई छोटा थोड़े ही है? इस साल कॉलेज में आ गया है।''

''और अब देश तरक्की करता जा रहा है, तो यही सब देखना पड़ेगा बच्चों को। विकास के लिए सरकारी बोर्ड जिस जगह लगता है वहाँ सबसे पहले दारू के ठेके ही खुलते हैं।'' बूढ़े की इस गम्भीर व्यंग्योक्ति ने सबको चुप करके वातावरण को गम्भीर कर दिया। 

''अजी पहले भी होता था, पर बेहयाई का ऐसा खुला नाटक कभी नहीं हुआ। बच्चे सड़कों पर गुब्बारे की तरह निरोध को फुलाते घूमते हैं।''

''चलो जी, अच्छा है, आबादी तो नहीं बढ़ेगी।''

''आबादी की ऐसी रोक भी तो खतरनाक है। धरती पर सौ इंसान हों तो किसी तरह गुजर-बसर कर ही लेंगे, पर सौ की जगह पचास राक्षस हो गये तो धरती को पलीता लगाकर प्रलय लायेंगे ही। कुत्ते-बिल्ली और आदमी में कोई तो फर्क बचे। पहले बच्चा जब तक पन्द्रह-सोलह साल का होकर चड्डियाँ नहीं भिगोने लगता था, तब तब उसे सिर्फ यही मालूम रहता था कि वह भगवान के घर से माँ-बाप की गोद में आया हुआ है। उसे जीवन में, संस्कारों में एक आस्था रहती थी। आज पाँच साल की उमर से ही बच्चे देखेंगे कि वे माँ-बाप के कैसे करम से निकले हैं, तो अपना क्या तो मोल जानेंगे और जीवन में किस चीज में आस्था या श्रद्धा रखेंगे। क्या जीवन मूल्य रह जायेंगे उनके। जवान होते-होते हर मादा की टाँगें सूँघना ही सीखेंगे। इन हालात से तो औरत का माँ-बहन के रूप में भी घर पर ही सुरक्षित रह पाना ही मुश्किल हो जाने वाला है दो-चार सालों में।'' 

गम्भीर चर्चा के दौरान ही शंभूसिंह की निगाह रह-रहकर घड़ी पर जा रही थी। पुखराज अब तक वापस नहीं लौटा था। भूख-प्यास सब भूल गये थे वे। 

मन-ही-मन एक अजब विचार शंभूसिंह के दिमगा में आने लगा था। वह अब मन-ही-मन पछताने लगे थे कि उन्होंने गौरांबर को अब तक स्पष्ट कुछ नहीं बताया है और वह रहस्यमय ढंग से उससे कुछ माँगने का इशारा बार-बार करते रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि गौरांबर यहाँ की बातचीत व वातावरण से नरबलि आदि की किसी बात की कल्पना कर बैठा हो, और इसीलिये चुपचाप भाग निकला हो।

अपने इस ख्याल पर मन-ही-मन उन्हें आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आयी। नहीं-नहीं, ऐसा कैसे सोच सकता है गौरांबर। मैंने उसकी जान बचायी है, खरीदी नहीं। पर आदमी के मन की थाह कौन ले सकता है। किसी के द्वारा कुछ भी सोचने पर क्या पाबंदी लगायी जा सकती है।

शंभूसिंह ने तो अपनी ओर से अभिमन्यु के बारे में भी उसे कुछ नहीं बताया था। इतना गम्भीर और दिल दहलाने वाला हादसा वह उससे छिपा गये थे। उन्होंने तो उसे बस यह समझा दिया कि अभिमन्यु परदेस चला गया है। पर इस बात से शंभूसिंह भी अवगत नहीं थे कि बूढ़े संन्यासी ने गौरांबर को अभिमन्यु के बारे में सब बता दिया है। अभिमन्यु के अंग पर लगे अंगारों ने शंभूसिंह की वंश बेल को जला डाला है, यह भी जान चुका था गौरांबर।

कुछ भी हो, इस तरह वह शंभूसिंह को छोड़कर जा नहीं सकता। यदि उसे यह अंदेशा हो गया है कि शंभूसिंह अपनी रंजिश में उसे मोहरा बनाने के लिए परोस रहे हैं तो भी वह ऐसा लड़का है नहीं कि घबराकर पीछे हट जाये। पर जान किसे प्यारी नहीं होती। साठ-सत्तर-अस्सी साल दुनिया में, जिस तरह भी हो, रहकर जब आदमी के जाने की बेला आती है तो आदमी यही चाहता है कि मौत टल जाये। फिर गौरांबर ने जिन्दगी में अभी देखा ही क्या है। उसकी उम्र ही क्या है। हो सकता है, खतरा टलने के बाद जिन्दगी से मोह पनप गया हो। क्या नहीं हो सकता दुनिया में।

बातें और चिन्ता के बीच पुजारी जी को यह ध्यान नहीं रहा कि उन लोगों ने अब तक रोटी नहीं खायी है। अब इंतजार करते-करते उकताकर शंभूसिंह व पुजारी जी उठकर कमरे से बाहर चले आये। बूढ़ा वहीं लेट गया।

कमरे से बाहर निकलते ही हवा के तेज झोंके ने शंभूसिंह के चेहरे पर दस्तक दी। पीछे-पीछे पुजारी जी भी बाहर निकले। और दोनों बातें करते-करते पतली पगडण्डी से होकर मन्दिर की तरफ आने लगे। सड़क की बत्तियों को छोड़कर सभी लाइटें बुझ चुकी थीं। बाजार के आसपास की घनी बस्ती में सभी खिड़की दरवाजे बंद हो चुके थे। कुछ-एक लोग कहीं-कहीं दुकानों के बाहर बरामदों में या किसी खुली जगह में सोये हुए दिखायी दे जाते थे। सड़क पर बिलकुल सुनसान था। 

पुखराज को गये काफी देर हो गयी थी। अब पुजारी जी के मन में थोड़ी-थोड़ी चिन्ता के साथ डर भी व्यापने लगा था। चारों ओर खोजी नजर दौड़ाते हुए ढलान वाली सड़क पर शंभूसिंह व पुजारी जी चलने लगे। दूर-दूर तक किसी चलते-फिरते आदमी का कोई साया तक नहीं दिखायी दे रहा था। कभी-कभी बीच में कहीं से कुत्तों के भौंकने का स्वर ही सुनाई दे जाता था।

बातें करते-करते वे दोनों चौराहों तक चले आये। चौराहे से बायीं ओर मुड़ कर जरा दूरी पर जो होटल था, वह भी अब तक बंद हो चुका था। वहाँ कोई नहीं था। केवल होटल में काम करने वाले एक-दो लोग बाहर सोये हुए थे। दूर-दूर तक हिलता-डुलता कोई साया भी कहीं नजर नहीं आ रहा था। इस इलाके में तो वैसे भी रात को जल्दी ही चहल-पहल खत्म हो जाती थी, क्योंकि मंदिर के कारण सुबह बहुत दिन-अँधेरे ही हलचल शुरू हो जाती थी। बावड़ी की ओर नहाने-धोने वाले और मन्दिर के दर्शन करने वाले लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती थी। कहीं किसी दुकानादि के खुला होने का सवाल ही नहीं था।

शंभूसिंह ने पूछा, ''रात को यहाँ से कोई गाड़ी निकलती है क्या?''

''गाड़ी तो रात को साढ़े तीन बजे कोटा के लिए जाती है, परन्तु स्टेशन तो यहाँ से सोलह किलोमीटर दूर है।'' पुजारी जी ने जवाब दिया।

लेकिन अब उन दोनों की चिन्ता यह देखकर और भी बढ़ गयी थी कि गौरांबर के साथ-साथ पुखराज भी अब तक नहीं लौटा। वह कहाँ उसे ढूँढ़ने चला गया।

शंभूसिंह को अब यह आशंका होने लगी थी कि गौरांबर या तो स्टेशन की ओर निकल गया या फिर आते-जाते ट्रक में बैठ गया। अब दोनों की मुख्य चिन्ता पुखराज को तलाश करने की थी। 

लेकिन तभी शंभूंसिंह लगभग चीख ही पड़े। दाहिनी ओर सड़क के किनारे गौरांबर गिरा पड़ा था। उसके पास दौड़कर दोनों लोग पहुँचे और उसे उठाने की कोशिश की। गौरांबर के मुँह और शरीर पर की चोटों से खून रिस रहा था। पुजारी जी ने शंभूसिंह की मदद की, उसे उठाने और सहारा देकर सड़क तक लाने में। शायद गौरांबर आते-जाते किसी तेज वाहन की चपेट में आ गया था।

और सुबह ही शंभूसिंह को पुजारी से पता चला कि पुखराज गौरांबर को ढूँढ़ने गया ही नहीं, सीधा घर जाकर सो गया था।