२. परग्रही आँखें
ग्यारह साल पहले…
महान शैलवंती साम्राज्य कई युद्ध का सामना कर चूका था। शैलवंति के मुख्य द्वार के आगे की रणभूमि कई खेले जाने वाले युद्ध की गवाही देती थी। रणभूमि के उस पार गाढ़ जंगल हमेशा अटूट निंद्रा में सोया रहता था। असंख्य युद्ध के समय अपनी अटूट निद्रा को तोड़ कर उठ बैठता था। असंख्य हमलों को झेलने के बाद शैलवंती काफ़ी मजबूत हो गया था। उनकी दीवार ऊँची और मजबूत थी, जिसे भेदना दुश्मनों के लिए चींटी के पैर से हाथी को कुचलने जैसी बात थी।
तीन हिस्सों में बटी शैलवंती के राजभवन की ऊँची इमारतें काफ़ी सुन्दर दिखती थीं। आधे वृत्त की तरह तीनों महल खड़े थे। मुख्य महल बीच में था, जो गौण महल से बेहद ऊँचा था। छोटे-मोटे महल काफ़ी दूर तक पसरे थे। मुख्य महल में राजसभा, पुस्तकालय, शाही मुद्रा और गौण महल में अधिकारी के आवास, रसोई घर, चिकित्सालय, हथियारों के गोदाम इत्यादि। गौण महल का एक ऐसा कक्ष जहाँ पर किसको जाने की अनुमति नहीं थी। कक्ष के दरवाजे सालों से बंद पड़े थे।
(यह संवाद अर्पि भाषा में है)
“यह कक्ष बंद क्यों रखा होगा? छिपाने जैसा कुछ लग तो नहीं रहा! टूटी-फूटी चीजों का खदान। इन पुरानी चीजों को रखने का तात्पर्य क्या हो सकता है?” शिला नीचे कोई लड़का दबा हो और निकलने का प्रयास कर रहा हो ऐसी एकदम मंद आवाज़ अँधेरे से उत्कर्ष ने सुनी।
अँधेरे में दुबके मलकित को उत्तर देते उत्कर्ष धीमी आवाज़ में बोला, “मदद की आवश्यकता है, मलकित?”
“वजनदार है; अँधेरे में कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा।” फिर से वही अंदाज में उत्कर्ष ने आवाज़ सुनी।
किसी को भी उस कक्ष में जाने की अनुमति नहीं थी, उस कक्ष में नन्हे मलकित और उत्कर्ष पहुँच चुके थे। हालाँकि कक्ष के दरवाजे सम्पूर्ण बंद थे। यहाँ तक की पहरेदार भी हमेशा तैनात रहते थे। बंद कक्ष के अंदर क्या हो सकता है, इस जिज्ञासा ने उन दोनों के अंदर जनून पैदा कर दिया था। दरवाजे से जाना मुश्किल था इसीलिए उन दोनों ने महल के पीछे से रास्ता ढूंढ़ लिया, जहाँ घने पेड़ो का उपवन था। पीछे कोई दरवाजा नहीं था। कई दिन तक कक्ष की दीवार के पत्थर को कुरेद कर रास्ता बनाया। रास्ता देखकर यही मालूम पड़ता था कि एक ही बच्चा, एक वक्त पर लेट कर अंदर घुस सकता था। किसी की नज़र में न आए उस तरह पेड़ के झुरमुट से छेद ढँका था।
यह तीसरा दिन है। कक्ष अँधेरे से भरा था, सिर्फ छेद के इर्दगिर्द हल्का उजाला था। अँधेरे के कारण वे सिर्फ कुछ चीजें ही देख पाए थे, कक्ष को निश्चिंत रूप से देखने के लिए दोनों ने पूरा बंदोबस्त कर लिया था। दबी आवाज़ में बाते कर रहे थे ताकि दरवाजे के उस पार खड़े पहरेदार सुन न ले।
“तुम्हें कुछ दिखाई दे रहा है या फिर मैं मृगज्योत का इस्तेमाल करूँ?” उत्कर्ष अपनी जेब टटोलने लगा।
“नहीं! रुको, अपने पास ज़्यादा नहीं है। मृगज्योत सिर्फ कुछ वक्त तक चलेगी, हम यूँ इसे बर्बाद नहीं करेंगे। बड़ी मुश्किल से महल से चुराई है। चुराते वक्त किसी ने हमें देख लिया होता तो हमारी पीठ लाल होना तय था।”
उत्कर्ष ने जेब से अपना हाथ बाहर निकाल लिया, “संदूक को तुम बाहर क्यों निकालना चाहते हो?”
मलकित अँधेरे से बाहर निकल कर उत्कर्ष के सामने खड़ा हो गया। “संदूक के अंदर कुछ तो ऐसा है जो शरीर को एकदम शक्तिशाली महसूस करवाता है। मन एकदम तेजी से सोचने लगता; उमदा विचारों के साथ।” वापस अँधेरे में चला गया। “संदूक को उजाले में लाने में मेरी मदद करो, फिर तुम इस संदूक के ऊपर बैठकर देख लेना, खुद-ब-खुद जान जाओगे।”
उत्कर्ष उसके पीछे अँधेरे में चला गया। कुछ वक्त के बाद दोनों संदूक के साथ उजाले में पहुँचे। तीन फुट लम्बे और एक फुट मोटे बैगनी रंग के संदूक पर अति सूक्ष्म अद्भुत वृक्ष की नक्काशी बनी थी। मिट्टी की परत के कारण बैगनी रंग कुछ हद तक भूरा हो गया था।
“अब संदूक पर बैठकर बताओ; कैसा महसूस होता है।” हाँफते हुए मलकित बोला। वह साँसो की गति पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगा।
उत्कर्ष संदूक पर सवार हो गया। कुछ क्षण के बाद उत्कर्ष बोला, “कुछ महसूस नहीं हो रहा।”
मलकित उसके सामने संदूक पर सवार हो गया। “बेहद आनंद आ रहा है। तुम्हें कुछ क्यों नहीं हो रहा, यह मैं नहीं जानता।…इसमें कोई जादुई चीज लगती है। क्या हम इसे खोलकर देखे?”
उत्कर्ष के चेहरे पर डर छा गया। वह बोला, “नहीं, नहीं! कोई बुरी चीज बाहर आ गई तो…कक्ष को पहले ही प्रवेश निषेध कर दिया। हो सकता है कि इस संदूक के अंदर कोई बुरी चीज हो!” उत्कर्ष तुरंत संदूक से उतर गया।
“तुम बेमतलब डर रहे हो। यही बुरी चीज होती तो पिताजी क्या इस महल में रखते!” मलकित संदूक से उतरा और संदूक खोलने का प्रयास करने लगा। परन्तु संदूक का ढक्कन होने के कोई सबूत नहीं मिल रहे थे।
“मुझे यह ठीक नहीं लग रहा।”
“अरे! तुम डरना छोड़ो और इसे खोलने में मेरी मदद करो।” बहुत भार देने पर उत्कर्ष ने संदूक को हाथ लगाया। ढक्कन ढूंढने लगे ताकि अंदर क्या चीज है यह जान सके। संदूक के इर्दगिर्द सारी सतह पर हाथ फिरा लिया; हलकी दरार भी हाथ न लगी।
उत्कर्ष हार मानते बोला, “यह खुलता होगा या सिर्फ दिखावे के लिए बनाया गया है! मुझे तो यह सिर्फ एक खोखला पत्थर लग रहा है।”
“हलकी रोशनी में शायद कुछ छूट रहा है। रोशनी में हम अच्छे से जाँच कर सकते है।”
“मृगज्योत जलाई जाए? मृगज्योत पहली बार इस्तेमाल करने के लिए मेरे हाथ बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।”
“हाँ, परन्तु हम संदूक को खोलने में वक्त जाया नहीं करेंगे। सर्व प्रथम कक्ष का हर एक कोना देखेंगे। यदि समय मिला तो हम इस संदूक को भी देख लेंगे।”
“…शुरुआत की जाए…?” उत्कर्ष ने जेब टटोल कर दो छोटी लाल शीशी निकाली।
कहीं से धातु का छड़ ढूंढ़कर मलकित ने उत्कर्ष को दिया। “…संभाल कर, खुद को सुरक्षित रखना।”
एक शीशी मलकित को दी, दूसरी का ढक्कन खोलकर धातु का छड़ मलकित के हाथ से ले लिया। छड़ के अगले हिस्से पर शीशी से कुछ चिकना प्रवाही गिरा कर, छड़ गोल घुमाकर उसकी सतह पर फैलाने लगा। चिकने प्रवाही पर मलकित ने शीशी से रेत जैसा पाउडर डाला। सफ़ेद ज्योत अचानक से छड़ पर प्रकट हो गई और कक्ष में उजाला फ़ैल गया। कक्ष काफ़ी बड़ा था, इतनी रोशनी में पूरा देख पाना मुश्किल था। दोनों छड़ को लेकर कक्ष में दबे पाँव चलने लगे।
टूटी हुई तलवारें, धातु के खाली बक्से, जंजीरे, एक तरफ़ चंद्र आकार और दूसरी तरफ़ नुकीले भाले जैसे शस्त्र, धातु के बर्तन, टूटे हुए लकड़ी के मेज, भांति -भांति के शस्त्र जिसे उन दोनों ने आज तक नहीं देखे थे। मृत्यु दंड के लिए बनाए गए मशीन सहित कई ऐसी वस्तुएँ थीं जिससे वह दोनों अनजान थे। केवल बीस प्रतिशत ही कक्ष की चीज-वस्तुओं के बारे में जानते थे।
“किसी भी क्षण में मृगज्योत बुझ सकती है।” दोनों कक्ष में भ्रमण करके संदूक के पास लौट चुके। मलकित हथेली को आगे बढ़ाते हुए बोला, “देखो, खूबसूरत मुद्रा! इस पर बना दरारों वाला सिर, मुद्रा की खूबसूरती पर कलंक लगा रहा है।” तीन हरे धातु की मुद्रा मलकित के हाथ में थीं। बारीक नक्काशी के साथ बेहद खूबसूरत दिखती थीं।
“पसंद आ गई मुझे; क्या मैं एक रख सकता हूँ?”
“रख लो, किन्तु हमारे दो के अलावा इस मुद्रा के बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए।”
मुसकुराकर उत्कर्ष ने एक मुद्रा ले ली। बोला, “यह मुद्रा किस राज्य में चलती होगी? हमारे राज्य की तो बिलकुल नहीं लग रही!”
“किसी भी राज्य की हो…हमें खर्च थोड़ी करनी है। बाते बाद में भी हो सकती है, मृगज्योत कुछ ही क्षण में बुझ सकती है। जल्दी से हम संदूक को देख लेते हैं।”
संदूक की ओर छड़ बढ़ाकर दोनों चारों ओर से देखने लगे। अचानक कक्ष में अंधेरा छा गया; मृगज्योत बुझ चुकी थी। “थोड़ी देर चल जाती तो कुछ-न-कुछ मिल ही जाता।” उत्कर्ष ने छड़ धीरे से जमीन पर रख दी।
“इस बार देख नहीं पाए तो क्या हुआ, कल तो हमारा ही है न!”
“जेली और पाउडर चुराना मुश्किल है। मुश्किल से चुरा पाए आज।”
“चलना चाहिए अब, कहीं ऐसा न हो की हमारे माता-पिता हमें ढूंढ़ रहे हों।”
“हाँ, चलो! किरा के साथ खेलने चलते हैं।”
“बिलकुल! मैं भी वही सोच रहा था।” दोनों कक्ष के छेद की तरफ़ बढ़ गए।
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“क्या? मरा हुआ शव जिंदा हो सकता है?” सुमेर के कमरे से आवाज़ आते ही मलकित और उत्कर्ष बाहर ही ठहर गए। दोनों दीवार के पीछे छिपकर अंदर होने वाली बात सुनने लगे क्योंकि बात रहस्यमय थी।
मलकित ने अपने पिता की आवाज़ सुनी, “जादुई किताब में उसकी विधि लिखी है।” फिर उनकी आवाज़ एकदम धीमी हो गई। “शैलवंती में एक गुप्त रहस्यमय तहखाना है। बिना नक़्शे के तहखाने को ढूंढना मुश्किल ही है।”
कमरे से बच्चे के रोने की आवाज़ आई। तभी मलकित ने अपनी माँ की आवाज़ सुनी, “किरा बेटा, शांत हो जाओ। यहाँ पर आ जाओ।” कुछ वक्त के बाद किरा शांत हो चुकी थी। तभी थोड़ी ऊँची आवाज़ में मलकित ने अपनी माँ की आवाज़ सुनी, “नक़्शे की मदद से आप उधर पहुँच सके?... नक्शा आपको कहाँ से मिला?”
“श्शशश… थोड़ा धीरे…सुना है दीवार को भी कान होते हैं।” एक क्षण के लिए मलकित को लगा कि हमारे बारे में पिताजी को पता चल गया है लेकिन तभी वह वापस बोल उठे, “पुस्तकालय से वह नक्शा मेरे हाथ लग गया, काफ़ी पुराने कागज पर चित्रित था। नक़्शे का अनुसरण किया और वह मुझे अद्भुत तहखाने में ले गया। बहुत ही शक्तिशाली राज़ छिपे हैं। इसलिए मैंने उस नक़्शे को नष्ट कर दिया।”
“आपकी बातें सुनकर मुझे वहाँ जाने की बहुत इच्छा हो रही है; आप मुझे वहाँ पर ले जाओगे?”
“माफ करना प्रिये, मैं तुम्हें वहाँ पर नहीं ले जा सकता। यदि किसी ने देख लिया तो सारे राज़ खुल जाएंगे। कुछ रहस्य ऐसे भी है, जो शैलवंती की धरोहर को गिरा भी सकते हैं। मुझे यकीन है कि तुम मेरी बात को समझोगी।”
लिसा ने अपना सिर हाँ में हिलाया। लिसा बोली, “शव जिंदा कैसे हो सकता है? यह सुनकर मुझे किताबों से भरोसा उठने लगा।”
“मुझे पता है तब तक शैलवंती की एक भी किताब में जूठा वर्णन नहीं किया गया। एक किताब में तो ऐसी जगह का वर्णन है; मुझे विश्वास ही नहीं होता! असंख्य मनुष्य से वह जगह छिपकर कैसे रह सकती है! यकीन करना पड़ता है प्रिये; शैलवंती की किताबों में हमेशा सच्चाई होती है, यह तुम हमेशा याद रखना।”
“वह कौन-सी जगह है, जिसके बारे में लोग आज तक नहीं जान पाए!”
“वह जगह-” तभी उत्कर्ष की ज़ेब से सिक्का गिरा और टँकार पैदा हुआ। “कोई यहाँ पर आ रहा है।”
मलकित ने दबी आवाज़ में कहा, “तुम एक सिक्का ठीक से नहीं रख सकते!”
“उसमें मेरी कोई गलती नहीं है। ज़ेब फट गई है।” उत्कर्ष ने तुरंत सिक्का उठाया लिया।
“माँ और पिताजी यहाँ पर आ जाए उसके पहले चलो।”
दोनों ने कमरे में प्रवेश किया तभी लिसा बोल उठी, “तुम दोनों…?”
लिसा का चेहरा चंपा के फूल की तरह सफेद था। खुल्ले भूरे बाल पानी की तरह लहरा रहे थे। उनकी नीली आँखों में नमी थी। राजघराने की तरह उसने मखमल हरे और सफेद रंग का मिश्रित परिवेश धारण किया था। गोद में एक छोटी बच्ची अपनी माँ के रेशमी बालों को पकड़ ने की कोशिश कर रही थी। लिसा बिलकुल एक महारानी की तरह लग रही थी, लेकिन वह महारानी नहीं थी। उसी बिस्तर पर लिसा के पति सुमेर बैठा था। उन दोनों की उम्र तक़रीबन पैंतीस साल के आसपास होगी।
अर्पिता धरती आजाद होने के बाद शैलवंती के तख़्त पर राजा के रूप में मास्टर उर्वा की प्रतिमा स्थापित की थी। शैलवंती की पुरानी किताबों में लिखा था कि मास्टर उर्वा पराक्रमी थे। शैलवंती की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी जान न्योछावर कर दी थी। इसलिए यहाँ के लोग इन्हें महान राजा की उपाधि दे चुके थे। संचालन के दौर पर सुमेर और राजा के रूप में मास्टर उर्वा थे।
सुमेर बोला, “दोनों यहाँ अचानक कैसे प्रकट हो गए।…तुम्हारे कपड़े इतने गंदे कैसे हो गए?”
किरा के सामने बिस्तर पर चढ़कर मलकित बोला, “पिताजी, उपवन में खेल रहे थे तो कपड़े गंदे हो गए। हम किरा के साथ खेलने आए हैं।” किरा के गाल पकड़ कर वह प्यार से खिंच ने लगा।
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“क्या तुम अपनी काली आँखों का राज़ नहीं जानता चाहते? सिर्फ तुम्हारी और अंति(अवंतिका) की आँखें ही काली हैं, बाकी सबकी आँखें नीली हैं।” मलकित ने उत्कर्ष को कहा।
अर्पिता धरती पर सिर्फ दो लोगों की आँखें काली थीं। अवंतिका और उसका बेटा उत्कर्ष। मलकित और उत्कर्ष के बीच कई बार इस बात को लेकर कई बार सवाल पैदा हुए थे, किन्तु उन दोनों को आज तक पुख्ता जानकारी नहीं मिली। शैलवंती के बाज़ार में जाने की अनुमति आज दोनों को पहली बार मिली थी। बहुत खुश थे दोनों। बातें करते दोनों शैलवंती की बस्ती से गुजरने लगे।
“जानना तो चाहता हूँ लेकिन हमारी बात का जवाब कौन देगा? मेरे बारे में कौन जानता होगा? क्या सच में मैं दूसरी दुनिया का हूँ?”
“तुम हो तो दूसरी दुनिया से…यहाँ तुम और अंति कैसे पहुँचे यह जानना मुश्किल है।”
“यहाँ के बुजुर्ग तो हमारे बारे में जानते ही होंगे। क्या हम उनसे पूछे?”
सामने चले आ रहे बुजुर्ग की तरफ़ इशारा करते हुए मलकित ने कहा, “हम उस दादू को पूछते हैं, शायद वे कुछ जानते हो।”
दोनों दौड़ते हुए बुजुर्ग के सामने खड़े रह गए। बुजुर्ग अपनी सफ़ेद दाढ़ी को हाथ से सहलाते हुए उन दोनों को देखने लगे और अचानक से मुसकुरा उठे। भौंहें चढ़ाकर रास्ता रोकने का कारण इशारों में पूछा।
मलकित बोला, “दादू, उत्कर्ष और अंति दूसरी दुनिया से है? नहीं है, तो इसकी आँखें काली क्यों हैं?”
बुजुर्ग कराहते कमर से झूके और उत्कर्ष की आँखों से आँख मिलाते बोले, “इसमें कोई शक नहीं कि यह दूसरी दुनिया से है।”
“मेरी माँ मुझे कभी भी पिताजी के बारे में नहीं बताती? आप उनके बारे में कुछ जानते हैं?”
बुजुर्ग कमर से सीधे होते हुए हँसे। “कई लोग मैंने इस धरती पर देखे; उनमें तुम्हारे पिता सर्व श्रेष्ठ थे। उनकी प्रशंसा करना मेरे मुँह को शोभा नहीं देता।”
“इस वक्त वह कहाँ है... आप जानते हैं?” उत्कर्ष अधीरता दिखाते बोला।
“वह योद्धा थे, दूसरे के लिए लड़ने वाले; शैलवंती का रखवाला। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता। तुम अपनी माँ से क्यों नहीं पूछते?”
“बहुत बार कोशिश की, किन्तु वह हमें ज़्यादा कुछ नहीं बताती। मेरे पिता को देखना है मुझे। पिताजी के बारे में मुझे कोई बताता ही नहीं!” उत्कर्ष की आँखें सजल हो गई। उसे देख बुजुर्ग और मलकित भी भावुक हो गए।
“बच्चे, उदास मत हो। अर्पिता देवी से मैं प्रार्थना करूँगा कि तुम्हें जल्द ही अपने पिताजी मिल जाए।” बुजुर्ग ने उत्कर्ष का सिर थपथपाया।
“वह कभी नहीं मिल पाएंगे। माँ ने बताया कि वह इस दुनिया में नहीं रहे…। सिर्फ मैं अपने पिता के बारे में जानना चाहता हूँ।”
“माफ़ी चाहता हूँ! मैं इस बात से बिलकुल अनजान था।” उदास बुजुर्ग बोला और फिर मन में बुदबुदाया, “देवी अर्पिता उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।”
मलकित ने आश्वासन देते हुए उत्कर्ष के कंधे पर हाथ रखा और बोला, “उदास मत हो, तुम्हारे पिताजी के बारे में हम जरूर जानेंगे। महल से बाहर जाने की परवानगी हमें मिल चुकी है।”
बुजुर्ग की तरफ़ नज़र घुमाकर मलकित बोला, “उत्कर्ष के पिता और अंति इस धरती पर किस प्रकार पहुँचे, दादू?
“रहस्य बनकर रह गया है। आने वाले के अलावा कोई नहीं बता सकता कि वह यहाँ कैसे पहुँचे। बच्चों तुम्हारे सवाल मुझे पेचीदा लग रहे हैं, मुझे अब चलना चाहिए।” बुजुर्ग मुसकुरा दिए और आगे चल दिए।
कौतूहल से मलकित समझाने लगा, “ तुम्हारे पिता और अंति जैसे आए होंगे वैसे जा भी सकते होंगे। जाने का मार्ग पता चल गया तो तुम अपने घर वापस लौट सकते हो। क्यों न तुम्हारे पिता वहीं पर हो! वैसे भी अंति ने कहा है कि वह इस दुनिया में नहीं रहे!”
उत्कर्ष की आँखें चमक उठी, “पिताजी हमारी दुनिया में जिंदा है! क्या सच में कोई ऐसा मार्ग हो सकता है?”
“आने का है तो जाने का बिलकुल हो सकता है।”
“वापस लौटने का प्रयास माँ ने आज तक क्यों नहीं किया?” आँख के कोनों में हल्का गुस्सा छलक गया।
“प्रयास किया हो, मगर विफल रहे हो! तुम फिक्र मत करो, बड़े होकर हम मार्ग ढूंढेंगे; तुम्हें और अंति को तुम्हारे घर पहुँचा देंगे; तुम्हारे पिताजी के पास। यह मेरा वादा है तुम से…।”
“बाजार में जाने का मन उड़ गया है। पिताजी के बारे में जब तक जान नहीं लेता तब तक मुझे चैन नहीं पड़ेगा।”
“चलो, अंति से पूछते है।”
“वह हमें कतई कुछ नहीं बताएगी। काफ़ी बार पूछ चूका हूँ मैं।”
“जरूर बताएगी; इस बार मैं पूछने वाला हूँ।” दोनों ने महल की तरफ़ रास्ता मोड़ लिया। सीधे दोनों अवंतिका के कक्ष में पहुँच गए।
चौतीस साल की अवंतिका का चेहरा गोल और गेहूं रंग का था। बालों को समेट कर जुड़ा बनाया था। अवंतिका ने भी लिसा के भांति मखमल के वस्त्र धारण किए हुए थे। गले में मोती की माला लटक रही थी। अवंतिका बिस्तर पर गोद में दो साल की किरा को लिए बैठी थी।। किरा के छोटे बालों का जुड़ा बनाती हुए कुछ गीत गुनगुना रही थी।
दोनों के प्रवेश के साथ ही अवंतिका की नज़र उन दोनों पर पड़ी। आश्चर्य से देखते हुए अवंतिका बोली, “तुम दोनों यहाँ पर…? लिसा ने तो बताया कि तुम बाज़ार में घूमने जा रहे हो!”
मलकित ने बिस्तर के नजदीक जाते हुए कहा, “कुछ प्रश्न मन में आए तो उसके जवाब के लिए हम यहाँ आ गए।” मलकित ने किरा के गाल पर चुम्मी ली।
यह देख कर अवंतिका मुसकुराते बोली, “बहुत प्यार करते हो अपनी बहन से…?”
“हाँ, मेरी प्यारी किरा…” उसने किरा के गाल हल्के से खींचे और मुसकुरा दिया।
“आज कौन-सा प्रश्न खड़ा किया है तुम दोनों ने…??”
उत्कर्ष शांत खड़ा रहा। मलकित बोला, “अंति, तुम और उत्कर्ष के पिताजी इस दुनिया में कैसे पहुँचे? आप किस धरती से आए? उत्कर्ष के पिता इस वक्त कहाँ है? अपनी दुनिया में जाने का रास्ता तुम जानती हो?”
अवंतिका का मुँह कुछ क्षण फटा रह गया। वह चिढ़ते बोले, “किस प्राणी ने तुम दोनों को फूँक मार दी! कैसी बहकी-बहकी बाते कर रहे हो। क्या हाल बना रखा है तुम दोनों ने…” गंदे कपड़ों को वह गुस्से से देखने लगी।
“माँ, सिर्फ पिताजी के बारे में जानना चाहता हूँ मैं। वह जिंदा है या…”
“बेटे मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हूँ। भूतकाल को भूल जाओ और भविष्य के बारे में सोचो। उगते सितारे हर दिन तुम दोनों को कुछ नया सिखाएंगे। ऐसी बहकी बाते मेरे सामने तो क्या, किसी के सामने मत करना।”
पाँव तले दबती मिट्टी की तरह अवंतिका ने मलकित के सारे सवाल दबा दिए। सुमेर और लिसा को यह सवाल करना; नंगे पाँव आग में चलने जैसा था। डरने के लिए उन दोनों के पास एक ही वजह थी, ‘अगर शरारत की तो दूर पाठशाला में छोड़ देंगे’। इन्हीं बाते ने दोनों पर लगाम बनाई रखी थी। पाठशाला का नाम सुनते ही उन दोनों के पाँव तले जमीन खिसक ने लगती थी।
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