rang badalta admi-soch ka vishay in Hindi Book Reviews by ramgopal bhavuk books and stories PDF | रंग बदलता आदमी-सोच का विषय।

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रंग बदलता आदमी-सोच का विषय।

रंग बदलता आदमी-सोच का विषय।
राम गोपाल भावुक
वेदराम प्रतापति ‘मनमस्त’ के काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी बदनाम गिरगिट’ कृति का कबर पृष्ठ देखकर उसे बारम्बार पढ़ने की इच्छा होती रही किन्तु विषय रोचक होते हुए भी कृति में प्रकाशित शब्दों के आकार के कारण लम्बे समय बाद दृष्टि गई है।
आदमी के स्वभाव में है, अपने स्वार्थ के लिये हर समय गिरगिट की तरह रंग बदलते रहना। आपके काव्य संकलन में ऐसी ही अनेक रचनायें पढ़ने को मिल हैं-
रंग बदलते आदमी की भीड़ भारी,
जानना उनका कठिन है, आज प्यारे।
कौन क्या रंग ले खड़े हैं, वे सभी तो,
नहीं मिले हैं आज तक, वो साज सारे।।
संकलन को जब हाथ में पढ़ने के लिया तब सोच था- किसी कथा के माध्यम से कवि ने अपनी बात कही होगी लेकिन इसमें तो मुक्त छन्दों के माध्यम से अपनी बात रखी है।
आदमी और गिरगिट की तुलना में कवि को गिरगिट ठीक लगा है। कवि ने राजनीति से जोड़कर गधों के सींग वाली कहावत का कितना सटीक चित्रण उपस्थित किया है-
लड़ते रहे हो आज तक, खूब ही देते दुलत्ती,
रक्त की बूंद लिखेगी, लेख सारे पदों के।
भूल गये ओकाद सारी, कुर्सियाँ क्या मिल गईं,
सींग उगने लगे हैं,लग रहा इन गधों के।।
नफरतों की जंग छोड़ने के लिये कवि इन शब्दों में आग्रह करता है-मातृ भू तो है स्वर्ग के तुल्य सी,
जहन्नुम हो जायेगी, जन्नत कहाँ।
क्यों बनाते हो धरा, शमशान सी,
नफरतों की जंग, मत छेड़ो यहाँ।।
गिरगिट और आदमी की तुलना कवि इन शब्दों में करता है-
सोच लो! गिरगिट प्रकृति के साथ चलता है।
प्रकृति के अनुकूल अनुकूलन रहा है।
आदमी की बात मत पूछो कभी भी,
सब नियम घर ताक बारहमासी हुआ है।।
कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से दोस्तों और दुश्मनों की पहचान इस कदर से करता है-
कसर तो छोड़ी नहीं हैं तुमने कोई,
बहुत बोने हो गये, सच में उदर से।
दोस्तों से तो, लगा दुश्मन भले हैं,
मारते तो है, मगर नहीं इस कदर से।।
कवि को पूरा विश्वास है-
तुम्हारे ख्वावों की दुनियाँ, अभी उजड़ी नहीं है,
वो बहारों की बहर, अपने गीत ही गायेगी।
यह आसमान भी तो, भरोसे पर ही टिका हैं,
जरा सब्र करो, वो जन्नत भी , यहाँ आयेगी।।
कवि अपनी रचनाओं में मुहाबरों प्रयोग सफलतापूवर्क करता चलता है- घर का भेदी लंका ढावे, जानते हैं खूब सब,
सभी ने मिलकर यही तो, जो रों से बात कही थी।
अपनों से ही हार रहे हैं, हम तो बरसों से,
औरों की क्या बात कहें, औकाद नहीं थी।।
कवि मानता है कि कलमकारों के कारण ही कलम बदनाम हुई है-
कलम नवीसों ने ही, कलम को बदनाम किया,
बरना ये पेट की ही आग को, बुझाने चली।
यहाँ पर बिक गये कलम कार,चन्द टुकड़ों में,
मजबूर होकर यह कलम,भटकी है गली गली।।
कवि को यह सन्देह होना कि यह अमर शहीदों का देश नहीं है, इससे मन दुखी होजाता हैं।
उनका यह कथन हमें झकझोर देता है-
आज मनीषियों की आशायें, छद्म वेश है।
कलम बेचकर, साथी उनके बने, शेष है।
गुमनामी के, यहाँ कई बाजार लगे हैं,
अमर शहीदों का, लगता यह देश नहीं है।।
इस तरह रचना में जीवन के समग्र विषयों को स्थान दिया है लेकिन इसमें आदमी के पल पल बदलते स्वभाव को लेकर जो प्रहार किये है जो हमें इस कृति को पढ़नें के लिये मजबूर कर देते हैं-
कृति चेतना मूलक तो है ही साथ ही उसे भटकाव से सजग करने का प्रयास भी है।
आदमी का जीवन पशु-पछियों से भी बदत्तर हो गया है जिसके बदलाव की ओर कवि का चिन्तन रहा है-
चिन्ताओं के बाग लगाता, चिन्तन का अनमोल धरातल,
क्या भविष्य होगा? समय- सिन्धु तो बहुत बड़ा है।
अब भी समय सोच मानव,कब तक ये खिलवाड़ करोगे,
कब मनमस्त मानवी होगी, सम्हल चलो! यह माट घड़ा है।
इस तरह की भावानुभूतियों से इतर इस कृति के छन्द विधान की बात कहूँ तो वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ के शब्दों में ही देखिये- इस कृति के छन्द विधान पर मैं बस इतना ही समझ पाया हूँ-
मैं अब तक, नहीं समझ पाया इन्हें,
ये तो बस-कुनमुनाते भाव-ह्रदय की तरी के हैं।
तुम इन्हें ख्बाबे, शेर, मुक्तक, कुछ भी कहो,
चुनांचे- ये मेरी अपनी कहिन के बस तरीके हैं।।
कृति पठनीय तो है ही, साथी ही संग्रहणीय भी है। इस पर एक बार दृष्टि डालकर तो देखें।
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कृति का नाम-आदमी ही रंग बदलता! बदनाम गिरगिट
कृतिकार का नाम- वेदराम प्रजापति‘मनमस्त’
प्रकाशक-मातृभारती टेक्नोलाजी प्रा. लि. अहमदावाद
मूल्य-249 रू मात्र
समीक्षक- रामगोपाल भावुक
मो0-8770554097