Chouboli Rani - 8 in Hindi Thriller by Salim books and stories PDF | चौबोली रानी - भाग 8

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चौबोली रानी - भाग 8



 सम्राट विक्रमादित्य ने कहा - "हे ज्योतिपुंज, अय रजनी के साथी दीप! मैं तुमसे बात करना चाहता हूं, आवश्यक होने पर उत्तर देना, रात लम्बी है, मैं कहानी सुनाना चाहता हूं, कहानी के अंत में प्रश्न करूंगा तुम उत्तर देना.

        रानी लीलावती सोचने लगी, सुंदरता में विवेक हो यह आवश्यक नहीं है, देखने में तो यह पुरुष सुंदर और प्रतिभाषाली लगता है किन्तु निर्जीव दीप से बात करना चाहता है और उत्तर की भी अपेक्षा रखता है, मूर्खता की कोई सीमा नहीं है. क्या बेजान वस्तु भी बोल सकती है ?

     विक्रम ने कहा - हे रात के प्रहरी क्या तुम मेरी कहानी सुनने और उत्तर देने को तैयार हो ?

     दीपक की लौ कंपकपाई और उसकी वाणी सुनाई पड़ने लगी - "ओ परदेशी पुरुष! मुझे तो अपलक सम्पूर्ण रात्री जागना है. प्रकाश का प्रहरी अंशुमाली जब तक प्राची से प्रकृति के आंगन में न उतरे मुझे अंधकार से संघर्ष करना है. मैं प्रकाश का वंशज हूं, सूर्य जब क्षितिज शैया पर विश्राम करने चला जाता है मैं भर जागता रहता हूं. संसार में विराट का महत्व है तो लघु का भी महत्व है.

       असीम काल से मैं हर रात्री में जागता हूं, प्रकाश बिखेरता हूं किन्तु मैं अपने तल के अंधकार को दूर नहीं कर सका. मेरे जीवन काल में तुम पहले व्यक्ति हो जो मेरे एकाकी जीवन में रात्री भर मेरे साथ जागकर मेरा एकाकीपन दूर करना चाहते हो मैं तुम्हारा आभारी हूं कृपया कहानी सुनाइये.

      दीपक का उत्तर सुनकर सभी स्तब्ध थे. राजकुमारी कभी पुरुष को तो कभी दीपक को क़ुतूहल भरी दृष्टी से घूर घूर कर देख रही थी. यह रहस्य समझने में वह असमर्थ थी कि दीपक मनुष्य की भाषा कैसे बोल रहा है.

        विक्रमादित्य ने कहा - "कथा सुनो"

  दीपक की लौ कंकपाई और बोली - सुनाओ.

    श्रीधर नामक एक श्रेष्ठी प्रतिष्ठपुर में निवास करता था. उसके पुत्र का नाम कामदेव था.

युवा होने पर कामदेव का विवाह समीपवर्ति नगर के एक श्रेष्ठी की रूपसी पुत्री चंद्रनयनी के साथ हुआ था. विवाह के पश्चात चंद्रनयनी ससुराल से पितृगृह गई तब से पुन:ससुराल नहीं लौटी. कामदेव जब भी अपनी पत्नी को लेने ससुराल जाता चंद्रनयनी के पिता कहते "यह मेरी इकलौती बेटी है, प्राणों से भी प्यारी है, मैं इसे अभी नहीं भेज सकता. कामदेव निराश होकर लौट आता.नगर में अनेक प्रकार की बातें अफवाहें बनकर प्रचलित हो गई. कोई कहता - श्रीधर श्रेष्ठी के परिवार वाले पुत्र-वधु को कष्ट देते है इसलिये वह नहीं आती, कोई कहता - पति के घर आकर वह करेगी क्या ? उसका पति तो क्लीव है.

श्रीधर श्रेष्ठी का परिवार बहुत सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार था. श्रेष्ठी श्रीधर ने एक दिन अपने पुत्र कामदेव को बुलाया और कहा - "पुत्र, चंद्रनयनी को ले आओ यदि इस बार भी उसके पिता उसे न भेजें तो निर्णायक उत्तर दे आना कि हम भविष्य में चंद्रनयनी को लेने जीवन पर्यन्त नहीं आयेंगे"

      कामदेव रथ में बैठकर चंद्रनयनी को लेने जा रहा था. उस समय मार्ग में एक देवी का मंदिर था. कामदेव रथ से उतर कर उस मंदिर में गया. देवी को प्रणाम करके बोला - "हे माता! अगर मेरे श्वसूर मेरी पत्नी चंद्रनयनी को मेरे साथ भेज देंगे तो मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि नारिकेल के बदले तुम्हे अपना शीश चढ़ाऊँगा"

     यह प्रतिज्ञा करके कामदेव ससुराल पहुंच गया. चंद्रनयनी के पिता ने देखा कि दामाद का रुख़ कठोर है, चंद्रनयनी को अब न भेजने पर बात बिगड जायेगी और सदैव के लिये सम्बन्ध टूट जायेंगे. बेटी पराया धन होती है, आखिर उसे कब तक नहीं भेजेंगे. उसने पुत्री को विदा कर दिया.

       सारथी,चंद्रनयनी और कामदेव जब लौट रहे थे तो मार्ग में देवी का मंदिर मिला. कामदेव को अपनी प्रतिज्ञा स्मरण हो आई. उसने सारथी से कहा - रथ रोको मैं देवी माता के दर्शन करने जा रहा हूं, तुम यहीँ प्रतीक्षा करना. कामदेव देवी के मंदिर में गया भक्ति भाव से दर्शन किये, सोचा मृत्यु तो अनिवार्य है, फिर प्रतिज्ञा पालन से क्यूं डरू. युवक कामदेव ने खङ्ग निकाली और देवी की प्रतिमा के सम्मुख अपना शीश काट दिया देवलय की भूमी रक्तरंजीत हो गई.

      सारथी और चंद्रनयनी कामदेव के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे,पर कामदेव न लौटा. चंद्रनयनी ने कहा - सारथी! वे अभी तक नहीं लौटे, जाकर देखो क्या बात है ? सारथी बोला - "स्वामिनी! स्वामी लौटते ही होंगे, इस नीरजन वन में तुम्हें अकेली, असुरक्षित छोड़कर कैसे जाऊ,मैं गया तो स्वामी क्रोधित होंगे"

     दोनों कामदेव के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे. जब अधिक देर तक कामदेव न लौटा तो चंद्रनयनी ने आज्ञा दी - "सारथी, मैं आज्ञा देती हूं, देवी मां के मंदिर तक जाओ और अविलम्ब स्वामी को लेकर आओ.


सारथी ने कहा - "मैं आपकी आज्ञा से जा रहा हूं."

     सारथी देवी के मंदिर में पहुंचा. कामदेव का शीश और धड़ पृथक-पृथक पडे थे. वेदिका के संम्मुख रक्त ही रक्त बिखरा हुआ था. सारथी भय से सिहर उठा, स्वामी की किसी ने हत्या कर दी. उसने सोचा, इस सुनसान जंगल में दूर-दूर तक मनुष्य के आने जाने के चिन्ह तक नहीं दिख रहे है तो मैं ही हत्यारा समझा जाऊंगा, स्वामी की हत्या के अपराध में मृत्युदंड तो मिलेगा ही, अपयश भी फैलेगा और चंदनयनी को भी कलंकिनी समझा जायेगा, अब क्या करू ? उधर कुआँ इधर खाई, घबराहट में उसने भी कामदेव के खड्ग से अपना शीश काटकर देवी को समर्पित कर दिया.

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                 क्रमशः