शोध प्रतिशोध (प्रथम भव)
CHAPTER-1
PART - 1
किसी का मजा तो किसी को सजा !
'कल बड़ा मजा आया, नहीं?''अरे... बात ही मत पूछो... वाकई मजा आ गया था!''ओह, मेरा तो हंसने के मारे बुरा हाल था!''सचमुच, ऐसा जुलूस तो हमारे नगर में पहली बार ही निकला होगा!''कुमार, तुम भी क्या एक-एक तरकीब खोज निकालते हो मौज मनाने की! जवाब नहीं तुम्हारा!''पर... वह पुरोहित का छोकरा, बाकी... जँच रहा था गधे पर! इस शलुघ्न ने तो ढोल पीट-पीट कर सारे गाँव को सर पर उठा लिया था!''और... यह कृष्णकांत... वाह! महाराज अग्निशर्मा की क्या छड़ी पुकारी थी इसने ! अरे... और तो और... वह गधा भी अपनी सुरीली आवाज में ढेचुम... ढेचुम... करके सुर मिला रहा था!''कितने सारे लड़के शामिल हुए थे जुलूस में! जैसे कोई राजा की सवारी निकली हो!'राजकुमार गुणसेन के सुसज्ज शयनखंड में चार दोस्त मिलकर गपशप किये जा रहे थे। सेनापति का लड़का जहरीमल, मंत्री का बेटा शत्रुघ्न और राजकुमार गुणसेन का चचेरा भाई कृष्णकांत, ये तीनों लड़के राजकुमार गुणसेन की चापलूसी करनेवाले थे। कुमार गुणसेन के अच्छे-बुरे कार्यों के साथी थे, साक्षी थे।कुमार गुणसेन का एक ही कार्य रहता था... औरों को दुःखी करके मौज मनाना! परपीड़न करके आनंद मनाना! इसके लिए उसने नगर के प्रजाप्रिय पुरोहित यज्ञदत्त के बदसूरत-कुरूप पुत्र अग्निशर्मा को शिकार बनाया था। अग्निशर्मा जन्म से ही कुरूप था। बेडौल था। उसकी माता सोमदेवा ने बरसों तक तो उसे घर से बाहर भी नहीं निकाला था, पर एक दिन जब वह राजमार्ग पर यौं ही खेलने को निकल आया तब मस्तीखोर राजकुमार की आंखों में चढ़ गया !भूरी गोल आंखें... तिकोना सिर, बिल्कुल चप्पट नाक, और कान की जगह मात्न दो छेद... लंबे-लंबे पीले दांत... लंबी टेढी गरदन... छोटे-छोटे पतले हाथ...छोटा सा सीना और फूला हुआ पेट, मोटी पर छोटी और खुरदरी जांघे... चौड़े और टेढ़े-मेढ़े पैर, सिर पर पीले और छितराये छितराये से बाल !ऐसा था अग्निशर्मा का कुरूप शरीर !यह शरीर राजकुमार के लिए खिलौना बन गया था। राजकुमार और उसके चापलूस दोस्त अग्निशर्मा पर जोर जुल्म करके क्रूर मजा लेते थे। अग्निशर्मा के माता-पिता राजपरिवार के समक्ष लाचार थे, असहाय थे! अपने कोंखजाये की क्रूरतापूर्ण कदर्थना होती देखकर उनकी आंखें खून के आंसू बहाती थी। उनका दिल भारी वेदना से टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा था। पर आदमी कुछ बातों के आगे असहाय और बेबस बन कर रह जाता है, कुछ नहीं कर सकता!चार दोस्तों ने मिलकर आज फिर मौज मनाने की नई योजना बनाई थी। गुणसेन ने कहा: 'कल अग्निशर्मा को डोरी से बांधकर, नगर के बाहर जो कुआँ है... उसमें उतार कर डुबकी लगवाएंगे... मजा आ जाएगा! है ना मजेदार योजना !'शत्रुघ्न ने कहा : 'कुमार, योजना तो तुम्हारी जोरदार है!'कृष्णकांत बोला : 'हम उसका जुलूस निकाल कर नगर के बाहर ले चलेंगे।'जहरीमल बोला : 'गधे को रंगबिरंगे रंग से सजायेंगे... अग्नि को भी रंग डालेंगे... फिर देखना कैसा मजा आता है। पूरे रास्ते में लड़कों की टोली चिहुँकती-चिल्लाती चलती रहेगी... तालियाँ बजायेंगे...। और लोग हंस-हंस कर मजा लेंगे अपने कारनामे का!'गुणसेन ने कहा : 'ठीक है...तू अग्नि को रंग लगाना... पर उसके सिर पर कांटे का ताज पहनाना, और लाल-पीले फूलों की माला उसके गले में डालना और सिर पर पुराने सूपड़े का छत्त्र रखना!शलुघ्न नाच उठा... 'वाह भाई वाह! कल का जुलूस तो वाकई में मजेदार रहेगा! क्षितिप्रतिष्ठित नगर के इतिहास में इतना मनोरंजक जुलूस तो शायद पहली बार ही निकलेगा!'जहरीमल ने कहा... 'कल सबेरे-सबेरे ही मैं कालिये कुंभार के वहाँ जाकर उसके भूरिये गधे को ले आऊँगा... और अग्निशर्मा को भी तो लाना होगा!'अरे... तू तेरे गधे को ले आना... शर्मा को तो मैं खुद उठा लाऊँगा...। शर्मा की माँ उसे घर में ही छुपाकर रखेगी... इसलिए मुझे ही जाना होगा। मैं उसके घर में घुसकर उसे उठा लाऊँगा...। मुझे उसका बाप भी नहीं रोक सकता है!''तुझे रोकने की गुस्ताखी कौन करेगा? ताकत है किसी की?' शत्रुघ्न ने कृष्णकांत की चापलूसी करते हुए कहा। चारों मित्र खिलखिलाकर हंस पड़े !गुणसेन ने कहा :'देख शलुघ्न ! कल जब जुलूस निकले... तब तुझे देर तक जोर-जोर से ढोल पीटना होगा! और भी ढोल-कांसे बजानेवालों को बुला लाना... और जहरीमल, तू मजबूत डोरी लाना भूलना मत !''नहीं भूलूँगा... मेरे राजा! अरे, उस शर्मा के बच्चे को डुबकी खिलानी है ना? खड़ा ही खड़ा उसे कुएँ में उतारूँगा... फिर कुमार तुम मजे से उसे डुबक... डुबक...डुबकियाँ खिलाते रहना!' 'बारी-बारी से हम चारों डुबकियां खिलवायेंगे... तुम भी तो मजा लेना!' कुमार ने उदारता दिखाई !तीनों मित्र कुमार की प्रशंसा करने लगे।नौकर ने आकर दूध के प्याले रखे और चांदी की थाली में मिठाई रखी। सभी ने दूध और मिठाई को न्याय दिया। सभा समाप्त हो गई।ब्राह्मण मुहल्ले में कृष्णकांत ने पैर रखा... कि मुहल्ले के सभी घर फटाफट... बंद होने लगे! घर बंद रहे या खुले... कृष्णकांत को परवाह नहीं थी! उसे तो केवल यज्ञदत्त पुरोहित का घर खुला चाहिए था। शायद बंद भी हो तो खोलना उसे आता था। और सचमुच यज्ञदत्त का घर बंध था। कृष्णकांत को मुहल्ले में घुसते देखकर ही सोमदेवा कांप उठी थी। उसने सटाक् से दरवाजा बंद करके अग्निशर्मा को घर के भीतर के कमरे में छुपा दिया था।कृष्णकांत ने घर का दरवाजा खटखटाया।'पुरोहित, दरवाजा खोल!'कोई जवाब नहीं देता है...।'पुरोहित, दरवाजा खोलता है या नहीं?'कुछ प्रत्युत्तर नहीं मिलता है।'पुरोहित...या तो सीधे-सीधे दरवाजा खोल दे... वर्ना मुझे दरवाजा तोड़ना होगा... फिर मुझे भला-बुरा मत कहना।'फिर भी द्वार खुलता नहीं है...। कृष्णकांत ने जोर से लात मारी, एक... दो... और तीन... तीसरी लात लगते ही दरवाजा चरमराकर टूट गया। कृष्णकांत ने घर में प्रवेश किया। पुरोहित यज्ञदत्त हाथ जोड़कर खड़े थे। कृष्णकांत दहाड़ उठा... 'कहाँ है हमारा खिलौना ?''महानुभाव, बस, बहुत हो चुका! अब रहने दो, उस बच्चे पर दया करो... उसे मत सताओ... उसे उत्पीड़ित मत करो।' यज्ञदत्त ने नम्र शब्दों में विनती की।'यह सब भाषण राजकुमार के सामने देना, पुरोहित! मुझे तो अग्निशर्मा चाहिए! कहाँ है वह खिलौना? चल, जल्दी मुझे सौंप दे उसे !''भाई, क्या बिगाड़ा है उस बच्चे ने तुम्हारा? रोजाना क्यों उसका मजाक बनाते हो? उसे पीड़ा देते हो? भगवान तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा!''सुन, पुरोहित! मुझे तेरा भगवान नहीं चाहिए... तेरा भगवान मुझे माफ करे या नहीं करे... मुझे इसकी परवाह नहीं है... मुझे तो तू मेरा खिलौना दे दे... वर्ना राजकुमार तुझे माफ नहीं करेंगे ! बोल, कहाँ छुपाया है उसे? इस कमरे में है ना? खोल कमरा...बाहर निकाल उस छोकरे को!'पुरोहित यज्ञदत्त की आंखों से आंसू बहने लगे। कृष्णकांत के समक्ष उसकी प्रार्थना... उसकी विनती...सब कुछ व्यर्थ था। कृष्णकांत ने यज्ञदत्त को चेतावनी देते हुए कहा :'पुरोहित, आज दिन तक मैंने तेरी मर्यादा रखी है... तुझे हाथ नहीं लगाया है...पर अब यदि तू नहीं मानता है तो मैं तेरी चोटी पकड़कर उठाकर तुझे घर के बाहर फिंकवा दूँगा... तेरी शिकायत कोई सुननेवाला नहीं है! समझा न? चल... जल्दी से दरवाजा खोल !'कमरे में रही हुई सोमदेवा ने सोचा 'यह दुष्ट महाराज पूर्णचंद्र के भाई का बेटा है... फिर राजकुमार का दोस्त भी है... इसलिए यह जो चाहे सो कर सकता है...। इनके विरुद्ध शिकायत सुननेवाला राजमहल में है भी कौन? नाहक यह राक्षस पुरोहित पर हाथ उठाएगा... और आखिर मेरे पुत्न को ले तो जाएगा ही!'सोमदेवा ने दरवाजा खोल दिया। तरुण अग्निशर्मा कृष्णकांत को देखकर हवा में हिलते पत्ते की भांति कांपने लगा...। उसकी गोल-गोल आंखें चक्कर खाने लगी।वह सोमदेवा से लिपट गया... और जोर-जोर से रोने लगा। कृष्णकांत ने एकाध पल की भी देरी किये बगैर अग्निशर्मा को पकड़ा, उठाया... कंधे पर डाला और घर से बाहर निकल गया। मुहल्ले के बाहर उसका घोड़ा खड़ा था। अग्निशर्मा को घोड़े पर डालकर, खुद घोड़े पर बैठा और घोड़े को राजमहल की ओर दौड़ा दिया।सोमदेवा और यज्ञदत्त दोनों करुणस्वर में रुदन करने लगे। सोमदेवा ने यज्ञदत्त से कहा :'स्वामी, इसकी बजाए तो यमराज आकर पुत्त्र को उठा जाए तो अच्छा ! यह तो रोजाना की पीड़ा है... न सह सकते हैं, न किसी से कह सकते हैं।''कुछ भी उपाय सूझ नहीं रहा है...। किस तरह बेटे को इस तरह की यातना से बचाया जा सके ?'आंसूभरी आंखों से यज्ञदत्त ने आकाश की ओर देखते हुए कहा।'खुद राजकुमार प्रजा को पीड़ित करे... फिर भी राजा उसे रोक नहीं सकता ! किसे जाकर शिकायत करना? और पुत्त्र का जीव भी न जाने गत जन्म में कैसे पाप करके आया है?'यज्ञदत्त ने कहा।'स्वामी, पुत्त्र पूर्वजन्म के पाप लेकर मेरे पेट से जन्मा है यह बात सच है, पर हमारे भी तो पूर्वजन्म के पाप हैं ना? जिससे ऐसा बदसूरत पुन हमें मिला ! और फिर अपनी आंखों से पुत्न को पीड़ित होते हुए देखना।''देवी, तुम्हारी बात सही है...। पाप तो तुम्हारे-मेरे और पुत्त्र तीनों के हैं...।अपने किये हुए पापों की सजा ईश्वर कर रहा है। ईश्वर जो करे सो सही! आदमी क्या कर सकता है? ईश्वर की इच्छा के बगैर तो एक पत्ता भी नहीं हिलता है!''क्या ईश्वर दयालु नहीं है? क्या ईश्वर को हम पर दया नहीं आती होगी? ईश्वर को हम करुणानिधान कहते हैं... और आप तो निकाल ईश्वरप्रणिधान करते हैं...। तब फिर वह सर्वशक्तिमान ईश्वर इन दुष्टों को, मेरे बेटे पर संत्रास गुजारनेवाले इन कलमुहों को कड़क सजा क्यों नहीं देता? क्या उसकी बनाई हुई सृष्टि की रक्षा करना उसका कर्त्तव्य नहीं है...? मुझे रोजाना यह विचार आता है... और सच पूछो तो, मेरीईश्वर पर की श्रद्धा घटती जा रही है...। रोजाना आपको कहने को मन करता था पर कह नहीं पाती थी... आज मुंह से निकल गई! क्या गलत बात है मेरी?' सोमदेवा ने आखिर यज्ञदत्त से अपने मन की बात कह दी।यज्ञदत्त वेदों का ज्ञाता एवं कर्मकांडी ब्राह्मण था। ईश्वर के प्रति उसकी श्रद्धा अगाध और अविचल थी। सोमदेवा की बात सुनकर उसका मन जरा दुःखी हुआ... परंतु उसके खुद के मन में भी गहरे-गहरे यही सवाल रेंग रहे थे। 'सर्वशक्तिमान ईश्वर दुष्टों का निग्रह क्यों नहीं करता है? सज्जनों पर अनुग्रह क्यों नहीं करता है?' उसका ज्ञान उसे अधूरा महसूस होता था, फिर भी सोमदेवा को ढाढ़स बंधाते हुए उसने कहा:'देवी, ईश्वर की शक्ति पर भरोसा रखो। यह तो ईश्वर हमारे सत्त्व की... हमारी श्रद्धा की... हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा है!'हमारी परीक्षा लेना हो तो ले... पर इस निर्दोष-मासूम बच्चे की परीक्षा तो नहीं ली जा सकती ना? इतनी क्रूरताभरी परीक्षा? मैं तो रोजाना मंदिर में जाकर भगवान को उपालंभ देती हुई कहती हूँ... 'भगवान्, तूने हमें ऐसा कुरूप पुत्न देकर दुःखी किया... ठीक है! हम पुत्र का भलीभांति लालन-पालन करेंगे। पर यह राजकुमार और उसके मित्र उस पर जो अत्याचार गुजारते हैं... उसे तो तुम रोक सकते हो! मेरे इस बेटे की तो रक्षा करो...। हम तुम्हारे भक्त हैं, तुम हमारे भगवान हो, तुम्हें हमारी रक्षा करनी ही होगी। अब मेरे से पुत्त्र की पीड़ा... देखी नहीं जाती! उसका उत्पीड़न सहा नहीं जाता! रोजाना उसकी क्रूर कदर्थना होती है। क्रूर मजाक होता है... उसे घोर दुःख दिया जाता है! तुम भी यदि हमारी तरह असहाय होकर यह सब देखा करोगे तब फिर तुम भगवान कैसे? एक मासूम अपाहिज बच्चे पर शैतान के अवतार जैसे इन्सान जुल्म गुजारते रहें, फिर भी यदि भगवान खामोश रहकर तमाशा देखा करे... तो वह भगवान कैसे?'यौं कहकर... निराशा और संताप के साथ वापस घर आती हूँ... ईश्वर की शक्ति पर का भरोसा हिल गया है!'सोमदेवा का दिल भर आया। वह रो पड़ी। उसे ढाढ़स बंधाते हुए यज्ञदत्त ने कहा :'अग्नि की माँ, ईश्वर की ताकत कम नहीं हुई है... परंतु दुःख सहन करने की हमारी क्षमता घट गई है...!'इतने में, दूर से ढोल-कांसे की आवाजें उभरने लगी। 'अभी इस वक्त जोर-जोर से ढोल क्यों बज रहा होगा?' इसके बारे में सोचे तब तक तो उसी मुहल्ले के दो युवान घर में आये और कहा :'पुरोहितजी, घोर जुल्म हो रहा है। प्रजाजनों को उत्पीड़ित करके राजकुमार पाशविक आनंद मना रहा है!''क्या हुआ भाई?''अग्निशर्मा की घोर कदर्थना!''हमने बहुत अनुनय किया... मत ले जा मेरे लाडले को... पर वह दुष्ट कृष्णकांत जोरतलबी करके अग्नि को उठा ले गया।''चूंकि वह गुणसेन का चमचा है... मंत्रीपुत्र और सेनापति का लड़का भी राजकुमार की दुष्टता का हिस्सेदार है।''हाँ, यह जो ढोल बज रहा है ना? वह शतुघ्न ही बजा रहा है। गधे पर अग्नि को बिठाकर... उसके सिर पर कांटे का मुकुट पहनाकर... गले में लाल फूलों की माला डालकर... सिर पर पुराने टूटे-फूटे सूपड़े का छत्त्र बनाकर, उसे गाँव के बाहर ले जाया जा रहा है! हजार जितने बच्चे एकत्र हो गये हैं... हंसते हैं... गाते हैं... चीखते हैं... चिल्लाते हैं...। गधा भी कूद रहा है... अग्नि बेचारा घबराहट के मारे रो-रो कर जार-जार हुआ जा रहा है...। पर राजकुमार खुश होकर झूम रहा है। उसके साथी तालियाँ पीट रहे हैं, वह जहरीमल घोड़े पर सवार होकर घोषणा कर रहा है...'चलो, सब नगर के बाहर ! नगर के बाहर कुएँ पर सभी को एक खेल दिखाया जाएगा! वह भी मुफ्त में! गधे पर बिराजमान महाराज अग्निशर्मा को कुएँ में उतारा जाएगा... और बाहर निकाला जाएगा!'मुहल्ले के युवानों ने, सोमदेवा और यज्ञदत्त के प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति जताते हुए बात की। एक युवान का खून गरम हो उठा :'आज मेरा खून खौल उठा है...। मन करता है... राजमार्ग पर जाकर उस जहरीमल की टांग खींचकर घोड़े पर से नीचे पटक दूँ... उसके सीने पर पैर रखकर उसका गला...'नहीं भाई नहीं... इसका परिणाम क्या आएगा, सोचा है? राजकुमार और उसके दोस्त तुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे! उसी वक्त तलवार का वार करने में उन्हें क्या देर लगनेवाली है? नहीं... हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना है!''तब क्या करना है? रोजाना अग्नि की इस तरह कदर्थना होने देना? राजकुमार को रोकने का कुछ उपाय ही नहीं है? बस देखते ही रहना? यह तो निरा अन्याय है!' युवान ने जोशीली आवाज में कहा। उसकी ऊँची आवाज सुनकर मुहल्ले के दस-बारह युवान वहाँ आ पहुँचे। युवानों का आक्रोश बढ़ता गया। मुहल्ले के कुछ बड़े बूढे भी वहाँ पर एकल हो गये।एक वृद्ध ने कहा :'पुरोहित के साथ हमारे मुहल्ले के अग्रणियों को मिलकर महाराज के पास जाना चाहिए। महाराज के समक्ष सारी परिस्थिति रखनी चाहिए।'एक युवान ने कहा: 'केवल मुहल्ले के अग्रणी ही क्यों? नगर के अग्रणी महाजन को भी साथ ले जाना चाहिए। महाजन भी सख्त नफरत करते हैं... इस चंडाल चौकड़ी की क्रूरता से!'दूसरे वृद्ध ने अपना मत कहा 'महाराज के पास जानेवालों को एक बातभलीभांति समझ लेनी चाहिए... कि फिर जीवनभर तक राजकुमार और उसके मित्नों के साथ दुश्मनी होने की। कभी वे मौत की गोद में भी सुला दें...। भविष्य का पूरा विचार करके ही हर कार्य करना चाहिए!'एक प्रौढ व्यक्ति ने कहा : 'भाई, इन दादा ने भविष्य का विचार करने को कहा है, यह कार्य आग के साथ खेल करने का है।... यह बात भी सही है... पर यदि राजकुमार और उसके मित्रों को ऐसी अधम क्रूरता से रोका नहीं गया तो यह सब कहाँ पर जाकर रुकेगा? आज अग्निशर्मा की बारी है... कल और किसी का शिकार होगा! एक खिलौने से जी भरेगा... तो दूसरा खिलौना खोजने में उन्हें देर कहाँ? तब क्या करोगे? यह भी तो सोचना होगा न!'मौन छा गया।यज्ञदत्त ने कहा: 'भाईयों, आप या महाजन, महाराज के पास मत जाइये, मैं और अग्नि की माँ-हम दोनों जाएँगे। चाहे तो राजकुमार हमारे गले पर तलवार का वार कर दे! वैसे भी, जीने में रखा क्या है? बेटे का दुःख अब देखा नहीं जाता ! हमारे लिए तो जिन्दगी और मौत दोनों ही एक से हैं! हम जाएँगे महाराज के पास ! पुत्त्र-रक्षा का वचन मांगेंगे। यदि महाराज वचन देंगे... तब तो ठीक है... वर्ना... 'यज्ञदत्त रो पड़े। सोमदेवा भी फफकने लगी। वह उठकर घर के भीतर कमरे में चली गई। वहाँ पर उपस्थित सभी की आंखें गीली हो गई।दूर-दूर के राजमार्ग पर से ढोल की आवाज आ रही थी। छोटे-छोटे बच्चों की चीख-चिल्लाहट सुनाई दे रही थी। यज्ञदत्त व्याकुल हो उठे।'बेचारा अग्नि... कैसे पाप लेकर पैदा हुआ है? कितनी घोर ताड़ना-कदर्थना हो रही है उसकी ? कितना संत्रास गुजर रहा है उस पर?' जमीन पर दृष्टि स्थिर करके यज्ञदत्त स्वगत बोल रहे थे 'महाराज पूर्णचन्द्र गुणवान हैं... करुणावान हैं... परंतु पुत्त्रस्नेह सबसे बलवान होता है। वे कुमार को रोकते भी कहाँ हैं? कुमार को दुःख हो वैसा कुछ कह भी नहीं सकते! अग्नि के दुःख का विचार उन्हें भला क्यों आएगा? क्या करूँ? सत्ता के आगे समझदारी किस काम की? व्यर्थ है सब!'एक वृद्ध पुरुष जो कि यज्ञदत्त के समीप ही बैठे थे... उन्होंने यज्ञदत्त की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा :'पुरोहितजी, तुम विषाद मत करो... तुम तो ज्ञानी हो... समझदार हो!' ईश्वर ने चाहा सो ही होगा!' यों सोचकर शांत हो जाओ। हम मुहल्ले के चार-पाँच अग्रणी मिलकर नगर के महाराज से मिलेंगे और इस बारे में विचार विमर्श करेंगे...। फिर बाद में तुमसे मिलेंगे।'वृद्ध पुरुष खड़े हुए। सभी युवान लोग वहीं बैठे रहे।उस प्रौढ आदमी ने यज्ञदत्त से कहा: 'पुरोहितजी, तुमने सबेरे से कुछ भी खाया पिया नहीं है... इसलिए अब कुछ खा लो, तुम दोनों मेरे घर पर चलो।'आंसू भरी हुई आंखों से पुरोहित ने उस प्रौढ़ व्यक्ति के सामने देखा और कहा :'भाई, हमारे खाने-पीने की बात तो करना ही मत! महीनों से हमारा खाना-पीना हराम हो गया है! न तो खाना अच्छा लगता है... न पीना मन को भाता है! शाम को वे दुष्ट लोग... अग्नि को घर में डाल जाएंगे। फिर तीन घंटे तक अग्नि बेहोश पड़ा रहेगा...। एक प्रहर बीतने के बाद हम उसे नहलाएंगे...। उसे प्यार से समझा-पटा कर कुछ खिलाएंगे। इसके बाद हम दोनों कुछ दो-चार कौर पेट में डाल देंगे!'फिर तो सारी रात अग्नि का कल्पांत चलता है... नहीं सहन होता है यह सब ! परंतु कर भी क्या सकते हैं? देश छोड़कर चले जाने का विचार भी आता है, पर ये राक्षस हमें यहाँ से जाने भी नहीं देंगे!' वृद्ध पुरुष चले गये थे। सोमदेवा बाहर आई... उसने युवानों से कहा :'भाई... तुम सब भी अब अपने-अपने काम-धंधे पर जाओ। हम भी अब देव-पूजा करेंगे।'युवान खड़े हुए। उन्होंने यज्ञदत्त और सोमदेवा को प्रणाम किये और वे चले गये।अग्निशर्मा की सवारी नगर के बाहर बड़े कुएँ के पास पहुँची। गुणसेन ने शत्रुघ्न से कहा : 'अब तुम अपने इस राजा को दोनों बगल में रस्सा डालकर मजबूती से बांध दो। फिर राजा को कुएँ में उतारेंगे।'अग्निशर्मा जोर-जोर से रोने लगा। 'नहीं... नहीं... मुझे मत बांधो... मुझे कुएँ में मत उतारो...।' वह गधे पर से नीचे उतरने लगा... पर जमीन पर नीचे ढेर हो गया! वह गुणसेन के पैरों में लोटने लगा। मुझे छोड़ दो... मुझे मेरे घर पर जाने दो!'इतने में जहरीमल ने अग्निशर्मा की पीठ पर कसकर लात लगाई। अग्निशर्मा चीख उठा ! गुणसेन जोर से हंस पड़ा। अग्निशर्मा जब-जब भी रोता...या चीखता... चिल्लाता... तब गुणसेन तालियाँ पीट-पीट कर खुशी मनाता...।कृष्णकांत ने दोनों हाथ से अग्निशर्मा को खड़ा किया। शलुघ्न ने उसके बगल में रस्सा बांधा और उसे उठाकर कुएँ के किनारे पर ले गया। गुणसेन, शलुघ्न और जहीमल भी कुएँ पर चढ़ गये थे। कृष्णकांत ने दोनों हाथ से अग्निशर्मा को उठाया और वहाँ पर उपस्थित लोगों के सामने रखा। जहरीमल ने घोषणा की 'भाई, अब अपने इस राजा को इस कुएँ में जी भरकर स्रान करवायेंगे। डुबकियाँ खिलायेंगे। राजा को मजा आ जाएगा!''नहीं-नहीं... मुझे स्रान नहीं करना है। मुझे डुबकी नहीं लगानी है...। मुझे बचाओ, ये दुष्ट मुझे मार डालेंगे...।' अग्निशर्मा चिल्लाकर बोला। परंतु खेल-तमाशा देखनेवालों को दया कहाँ थी? लोग तालियाँ पीट-पीट कर हंसने लगे। कृष्णकांत को गुस्सा आया। उसने अग्निशर्मा को कुएँ के किनारे पर ही पटका... अग्निशर्मा चीख उठा!'गुणसेन ने कहा: 'इधर ला, इस पठ्ठे को मुझे दे, जरा मैं भी इसको मजा चखाऊँ...!'कृष्णकांत ने अग्निशर्मा को कुमार के हाथों में दिया... कुमार ने उसे कुएँ में उतारा। कुएँ में पानी भरा हुआ था। कुमार ने अग्निशर्मा को पानी में डुबोया और उसे बाहर निकाला। अग्निशर्मा असह्य वेदना व पीड़ा से तड़पता है... परंतु पीड़ा की ओर कौन देखनेवाला था? शलुघ्न ने रस्सी पकड़कर उसे कुएँ में डाला। एक-दो डुबकी खिलाई और बाहर निकाला।नरक के परमाधामी देव जिस प्रकार नरक के जीवों को यातना देते हैं... उसी तरह ये चारों मित्र अग्निशर्मा को उत्पीड़ित कर के नाच रहे थे। झूम रहे थे। जोर-जोर से हंस रहे थे।चारों मित्नों ने अग्निशर्मा को जी भरकर डुबकियाँ खिलाई...। जहरीमल नेअग्निशर्मा के सिर पर... चेहरे पर हाथ सहला कर कहा...' क्यों बच्चू... मजा आया न? कितनी देर से स्रान का मजा ले रहा है तू!''अब मुझे स्रान नहीं करना है...। मुझे घर जाने दो!' यों बोलते हुए अग्निशर्मा ज्यों ही खड़ा होने जाता है... इतने में गुणसेन ने उसके सिर पर एक मुक्का लगाया। चीखता हुआ अग्निशर्मा कुएँ के किनारे पर ही लुढ़क गया !गुणसेन ने आज्ञा की : 'चढा दो इसको वापस गधे पर और सवारी ले लो नगर की ओर।'कृष्णकांत ने रोते-कलपते हुए अग्निशर्मा को गधे पर बिठाया...। गधा जोरों से उछला... पिछले पैरों से कृष्णकांत को जोर से लात मार दी गधे ने! कृष्णकांत के मुंह से चीख निकल गई। अग्निशर्मा ने तालियाँ पीटी और जोर से हंस दिया। कृष्णकांत ने अग्निशर्मा पर अपना गुस्सा उतारा।शलुघ्न ने जोर-जोर से ढोल बजाना चालू किया।सवारी नगर की ओर चली। गधा करीब-करीब दौड़ता हुआ जा रहा था। सभी लोग उसके पीछे दौड़ने लगे। राजमहल से कुछ दूरी पर एक मैदान में पहुँचने के बाद... गुणसेन ने शतुघ्न से कहा...' जा... इस गठरे को डाल आ उसके घर में!'शत्रुघ्न ने अग्निशर्मा को दोनों हाथ से उठा कर कंधे पर डाला... और ब्राह्मण मुहल्ले में जाकर, यज्ञदत्त के घर में घुसा...'पुरोहित, ले तेरा यह बेटा! आज का हमारा खेल पूरा हो गया!' यों कहकर खटिया पर अग्निशर्मा को फेंका और हंसता हंसता वह घर से बाहर निकल गया!खटिया में गिरते ही अग्निशर्मा बेहोश हो गया। सोमदेवा और यज्ञदत्त खटिया के पास बैठ गये। रोते-रोते अपने कलेजे के टुकड़े के शरीर को सहलाने लगे। आज कुछ मिनटों में ही उसकी बेहोशी दूर हो गई... परंतु उसका शरीर बुखार से तप रहा था। भयंकर ठंढ़ से उसका शरीर कांप रहा था।'मुझे कुछ ओढा दो..माँ! मुझे बहुत ठंढ़ लग रही है...ओ... माँ, मुझे बचाओ ! ये राक्षस मुझे मार डालेंगे!'यज्ञदत्त ने अग्निशर्मा को चार रजाई ओढ़ाई...! घर में से औषध निकालकर उसके हाथ-पैरों में लगाई...। काली मिर्च-मसाले डालकर दूध को गरम किया और उसे पिलाया। कुछ देर बाद अग्निशर्मा को नींद आ गई। पर सारी रात, यज्ञदत्त और सोमदेवा कुछ भी खाये-पीये वगैर बेटे की खटिया को पकड़े बैठे रहे।दुःख-संत्रास और विडंबना ने उसके मुँह को सी दिया था। सोमदेवा मन ही मन ईश्वर को उपालंभ देती रही.. और यज्ञदत्त मन में ईश्वर का स्मरण करते रहे।
NEXT PART – राजा से शिकायत