Dwaraavati - 80 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 80

Featured Books
  • فطرت

    خزاں   خزاں میں مرجھائے ہوئے پھولوں کے کھلنے کی توقع نہ...

  • زندگی ایک کھلونا ہے

    زندگی ایک کھلونا ہے ایک لمحے میں ہنس کر روؤں گا نیکی کی راہ...

  • سدا بہار جشن

    میرے اپنے لوگ میرے وجود کی نشانی مانگتے ہیں۔ مجھ سے میری پرا...

  • دکھوں کی سرگوشیاں

        دکھوں کی سرگوشیاںتحریر  شے امین فون کے الارم کی کرخت اور...

  • نیا راگ

    والدین کا سایہ ہمیشہ بچوں کے ساتھ رہتا ہے۔ اس کی برکت سے زند...

Categories
Share

द्वारावती - 80


80

उत्सव जहां खड़ा था वह गोवर्धन परिक्रमा का प्रारम्भ बिंदु था। इस यात्रा के विषय में किसी ने उसे कहा था,
“यह बाईस किलोमीटर लम्बी गोवर्धन परिक्रमा का विशेष महत्व है। दिवस रात्रि चलती रहती है। अब यहाँ तक आ गए हो तो परिक्रमा करके ही जाना।”
उस बात को मानते हुए उत्सव ने गोवर्धन परिक्रमा करने का निश्चय कर लिया। मन में थोड़ी श्रद्धा, थोड़ी जिज्ञासा, थोड़ा कौतुक लेकर वह परिक्रमा के प्रारम्भ बिंदु पर आ गया। 
‘बाईस किलो मीटर का अंतर, सीधे एवं सरल मार्ग पर। यदि एक घंटे में छः किलोमीटर चलूँगा तो भी चार घंटे में सम्पन्न हो जाएगी।’ मन में गणना करने के पश्चात वह चलने लगा। 
उत्सव युवा था, योगी था, ब्रह्मचारी था, हिमालय के पहाड़ों में चलने का अनुभव रखता था अतः उसकी गति द्रुत थी। वह चलता जा रहा था, भक्तों को देखते जा रहा था। भक्त भी उसे ही देखते थे क्यों कि वह सबसे अधिक गति से चल रहा था। सब को पीछे छोड़ता जा रहा था।
दस बारह मिनट चलने पर उसने एक दृश्य देखा। दो पुरुष एवं दो स्त्री, मार्ग पर दंडवत करते करते परिक्रमा कर रहे थे। वह क्षणभर रुका। उनकी चेष्टाओं को देखने लगा। 
उन चार व्यक्तियों के साथ चार और व्यक्ति थे जो एक एक के सहायक के रूप में साथ चल रहे थे। सहायक मार्ग पर एक कम्बल बिछा देता था। भाविक उस पर लेटकर दंडवत करता था। उठ जाता था। तब तक सहायक उस कम्बल से आगे दूसरा कम्बल लगा देता था। भाविक उस नए कम्बल पर दंडवत करता था। सहायक पिछला वाला कम्बल उठाकर उसे आगे बिछा देता था। भाविक उस पर दंडवत करता था। 
इस प्रकार चारों भक्तों की दंडवत परिक्रमा आगे बढ़ रही थी। उत्सव उस परिक्रमा को देख रहा था। वह परिक्रमा अत्यंत मंथर गति से चल रही थी। उसका ध्यान सहायक पर पड़ा, उसने चरणों में पादुका नहीं पहनी थी। उत्सव ने भाविक को देखा। उसने भी नहीं पहनी थी। 
उत्सव सोचने लगा,’इतना कष्ट क्यों भोग रहे हैं यह यात्री?’ उसे कोई उत्तर नहीं सूझा। वह उन्हें वहीं छोड़ आगे बढ़ गया। किंतु मन का प्रश्न पीछे खींच रहा था। दो मिनट चलते ही वह दंडवत कर रहे परिक्रमावासियों के पास लौट आया। 
“आप कुछ समय विश्राम कर लीजिए। सहायक के रूप में मैं काम कर लेता हूँ।” उत्सव ने प्रस्ताव रखा।
“नहीं महाराज, यह सम्भव नहीं है। आप के इस प्रस्ताव से हमें प्रसन्नता हुई। इससे हमें एक नयी ऊर्जा मिली है। प्रतीत होता है कि आप के रूप में कृष्ण हमारी परीक्षा लेने आया है। किंतु क्षमा करें कृष्ण। हम आपका सहयोग नहीं ले सकते। धन्यवाद।” सहायक ने हाथ जोड़े।
‘मैं कृष्ण? इस रूप में मैं इनकी परीक्षा लेने आया हूँ? बड़े ही चतुर हैं तेरे भक्त, तेरी ही भाँति, कृष्ण।’ सहायक की बात पर वह हंस पड़ा। उसने हाथ जोड़े, स्मित के साथ उनसे विदाय ली। 
वह परिक्रमा मार्ग पर चलता रहा, सबको पीछे छोड़ता हुआ वह आगे बढ़ गया। दंडवत परिक्रमा करते अनेक श्रद्धालुओँ को उत्सव ने परिक्रमा मार्ग पर देखें। 
‘इस प्रकार परिक्रमा करने में कितना समय लग सकता है?’ वह गणना करने लगा। किंतु उसका गणित उस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। 
“आप यह दंडवत परिक्रमा कितने समय में पूर्ण कर लोगे?” उत्सव ने किसी भाविक से पूछा। 
“यदि सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहा तो दस से बारह महीनों में यह पूर्ण हो जाएगी।”
“क्या कुछ असामान्य भी घट सकता है इस परिक्रमा में?”
“सम्भव है। इस प्रक्रिया में शरीर का साथ देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। कुछ दिवसों के पश्चात शरीर थक जाता है। अत्यंत पीड़ा करने लगता है। ऋतु परिवर्तन भी होता है। कुछ भी हो सकता है। जो सामान्य नहीं है।”
“एक वर्ष तक आप अपने परिवार से, अपने कार्यों से दूर कैसे रह पाओगे?”
“श्रद्धा। श्रद्धा ही हमसे यह सब सम्भव करवाती है। जय श्री कृष्ण। जय श्री कृष्ण। राधे राधे।”
उसने उत्सव को उत्तर दे दिया। उत्सव भी कृष्ण नाम जपता हुआ मार्ग पर आगे बढ़ गया। 
मार्ग में उसने अनेक दंडवत परिक्रमावासियों को देखा। प्रथम बार देखने पर जो घटना उत्सव को आश्चर्य लगी थी वह घटना अब उसे सहज लगने लगी। 
‘मन भी कैसा है? बातों को कितनी सहजता से तथा शीघ्रता से स्वीकार कर लेता है?’ अधरों पर स्मित लिए वह आगे बढ़ता गया। 
आगे मार्ग में उसने एक और नया कौतुक देखा। एक व्यक्ति अपने कम्बल पर बार बार दंडवत कर रहा था, एक ही स्थान पर। दंडवत के पश्चात वह आगे नहीं बढ़ रहा था। कम्बल पर एक बड़ी रुद्राक्ष की माला पड़ी थी। जब भी वह दंडवत करता था, एक सहायक उस माला के एक रुद्राक्ष को आगे कर देता था। उत्सव ने माला का निरीक्षण किया। “कितने रुद्राक्ष हैं इस माला में?” उत्सव ने सहायक से पूछा।
“पूरे एक सौ आठ।”
“अर्थात् एक ही स्थान पर वह एक सौ आठ बार दंडवत करेंगे?”
“हाँ। जब एक सौ आठ बार पूर्ण हो जाएगा तब वह एक कम्बल आगे बढ़ जाएँगे।”
“इस स्थिति में, इस प्रकार बाईस किलोमीटर की परिक्रमा पूरी करेंगे?”
“हाँ।”
“क्या?” उत्सव चकित रह गया।
“इसमें चकित होने की क्या बात है? इस मार्ग पर आपको ऐसे अनेक परिक्रमावासी मिलेंगे।”
“यह बात इतनी सहज है? आपके लिए अवश्य होगी। किंतु मैंने ऐसा कभी नहीं देखा।”
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।” सहायक ने सस्मित उत्तर दिया।
“इस प्रकार परिक्रमा करते करते अत्यंत समय लग जाएगा।”
“ज्ञात है हमें। लगने दो जितना समय लगे। किंतु परिक्रमा इसी प्रकार पूर्ण करनी है।”
“आप के अनुसार कितना समय लग सकता है?”
“ऐसी कोई गणना नहीं की है हमने और ना ही ऐसी कोई इच्छा है।”
“ऐसे तो पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा।”
“तो क्या हुआ?”
“इसी परिक्रमा मार्ग पर ही जीवन का ….।” उत्सव ने आगे के शब्द रोक दिए।
उस सहायक ने उत्सव के नहीं बोले गए शब्द को पूरा करते हुए कहा, “जीवन का अंत हो गया तो? यही पूछना चाहते हो ना?”
उत्सव ने सहमति में स्मित दिया। सहायक आगे बोला, “यही तो मनसा है कि इस मार्ग पर ही जीवन का अंत हो जाए। इससे सुंदर मृत्यु क्या होगी, महाराज? ऐसा जिसके साथ होता है उसकी मृत्यु महोत्सव बन जाती है।”
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण।” उत्सव अनायास ही बोल पड़ा। उत्सव के पास अन्य कोई शब्द नहीं थे बोलने के लिए, ना ही ऐसी कोई इच्छा थी उसकी। कृष्ण नाम जपता हुआ वह किसी एक वृक्ष की छाँव में बैठ गया। 
उत्सव ने आँखें बंद कर ली। परिक्रमा के मार्ग पर जो घटनाओं का उत्सव साक्षी बना उससे वह विचलित हो गया। उसे स्मरण हो आया कि कुछ ही समय पूर्व उसने अपनी परिक्रमा के समय की गणना की थी। 
‘मैं सोचता था कि चार घंटे में परिक्रमा पूर्ण कर लूँगा। और यहाँ भक्तों को ऐसी किसी गणना में कोई रुचि नहीं है। पूरा जीवन इस मार्ग पर व्यतीत हो जाए, मृत्यु मिल जाए तो भी कोई चिंता नहीं। 
मेरे पास कोई दायित्व नहीं है जिसके कारण मुझे परिक्रमा पूर्ण करने की शीघ्रता हो। तथापि मैं चार घंटे में इसे पूर्ण करने की मनसा रचता हूँ। एक सन्यासी ऐसी गणना में लग जाता है। यह सभी भक्त में से कोई कोई भी मेरी भाँति सन्यासी नहीं है। सभी समाज से जुड़े, परिवार से जुड़े गृहस्थ प्रतीत हो रहे हैं। तथापि उन्हें कोई शीघ्रता नहीं है। तो मैं क्यों शीघ्रता मैं हूँ? मैं क्यों इस परिक्रमा को चार घंटे में पूर्ण करना चाहता हूँ?’ अपने ही प्रश्नों के उत्तर उत्सव के पास नहीं थे। 
उसने निश्चय कर लिया, ‘मैं इस प्रकार बावरा बनकर परिक्रमा नहीं करूँगा। यदि मेरा उद्देश्य कृष्ण का अनुभव करना है तो मुझे अपने उतावलेपन को त्यागना होगा, स्थिर होना होगा। यहाँ के प्रत्येक कण से जुड़ना होगा, प्रत्येक क्षण में उतरना होगा।’
उत्सव वहीं रुक गया, गति को विराम दे दिया। 
चार घंटों में परिक्रमा पूर्ण करने की मनसा रखते हुए चलने वाला उत्सव चार वर्ष होने पर भी परिक्रमा पूर्ण नहीं कर सका।