Mera Rakshak - 17 in Hindi Fiction Stories by ekshayra books and stories PDF | मेरा रक्षक - भाग 17

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मेरा रक्षक - भाग 17


रनविजय की आँखों के सामने अब भी मीरा का चेहरा घूम रहा था—वो आँखें, जो कभी उसे देख मुस्कराया करती थीं, आज नफ़रत से भरी हुई थीं। कैफ़े से निकलते वक़्त उसका चेहरा पत्थर जैसा हो गया था, जैसे सारी दुनिया का भार उसी पर आ गया हो। उसके साथी चुपचाप साथ चल रहे थे, लेकिन कोई भी उसकी तरफ़ देखने की हिम्मत नहीं कर रहा था।


जैसे ही रनविजय ने अपने आलीशान बंगले के दरवाज़े को खोला, एक जानी-पहचानी, सुकून देने वाली मौजूदगी सामने खड़ी थी—Ms. Rosy। उनकी आंखों में स्नेह और चिंता दोनों थीं। और उन्हें देखते ही, रनविजय का दिल फूट पड़ा। बिना एक शब्द बोले वह उनके पास गया और सीधा उनके गले लग गया।


Ms. Rosy स्तब्ध रह गईं। वर्षों से उन्होंने रनविजय को इतने करीब से देखा था, लेकिन इस तरह रोते हुए नहीं। उनकी बांहों में उस वक़्त कोई ताकतवर माफ़िया डॉन नहीं, बल्कि एक टूटा-बिखरा बच्चा था।


“क्या हुआ बाबा?” उन्होंने धीमे से पूछा, जबकि उनकी हथेलियाँ उसके पीठ को सहला रही थीं।


रनविजय ने कुछ नहीं कहा, बस उनके गले लगकर फफक-फफक कर रोने लगा। उसके आँसू उसके कंधों को भिगो रहे थे। पास खड़े बाकी साथी इस दृश्य को देखकर खुद को असहज महसूस करने लगे और जॉन को छोड़कर सब एक-एक करके बाहर चले गए।


अब उस बड़े हॉल में सिर्फ दो लोग थे—Ms. Rosy और रनविजय।


थोड़ी देर बाद, जब उसकी सिसकियाँ कुछ कम हुईं, उसने खुद को अलग किया और टूटी हुई आवाज़ में बोला,
“मैंने उसे खो दिया, Ms. Rosy… मैंने मीरा को खो दिया…”

Ms. Rosy के चेहरे पर हल्की हैरानी आई, लेकिन वो चुप रहीं। वो जान गई थीं कि यही बात थी जो उसके सीने में धधक रही थी।


“अब वो मुझसे नफ़रत करती है… उसने मुझे जानवर कहा… और शायद वो सही है।”
रनविजय की आवाज़ में खुद के लिए हिकारत साफ़ झलक रही थी।


“मैं उसे अपने पास सुरक्षित नहीं रख पाया… जैसे किसी को भी नहीं रख पाया।”
उसने नज़रे झुकाई।
“मेरी माँ… और अब मीरा… सब मुझसे दूर चले गए…”


Ms. Rosy उसकी बातें ध्यान से सुन रही थीं, लेकिन कुछ कह नहीं रही थीं। उनकी आंखों में आँसू तैरने लगे थे। उन्हें वो दिन याद आ गया, जब एक 16 साल का बच्चा, ठीक इसी तरह, उनकी गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोया था… उस दिन जब उसकी माँ इस दुनिया को अलविदा कह गई थी।

“मैं किसी लायक नहीं हूं, Ms. Rosy…”
रनविजय की आंखें लाल हो चुकी थीं।
“मैं प्यार के लायक नहीं हूं… मुझसे जो भी जुड़ता है, उसे दर्द मिलता है… मैं सबको खो देता हूं…”


Ms. Rosy अब चुप न रह सकीं। उन्होंने उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में लिया और कहा
"बाबा… तुम टूटे हुए हो, लेकिन बुरे नहीं। जिस दिन इंसान अपने गुनाहों पर पछताने लगे, समझो अब भी उसके अंदर अच्छाई ज़िंदा है।”


रनविजय ने धीमे से कहा, “लेकिन मीरा ने जो देखा… वो मैं नहीं था। मैं नहीं चाहता था कि वो मुझे ऐसे देखे… मैं बस उसे उस सच से दूर रखना चाहता था।”


“तुमने खुद को हमेशा एक ढाल के पीछे छुपाकर रखा, लेकिन आज वो ढाल टूट गई। और शायद यही ज़रूरी था।”
Ms. Rosy ने उसकी पीठ थपथपाई।
“जिस प्यार को तुम महसूस करते हो, उसे समझने और संभालने का वक़्त आ गया है।”


रनविजय ज़मीन पर बैठ गया। उसका सिर घुटनों में और कंधे कांपते जा रहे थे।
“मैं अकेला हूं,  Ms. Rosy… शायद हमेशा रहूंगा…”

Ms. Rosy उसके पास बैठ गईं। उन्होंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा और कहा,
“नहीं बाबा… अकेला वो होता है, जो खुद से नज़रें नहीं मिला पाता। तुमने आज खुद को देखा है, अपनी असलियत से सामना किया है। ये तुम्हारी हार नहीं… ये तुम्हारी शुरुआत है।”

हॉल में सन्नाटा छा गया था। दीवार पर टंगी घड़ी की टिक-टिक, उसकी सिसकियों के साथ एक उदास संगीत सा लग रही थी।

Ms. Rosy के मन में अब बस एक ही बात थी—“मीरा को ये जानना होगा कि रनविजय सिर्फ़ एक माफिया नहीं, एक इंसान भी है… और शायद सबसे ज़्यादा प्यार करने वाला इंसान।”