रेलवे स्टेशन की भीड़ भले ही रोज़ की तरह थी—ट्रेनों की आवाज़ें, चायवालों की पुकार, भागते कदम, और अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चेहरे—लेकिन उस शाम की हवा में एक अजीब-सी घबराहट तैर रही थी। जैसे समय खुद थक चुका हो… रुक जाना चाहता हो, कुछ कहना चाहता हो, पर अपनी नियति से बंधा… आगे बढ़ने के लिए मजबूर हो।
संयोगिता की साँसें बेतहाशा चल रही थीं, जैसे हर धड़कन उसके भीतर से निकलकर स्टेशन की फर्श पर बिखर रही हो। उसका घाघरा रेगिस्तान की मिट्टी से सना हुआ था, उसके पैरों की थकान ने जैसे आत्मा तक को थाम लिया हो। खुले हुए बालों में धूल अटकी थी, और उसकी आँखें—वो आँखें किसी तूफान से बचकर नहीं, लड़कर आई हुई स्त्री की तरह लाल और बुझी हुई थीं।
हर लहराती पलकों के पीछे एक अधूरा सपना काँप रहा था, और होंठों पर सिर्फ़ एक नाम थरथरा रहा था—"आदित्य!"
संयोगिता को अब किसी रीति-नीति का डर नहीं था। समाज क्या कहेगा, लोग क्या समझेंगे—इन सब सवालों की जगह एक आग ने ले ली थी, जो उसके सीने से उठकर उसकी रगों में दौड़ रही थी। उसका रोम-रोम आदित्य को पुकार रहा था, हर धड़कन एक इबादत बन चुकी थी।
वो खुद से बार-बार कह चुकी थी कि उसे भूल जाना चाहिए…
वो ये भी सोच चुकी थी कि आदित्य को रोकना अब उसके वश में नहीं…
पर उस शाम… उस एक पल में… दिल ने सब तर्क, सब दलीलें तोड़ दीं।
अब वो सिर्फ़ एक लड़की नहीं थी—वो एक प्रेमिका थी, जिसे अपने प्रेम को खोने का भय था, और जिसने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए… वो उसे यूँ चुपचाप नहीं जाने देगी।
जब आदित्य की गाड़ी पकड़ने का वक्त आया, तब ही संयोगिता को एहसास हुआ कि वो उसे ऐसे नहीं जाने दे सकती। चाहे उसने लाख दलीलें खुद को दी हों, लेकिन दिल की आवाज़ ने अब दीवारें तोड़ दी थीं।
वो पायल की झंकार और रूह की तड़प के साथ स्टेशन की ओर भागी। हर कदम पर मन में यही डर था कि कहीं देर न हो जाए।
स्टेशन का शोर, सिटी बजाती ट्रेन, और प्लेटफॉर्म पर भागते लोग—उसकी साँसे जैसे किसी अनकहे तूफान में उलझ रही थीं।
वो जब प्लेटफॉर्म पर पहुँची, ट्रेन की सीटी बज चुकी थी।
गाड़ी चल पड़ी थी…
संयोगिता की नजरें बेकाबू होकर डब्बों को खंगालने लगीं—शायद कहीं एक झलक दिख जाए… आदित्य की।
उसने पुकारा—"आदित्य!"
आवाज़ भीड़ में घुल गई।
उसने फिर पुकारा, इस बार ज़ोर से—"आदित्य!!"
कोई जवाब नहीं।
गाड़ी अब रफ्तार पकड़ चुकी थी।
संयोगिता दौड़ पड़ी थी ट्रेन के साथ, जैसे उसकी हर साँस अब सिर्फ़ एक आख़िरी कोशिश में लगी हो। घुटनों तक भीग चुका घाघरा पैरों में उलझ रहा था, उसके पाँव छिलकर लहूलुहान हो चुके थे, लेकिन उसे उस दर्द का कोई अहसास नहीं था। उसके लिए अब केवल एक ही सच बचा था—आदित्य।
उसकी साँसे फट रही थीं, हृदय फेफड़ों से आगे दौड़ रहा था, और कदम जैसे ज़मीन पर नहीं, किसी प्रार्थना के भरोसे भाग रहे थे।
भीड़ उसे धकेलती रही, सीटी की आवाज़ और इंजन की गरज ने माहौल को चीर डाला, लेकिन संयोगिता की आँखों में सिर्फ़ एक ही लौ जल रही थी—
“एक बार… बस एक बार उसे देख लूँ…”
उस नज़र की प्यासी निगाहें ट्रेन की हर खिड़की पर दौड़ रही थीं, जैसे उन्हें अपनी मंज़िल से मिलने की ज़िद हो। आँसू, पसीना, मिट्टी—सब मिलकर उसके चेहरे पर एक ऐसी कहानी लिख रहे थे, जो अधूरी रह जाए तो शायद पूरी उम्र सिसकती रहे।
लेकिन आदित्य उस ट्रेन में था या नहीं—ये अब तक सिर्फ़ उसकी उम्मीद थी।
ना कोई चेहरा खिड़की से झाँका, ना कोई जान-पहचान की झलक मिली।
संयोगिता हाँफती हुई ट्रेन के पीछे भागती रही, जब तक उसकी साँसे हार नहीं गईं।
एक मोड़ पर पायल टूटकर गिर गई।
गाड़ी अब सिर्फ़ एक लकीर-सी बन चुकी थी, और अंततः धुएँ के बादलों में खो गई—जैसे किसी उम्मीद का अंतिम संस्कार हुआ हो।
संयोगिता वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठ गई, घुटनों में चेहरा छिपा लिया और बेतहाशा रोने लगी।
आज पहली बार उसने अपने दिल की सुनी, लेकिन किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया।
शायद आदित्य गया ही नहीं था उस ट्रेन से,
या शायद… गया भी था, पर किसी और डिब्बे से,
या शायद… जानबूझकर छिप गया,
या शायद… संयोगिता के पुकारने पर भी उसने सुनना नहीं चाहा…
जो भी हो, जवाब अधूरे थे।
जैसे उनका प्यार।
एक प्रेम कहानी फिर अधूरी रह गई…
ट्रेन धुआँ छोड़ती चली गई—जैसे किसी सपने की चिता जल रही हो।