नीलम कुलश्रेष्ठ
अहमदाबाद में स्थित कांकरिया लेक के पास बनी बालवाटिका में लगी फ़ोटोज़ में दिखाई देती ज्योति बेन मेहता को कितने लोग जानते होंगे ? मेरा सौभाग्य है कि अपनी ही कि इस जांबाज़ महिला से मैं मिल चुकीं हूँ। आजकल मतलब अप्रैल 2025 में बालवाटिका का रिनोवेशन हो रहा है। पता नहीं उनकी कितनी फोटोज़ बालवाटिका में लगी रह पाएंगी। बरसों बाद मैं एक पुस्तक में इनका साक्षात्कार शामिल करना चाहतीं हूँ। ज्योति बेन की युवा उम्र की फ़ोटो बहुत मेहनत के बाद मुझे खोजकर दी है मेरी मित्र, पांच भाषाओं की जानकर व अनुवादक आरती करोड़े ने
गुजरात आने के बाद मेरा चकित करने वाला प्रथम आकर्षण मेरे सामने था सन 1977 में --- अहमदाबाद में कांकरिया लेक के निकट - बाल वाटिका में स्थित नौकाकृति में स्थित कक्ष । सारा कक्ष परिचयात्मक चित्रों से सजा हुआ था । अचानक मेरे पैर कुछ चित्रों के सामने ठिठक गए थे । एक ब्यॉय काट कटे बालों वाली महिला गुजराती साड़ी स्टाइल की साड़ी पहने हाथी की सूंड़ पर बैठी हुई थी, वही एक चीते के बच्चे को खिलाती हुई, वही मगर पर बैठी हुई, वही दो-तीन सांपों को कंठहार की तरह गले में लपेटे हुए थी । मेरा दिल रोमांचित होता हुआ महिला की निडरता का फ़ैन हो गया था । हां, एक बात सब चित्रों में कॉमन थी, वह थी उस महिला की निश्छल निडर मुस्कान- कहीं भी कोई भय नहीं, उत्तेजना नहीं, जैसे उनके लिये ये सब कुछ सहज हो । चित्रों के नीचे ‘बाल वाटिका’ व ‘नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम’ की इन सहायक अधीक्षिका का नाम ‘कुमारी ज्योति बेन मेहता’.
मैं ज्योति बेन जाँबाज़ गुजराती महिला का, जो एशिया की प्रथम वन्यप्राणीविद थी, का परिचय देते हुए मैं आज भी गौरव महसूस कर रहीं हूँ। जंतु विज्ञान के अध्ययन के बाद भी व्यावहारिक ज्ञान नहीं हो पाता । वेटरनरी प्रशिक्षण पालतू जानवरों तक सीमित है, इसलिये हमारे देश में वन्यप्राणीविद पुरुषों की भी संख्या कम है । भारत क्या, पूरे एशिया में पहली व अकेली महिला वन्यप्राणीविद थीं. इनके पास इस विषय की कोई डिग्री नहीं थी । इन्होंने यह ज्ञान अपने अध्ययन व अनुभव के आधार पर ही अर्जित किया था । उन दिनों वन्यप्राणी जीवन के अध्ययन के लिये भारत में किसी ‘सिस्टमेटिक ट्रेनिंग’ की व्यवस्था नहीं थी जबकि अमेरिका व लंदन में इस विषय की डिग्री दी जाती थी तथा वहाँ इस विषय से संबंधित महिलाएं ‘ज़ू ’ में ‘क्यूरेटर’ के पद पर कार्य करती थीं ।
बहुत से व्यक्ति इनकी तुलना सर्कस में काम करने वाली रिंग मास्टर महिलाओं से करते थे लेकिन यह ग़लत था । वे तो सिर्फ कोड़े की मार से हिंसक जानवरों को वश में करने के गुर जानती हैं, लेकिन वे वन्यप्राणीविद कदापि नहीं कही जा सकतीं।
उनका सबसे बड़ा शौक विभिन्न जीव-जंतुओं से मित्रता और उनके विभिन्न स्वभाव का अध्ययन करना है । इस अध्ययन में विकराल हिंसक जानवर से लेकर छोटे-छोटे प्राणी व पक्षी शामिल हैं । इनकी प्रेरणा का स्रोत स्वर्गीय पिताजी रहे थे । उन्होंने अपने 150 एकड़ वाले फ़ार्म में अच्छी नस्ल के कई घोड़े, गाय, बैल, खरगोश, विलायती कुत्ते और सियामी बिल्लियां, तोता, मैना, बतखें पाल रखे थे । इन्हें बचपन से ही उनसे खेलने का शौक हुआ, फिर यह शौक उम्र के साथ उनके स्वभावगत अध्ययन में परिपक्व होता गया.
इनका जन्म गुजरात के नडियाद नगर में हुआ था । उनके नाना एक प्रसिद्ध कवि थे । सर्वप्रथम गुजराती साहित्य में ग़जल को लाने का श्रेय उनको जाता है । विद्याध्ययन और साहित्य का शौक उन्हें मातृपक्ष से मिला है । बड़ौदा कॉलेज में वह इंटर में पढ़ रही थीं कि देश-प्रेम के आवाहन से विमुख न रह सकीं और सन् बयालीस में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में कूद पड़ीं थीं । पिता अवकाश प्राप्त सैनिक अफ़सर थे, उन्होंने उनकी इस देश-प्रेम व साहस की वृत्ति को देख घायल सैनिकों की सेवा के लिये नर्स बनने की सलाह दी थी । सेना नर्सिंग ट्रेनिंग पूरी होते ही उन्हें घायल सैनिकों की देखभाल के लिये भेज दिया गया था ।
ट्रेनिंग पूरी करने पर अठारह वर्ष की उम्र में असम के मणिपुर रोड पर युद्धभूमि में पहली नियुक्ति का तार मिला था । ये तो घबरा गई, क्योंकि सोच रही थी कि नियुक्ति कहीं पास में ही होगी, तब पिताजी ने धीरज बंधाया । वे स्वयं छोड़ने साथ गए, रास्ते में इन्हें तेज़ बुखार भी आ गया था । उन्होंने इन्हें वहाँ अंग्रेज कमांडिंग अफ़सर के सुपुर्द कर विदा ली । बाद में इन्हें हॉस्पिटल की अंग्रेज मेट्रन के सुपुर्द किया गया और दो दिन बाद ये ड्यूटी पर तैनात कर दी गई थीं । तीन वर्ष बाद लड़ाई बंद हो गई थी । ये मणिपुर, कोहिमा, इम्फाल, डिब्रूगढ़, लिढ़ो और शिलांग से ट्रान्सफ़र होती हुई दिल्ली आ गई थीं । दिल्ली से रुड़की, बरेली, अहमदाबाद होती हुई सात वर्ष के बाद अवकाश प्राप्त कर घर आ गई थीं ।
ये घर आने पर कुछ समय तक ही अपने बीमार पिता की सेवा कर पाई थी कि पिताजी चल बसे । भाई-बहिनों की ज़िम्मेदारी के कारण नौकरी छोड़ दी तथा ये टेलीफ़ोन ऑपरेटर बन गई । इस काम में इनका मन नहीं लगता था, इसलिये काम के बाद साथ में, नासिक भोंसले सैनिक स्कूल में शूटिंग, राइडिंग के शौक पूरे करती रही थीं ।
इनकी बहुत दिनों से अफ़्रीका के जंगलों का भ्रमण करने की इच्छा थी, इसलिये सोचा कि पहले भारत के ही वन्यप्राणी विहार देखे जाएं । इन्होंने गीर, नलसरोवर, बांदीपुर सेंचुरी, काजीरंगा सेंचुरी, वन्यप्राणी विहार और बड़े-बड़े चिड़ियाघरों का भ्रमण किया ।
ये सन 1963 में अफ़्रीका पहुंची । वहां पर प्रवासी भारतीय इनके जंगल भ्रमण का मंतव्य जानकर आश्चर्यचकित रह गये तथा उन्होंने ऐसा जोखिम उठाने के लिये हतोत्साहित भी किया । तभी इन्हें भारत के भूतपूर्व ब्रिटिश हाईकमिशनर श्री माल्कम मैकडोनाल्ड, जो उस समय पूर्व अफ़्रीका के गर्वनर-जनरल के पद पर नियुक्त थे, की याद आई । वह इनकी योजना से प्रभावित हुए तथा इन्हें उत्साहित करते हुए उन्होंने अपनी पुत्री कुमारी जेन को भी इस जंगल-यात्रा में साथ कर दिया था ।
इन्होंने अफ़्रीका की बीस हजार मील भूमि पर फैले हुए सभी सतह विस्तारों को देखा था । इनमें छह प्रसिद्ध हैं- रॉयल नेशनल पार्क, लेक मनीआरा, नेशनल पार्क, क्वीन एलिजाबेथ नेशनल पार्क, नैरोबी पार्क, सावा सारंगेटी नेशनल पार्क ।
प्रसिद्ध बॉटनिकल गार्डन और ‘आरफ़्रनेज जू’ भी देखा था, जिसमें निराश्रित पशु शावकों को रखकर पाला जाता है । तीन महीने के इस भ्रमण में उन्हें अनेक प्रकार के रोमांचक अनुभव हुए । अफ़्रीका के सिंहों के परार, हाथियों के झुंड, अनेक प्रकार के वनहिरणों के झुंड, ऊँची-लंबी गर्दन वाले जिराफ, चीते, कई तरह के बंदर और दोपाये चिंपान्जी, गोरिल्ला, शाहमृग, मगर, हिप्पोपोटैमस, विशालकाय गैंडे, जेब्रा, जंगली सुअर, वार्टहोग और युगांडा के पिग्मीज को प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा और उनके विषय में पर्याप्त जानकारी हासिल की थी ।
अपने अविवाहित जीवन के प्रति उनका स्पष्ट मत था कि वैवाहिक जीवन पति-पत्नी का संयुक्त जीवन होता है । जो नारी जीवन को ऊंचे लक्ष्यों के लिये जीना चाहती हो, ऐसी महत्त्वाकांक्षी नारी द्वारा विवाह निभाना असंभव है । मेरा यह शौक पागलपन की हद तक मेरे मन में समाया हुआ था, इसलिये मैंने अपने जीवन में आने वाली बाधाओं को अपने आत्मविश्वास व दृढ़ता से सामना करते हुए अविवाहित रहना पसंद किया ।
अपने इतने लंबे जीवन में क्या आपको कभी परिवार की कमी महसूस नहीं हुई ? इसका उत्तर वे बेधड़क देतीं थीं कि ऐसा कभी नहीं हुआ। अब तो मैं पचास वर्ष की हो गई हूं, लेकिन पहले भी मैंने यह कमी महसूस नहीं की, क्योंकि मुझे अपने पशु-पक्षियों के साथ बहुत व्यस्त रहना पड़ता है । मैं इनके साथ बहुत प्रसन्न व आत्मसंतुष्ट रहती हूं । मैंने दस-बारह कुत्ते असली नस्ल के अपने घर पर पाले थे, लेकिन जब मैं एक महीने की नेपाल यात्रा पर गई, तो उनमें से कुछ मेरी याद में, कुछ नौकरों की लापरवाही के कारण मर गये । तब से मेरा मन ख़राब हो गया है । अब घर पर किसी जानवर को नहीं पालती ।
जंगलों में वन्य हिंसक प्राणियों से मित्रता करने वाली महिला अंदर से निर्मम व शुष्क न होकर एक कलात्मक मेल भी रखती हैं । उस दिल के अनेक शौक हैं, शास्त्रीय संगीत, रवींद्र संगीत, साहित्य अध्ययन, विविध भाषाएं सीखना, उर्दू शायरी । उनके ऑफिस में लगे लता मंगेशकर के चित्र ने उनके संगीत-पिपासु मन की पुष्टि कर दी थी ।
इनकी नियुक्ति सबसे पहले पास के चिड़ियाघर में हुई थी । तब तक यह इतना उन्नत न था, जितना अब दिखाई देता है । हाथियों को नमस्ते करना, बाजा बजाना इन्होंने ही सिखाया था । वे इन्हें थे अपनी सूंड़ पर बिठाकर घुमा भी लेते थे । चिड़ियाघर में दो मादा चिंपान्जी थीं । महीनों तक लगातार खुराक, देखभाल, खेल इत्यादि खिलाने का जिम्मा लेकर इन्होंने उनसे दोस्ती की, फिर उन्हें ड्राइंग करना, सिगरेट पीना, जूते का लेस बंद करना, जान-पहचान वाले आदमी के बटन बंद करना सिखाया था । वे पहले खाना खाकर अपने बर्तन सा फ़ कर लेती थीं, कपड़े साफ़ करके निचोड़ लेती थीं । साइकिल भी चला सकती थीं । इतनी दोस्ती के बाद ये जब भी उनके पास जाती, वे प्रसन्न हो जातीं थीं ।
एक दिन तो ग़ज़ब हो गया था जब ये बड़ी चिंपान्जी को खाना खिला रही थी तो बीच में ही इनके परिचित आ गये । इनका उनकी कुशल-क्षेम पूछना था कि ‘एमिली’ (चिंपान्जी) को अपने लिये निश्चित समय में उनका हस्तक्षेप पसंद नहीं आया । उसने हाथ का खाना उछालकर उसी हाथ से इनके सिर के बाल पकड़ लिये थे । इन्होंने क्रोध व प्यार से उसे छोड़ने के लिये कहा, लेकिन वह कहां छोड़ने वाली थी । इसी खींचतान में उसने इनके बालों का गुच्छा उखाड़ लिया था । बाद में इन्होंने उसके लिये अपने साथ निश्चित दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आने दिया, यह सद्भावना देखकर वह फिर पहले जैसी हो गई ।
उनके बाघ, हाथी व सांप के रोमांचक अनुभव कुछ कम नहीं रहे थे। चिड़ियाघर में जो बाघ का नाम ‘राजू’ था । ये उसे एकांत में नहीं, सार्वजनिक पार्क में भी जंजीर के साथ खुले आम घुमाया करती थी तथा उससे खेलती रहती थी । दो वर्ष का होने तक उसने कोई उपद्रव नहीं किया । एक बार भारतीय वृत्तचित्र विभाग वाले प्राणी जीवन से संबंधित वृत्तचित्र की शूटिंग करने इस ‘बाल वाटिका’ में आये । एक दृश्य में इन्हें राजू को गोदी में लेकर दुलारना था । शूटिंग व यह रोमांचक दृश्य देखने के लिये बहुत से लोग एकत्र हो गये थे । राजू वैसे शांत रहता है लेकिन इस भीड़ व शोरगुल से वह घबरा उठा । मूक होने के कारण अपनी व्यथा कह नहीं सकता था । उसने इनकी जांघ में अपना तीव्र दांत गड़ाकर अपना विरोध प्रकट किया था । तुरंत रक्त बहना शुरू हो गया । उस तीखे दर्द को दबाकर इन्होंने शॉट दिया था । वह निशान आजीवन रहा था। । एक विशिष्ट वन्य प्राणीविद होना भी कितने जोखिम का काम है इन्होंने अपने जानलेवा दर्द की परवाह नहीं की क्योंकि यदि ये अपना धैर्य खोकर काटने के उत्तर में कुछ कर बैठती तो बिफरे बाघ को कौन संभालता ? कितनी जानें भी जा सकतीं थीं।
हथिनी सुमित्रा उन्हें अपनी सूंड़ पर उठाकर अपने ऊपर बैठा लेती थी । जब वे उसकी सूंड़ में छोटा सा माउथ ऑरगन रख देती थीं तो यह उसे सूंड़ से फूंककर बजाती थी और स्वयं झूमने लगती थी । यदि कभी मूड नहीं हो तो सारा प्रेम भूलकर इन्हें उठाकर पटक भी देती थी ।
सांप वैसे डरपोक होता है लेकिन क्रोधी बहुत होता है । अत्यंत विषधर सर्प बहुत खतरनाक होता है लेकिन ये उसे गले लगा लेती थीं । ‘मगर’ भी बहुत खतरनाक जानवर है, लेकिन ये उस पर सवार हो जाती थीं, उसकी पूंछ पकड़कर घसीट लेती थीं, लेकिन कभी भी यह करते हुए असावधान नहीं रहती थीं, नहीं तो क्या परिणाम हो ? ये अनुमान सहज ही लगया जा सकता था।
अपने पिता के अलावा अन्य किसी वन्यप्राणीविद विदेशी महिला से नहीं मिल सकीं थीं जिनसे प्रेरणा पातीं । अपने अध्यवसाय और रुचि से जो ज्ञान और अनुभव संचित किया, वही इनकी पूंजी था, वही प्रेरणा था । सन् 1960 से इसी बाल वाटिका में काम करना आरम्भ किया था । इनकी आंतरिक प्रेरणा ही वन्य प्राणियों के बारे में अधिक से अधिक जानने के लिये जिज्ञासु बनाती थी।
खगोलशास्त्र का अध्ययन इन्होंने आरम्भ किया क्योंकि बाल वाटिका के पास एक नया छोटा सा ‘प्लेनेटेरियम’ बनाया गया था । कभी शो देखते समय कोई प्रश्न पूछ बैठता, तो उत्तर इन्हें ही देने होते थे । उत्तर देने के लिये ज्ञान होना आवश्यक है । वैसे भी बाल वाटिका की देख रेख व इसके सौंदर्यीकरण तथा विस्तार करने के लिये योजनाएं बनाने में इन्होंने अपनी सारी ऊर्जा व दिमाग़ लगा दिया था।
अवकाश के बाद ये नडियाद में अपनी मां के पास रहने चलीं गईं थीं। । वहां दो-तीन घंटे ‘सोशल वर्क’ करके अपना समय अपने अनुभवों पर आधारित लेख व पुस्तकें लिखने में व्यतीत करतीं थीं।
इनके जीवन का सन्देश ये था, “प्रेम, सहानुभूति, निर्भयता और आत्मविश्वास आदि गुणों द्वारा इन जंगली जानवरों को वश में किया जा सकता है । जरा सी असावधानी या लापरवाही या गलती से जान भी जा सकती है । “
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