काफला यू ही चलता रहा ------(2)
ये उपन्यास की हर कड़ी एक बेहद ही रोचक है। समझने योग बात यही है। कि गरीब कैसा आपना जीवन जीता है, और जो बादशाहत उनके यहां है, और कही नहीं मिलेगी।
अशोक दा सुबह जल्दी उठा... बोतल एक लीं। और खोहली खुली छोड़ कर आ गया था... पहले पेट साफ जरुरी होता है... ज़ब तुम एक दो किलोमीटर चल कर जाओगे तो पेट साफ होने से कोई नहीं रोक सकता।
अमरीका कनेडा मे पेट न साफ होने की वजह यही है।
बैठ चूका था एक मक्के के खेत मे, बस पीछे से आवाज़ आयी थी... "दादा जो आपना अहमद वही टेलीग्राम वाले का बेटा ...."
"हाँ बात भी करोगे आगे.... "
हाँ, उसको अंग्रेजो ने गोलियों से मार दिया... आज की अख़बार मे आया है। "
फिर कच्ची पगडंडी पर थे दोनों।
" ज़ब अच्छे पैसे जहाँ पर है, तो बाहर वदेश मे मादर जात कया करने गया था... तेजा तू बता "
"कहते है उधर का डालर इधर 70 रुपए मे चलता है... दादा। "
कया सुन कर तुम भी बेटे को भेज देना... वहा पर फिर -------" जैसे अशोक चुप हो गया।
" सुना है अख़बार मे कल किसी कलाबती ने प्रेमी के लफड़े मे जान दें दी। "
ये सुन कर हस पड़ा.... अशोक। " तुम काहे हसे हो "
"--- ये सोच कर कलाबती तेरी मौसी थी पहले दिनों मे, मेरे से वो भी बहुत लज्जत थी, फिर कया अपुन एक दिन सब पैसा जुए मे हारा ----- फिर कया हुआ जानते हो।"
"हाँ दादा जानता हूँ... " बीस वार सुना चुके हो -----" उसने तुम्हे छोड़ दिया... "
"बस यही बात समझानी थी अपुन ने तुमको.... पैसे मे मत इतना पड़ियो। "
"--चितामनी ही देख लो... आपने बेटे की तरफ फुरसत कम है... रोज जानवर पीता है, मीट खाता है... जनानी बाज़ जैसा बाप..." फिर दोनों चुप।
दोनों की पगडंडी अलग हो गयी थी। दातने करते हुए जा रहे थे। सूर्य भगवान थोड़ा सा उच्चा हो गए थे। धुप की रौशनी एक दम सटीक पड़ रही थी... एक सामने टावर पर जो काफ़ी उच्चा था। जहाजो के रास्ते का चालक था... उसमे लाइट जगती रहती थी। सायरण की गुज वही से आती थी। सोचते सोचते वो सीधा खुरली मे पहुंच गया था... यही रोज की दिन चर्या थी।
मुँह पर पानी का हाथ मारा... आज दिल नहीं था दादा का नहाने को।
बड़ा घर पर ही था। वो शायद पिता को उडीक रहा था... आज उसकी तैयारी थी.. दिल्ली एयरपोर्ट जाने की। पिता से वो बात कर चूका था।
कालिया खुद आ रहा है.. आज लड़न से। शायद दो दिन बापू मे घर न आऊ... टेलीफोन कर दुगा एसएसटीडी से।
ये कह कर बिना कुछ कहे निकल चूका था।
यही जिंदगी होती है.. गरीब और उसके बच्चों की।
उनको हवा मे बाते करना नहीं आता।
कहानी का प्लाट इसका यही खत्म हो गया।
दूसरा चल पड़ा।
दूसरा बच्चा बड़े से छोटा नाम रामकृष्णा था। पर काम कलयुग के ऐसे वैसे ही थे। बाप के सस्कार जो खून मे कही न कही दिख ही जाते है।
सौ दिख ही रहे थे। एक बाज़ी मोटी जीता था.. होंगे उस वक़्त दस हजार से ऊपर रकम।
अब बस, " सालो रात से घर नहीं गया बाप कया सोचता होगा। "
चल हरामी... बाते बनाता है... वो कया तुझे जानता नहीं।" साथ वाले ने जानकर घुसड़ बात की थी।
थोड़ा हला गुला भी चाहिए....
एक बाजू का मसल उसके मुँह पर पड़ा... वो पीछे दीवार से जा टकराया।
उठा ही था, फिर उसने इतनी जोर से लात मारी.. सास दोनों की फुल गयी। वो बहुत आगे गिरा जा कर।
बीच मे जगू यारों का यार आ गया... " अब किसी ने भी हाथा पायी की , तो कल से वो यहाँ नहीं आएगा। "
" हरामी कैसे बोला मादर जात "
" देख लुगा... " कहते कहते सास रल नहीं रहे थे चल गया।
उधर पैसे इकठे किये रामकृष्ण भी चला गया।
ये सायरण की दूसरी सिफ्ट थी... दूसरी आवाज।
सूरज की तेज धुप...
सिर पर था सूर्य भगवान।
(चलदा ) --------------------------- नीरज शर्मा