Dwaraavati - 76 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 76

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द्वारावती - 76



76

उत्सव का चित्त प्रसन्नता से भर गया। मृत्यु से पूर्व जो जीवन होता है उसे वह अनुभव करने जा रहा था अतः मन में अनेक तरंगें उठ रही थी। वाराणसी की वीथियों में संध्या ढल चुकी थी। भगवान सदाशिव के दर्शन हेतु भक्तों की भीड़ थी। नगर में उत्साह दिख रहा था। उत्सव को प्रथम बार वाराणसी के जीवन में ऊर्जा का दर्शन हुआ। 
‘यहां मृत्यु से पूर्व का जीवन भी है, मोक्ष भले ही हो। वाराणसी के जीवन को आज में नूतन दृष्टि से देख रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ। मृत्यु तथा मोक्ष के लक्ष्य के कारण मैंने कभी इस जीवन पर ध्यान ही नहीं दिया। मुझे इस जीवन को तटस्थता से ही देखना होगा। एक एक व्यक्ति के भावों का अनुभव करना होगा।’
उत्सव सभी का अवलोकन करने लगा। 
‘कितने जीवन से भरे हैं यह सभी। यदि यहां भी जीवन है तो मुझे मथुरा जाने की क्या आवश्यकता?’ उत्सव ने स्वयं को प्रश्न किया। उत्तर भी स्वयं ने ही दिया, ‘आज तक जहां तुम्हें जीवन दृष्टिगोचर नहीं था वहाँ तुम्हें आज जीवन दिख रहा है? तुम्हारे मन में इस नगर के प्रति आसक्ति भी प्रकट हो रही है, उत्सव?’
‘नहीं, नहीं। आसक्ति नहीं है मुझे। किंतु ….।’
‘किंतु कुछ नहीं। तुम्हें मथुरा जाना होगा। यही तुम्हारी नियति है।’
‘यहां भी तो ….।”
‘यहां तुम जो देख रहे हो वह क्षणिक है, स्थायी नहीं। यहां जीवन की जो ऊर्जा तुम देख रहे हो वह प्रवासियों के कारण है, जो आभासी है। यहां तो मृत्यु ही शाश्वत है। शाश्वत जीवन का अनुभव करने हेतु तुम्हें इस नगरी का त्याग करना होगा। मथुरा जाना होगा।’
उत्सव ने इन शब्दों को मन का आदेश मान लिया। सभी तर्क त्याग दिए। मथुरा जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वह वीथिका में चलने लगा। मिष्टान्न की एक दुकान पर रुका, “कुछ मीठा खिला दो।”
दुकानदार उत्सव की वेश भूषा देखकर बोला , “महाराज, यहां नि:शुल्क कुछ नहीं मिलेगा। धन तो हैं ना आपके पास?”
उत्सव हंस दिया। उसने धोती में से पाँच सौ रुपए निकालकर दुकानदार के सम्मुख रख दिए। दुकानदार को अपने बर्ताव पर क्षोभ हुआ। 
“क्षमा करना मेरी धृष्टता को, महाराज। क्या खाओगे?”
“कुछ भी।”
एक पात्र में उसने मिठाई उत्सव को दी। उत्सव मिठाई लेकर चलने लगा। 
“महाराज, रुको।” उत्सव ने उसे प्रश्नभरी दृष्टि से देखा। 
“महाराज, मुझे पैसे नहीं चाहिए। आप इसे ले लो।”
“अरे भाई, रख लो। नि:शुल्क खाना नहीं चाहिए।”
“महाराज, आप तो ….।”
“अरे छोडो, उसे रख लो।” उत्सव ने स्मित दिया।
“किंतु महाराज, यह तो इसके मूल्य से कहीं अधिक है। बाक़ी पैसे तो लेते जाओ।”
“कोई बात नहीं तुम उसे रख लो।”
“यह तो अनुचित है। मैं नहीं रख सकता।”
“यदि कभी कोई साधु तुम्हारी दुकान पर आ जाए और मीठा खाने की इच्छा प्रकट करे तो इस बची राशि में से उसे खिला देना।”
एक मोहक स्मित देते हुए उत्सव वहाँ से चल दिया।
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