Kodhi number 17 in Hindi Horror Stories by ranjana books and stories PDF | Kodhi number 17

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Kodhi number 17

सर्दियों की ठंडी रात। घना कोहरा हर चीज़ को अपनी सफेद चादर में छुपा चुका था। शहर की पुरानी गली में एक अकेला मकान खड़ा था—कोठी नंबर 17। यह मकान वर्षों से वीरान था। कहते हैं, जो भी यहाँ गया, वापस नहीं लौटा। लेकिन इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन होता है—उसकी जिज्ञासा।

रवि—एक खोजी पत्रकार, जिसने तय किया कि वह इस मकान के रहस्य से पर्दा उठाकर रहेगा।

रात के 1:45 बजे। रवि ने कोठी का जंग लगा दरवाजा खोला।

"क़र्रर्रर्र..."

दरवाजा खुलते ही एक ठंडी हवा का झोंका आया। लगा जैसे कोई अदृश्य साया वहाँ खड़ा हो। अंदर घना अंधेरा था, सिर्फ़ उसकी टॉर्च की रोशनी फर्श पर अजीब आकृतियाँ बना रही थी। हर कदम पर लकड़ी के फर्श से आती "चट... चट..." की आवाज़ उसकी धड़कनें तेज कर रही थी।

कमरे में दीवारों पर अजीब-सी आकृतियाँ बनी थीं, जैसे किसी ने नाखूनों से खरोंचकर कुछ लिखा हो। उसने नजदीक जाकर देखा—

"मुझे बाहर निकालो..."

रवि का गला सूखने लगा। अचानक हवा में एक हल्की फुसफुसाहट गूंज उठी—

"क्यों आया है?"

उसके रोंगटे खड़े हो गए। उसने टॉर्च घुमाई। कुछ नहीं। लेकिन तभी, पीछे रखी पुरानी लकड़ी की कुर्सी "चर्रर्र..." की आवाज के साथ अपने आप खिसक गई!

रवि का दिल जोर से धड़कने लगा। लेकिन उसका दिमाग कह रहा था—"यह सब सिर्फ़ दिमाग़ का खेल है।"

अचानक... दीवार पर टंगी एक पुरानी घड़ी "टिक-टिक" करते हुए अचानक 3:00 बजे पर रुक गई।

और तभी—

"ठक-ठक-ठक..."

कोठी के मुख्य दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।

रवि बुरी तरह काँप गया। यह कैसे हो सकता है? वह अकेला था।

"ठक-ठक-ठक..."

दस्तक फिर हुई। इस बार और ज़ोर से।

उसने हिम्मत करके दरवाजा खोला—

बाहर कोई नहीं था।

लेकिन... जब उसने नीचे देखा, तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

दरवाजे के ठीक सामने... गीली ज़मीन पर... उसके नाम के साथ लाल रंग में लिखा था—

"अब तेरी बारी है..."

और ठीक उसी पल... उसके पीछे किसी ने हल्के से फुसफुसाया—

"अब कभी बाहर मत जाना..."

रवि ने पलटकर देखा—

और फिर किसी ने उसे दोबारा कभी नहीं देखा...
अंतिम दस्तक – एक नया मोड़

रवि की आँखें चौड़ी हो गईं। वह दरवाजे के सामने ज़मीन पर लिखे अपने नाम को देख ही रहा था कि अचानक उसे अपने पीछे किसी के होने का अहसास हुआ। सांसें भारी, दिल की धड़कनें तेज़।

उसने धीरे-धीरे गर्दन घुमाई।

कुछ नहीं था।

पर एक अजीब बात हुई—कमरे का तापमान अचानक गिर गया। उसकी सांसें भाप में बदल गईं। वह कांप उठा।

"अब कभी बाहर मत जाना..."

वह आवाज़ अभी भी उसके कानों में गूंज रही थी।

तभी...

कमरे के कोने में पड़ी एक पुरानी अलमारी "धड़ाम!" से गिर गई। रवि चौंककर उधर भागा। अलमारी के अंदर एक पुराना फटे पन्नों वाला डायरी रखी थी।

उसने धीरे से पहला पन्ना पलटा।

"12 दिसंबर 1987
अगर यह डायरी कोई पढ़ रहा है, तो समझ लो कि मैं मर चुका हूँ।
मैंने भी वही गलती की थी जो तुमने की है... दरवाजा खोलना!
अब कोई भी तुम्हारी मदद नहीं कर सकता। अगर बचना है तो... रात के 3:15 से पहले इस कोठी से बाहर निकल जाओ। वरना तुम भी मेरा हिस्सा बन जाओगे…"

रवि का खून जम गया। उसने घड़ी की ओर देखा—

3:14

बस एक मिनट बचा था!

उसने तेजी से भागना शुरू किया। दरवाजे की ओर लपका, लेकिन...

"ठक-ठक-ठक..."

फिर वही दस्तक! पर इस बार इतनी जोर से कि पूरी कोठी हिलने लगी।

रवि ने घबराकर दरवाजा खोला...

और वह जम गया।

बाहर वही पुराना खुद का अक्स खड़ा था, लेकिन चेहरा पूरी तरह जला हुआ, आँखें गड्ढों में बदल चुकी थीं।

वह डर से चीखने ही वाला था कि अक्स ने धीरे से कहा—

"मैं तुम ही हूँ… और अब मैं बाहर जा रहा हूँ… तुम मेरी जगह यहाँ रहोगे!"

अगले ही पल, रवि के सामने अंधेरा छा गया।

सुबह 6:00 बजे

लोगों ने देखा कि रवि सही-सलामत कोठी से बाहर आ गया था।

लेकिन जो बाहर आया था, वह रवि नहीं था...