Samunder ke us Paar - 1 in Hindi Fiction Stories by Neha kariyaal books and stories PDF | समुंद्र के उस पार - 1

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समुंद्र के उस पार - 1

✨ एक कल्पनाशील यात्रा जो एक लड़की के भीतर से शुरू होकर,,                                                      प्रकृति की गहराइयों तक जाती है... एक रहस्यमी द्वीप, एक अनदेखी सच्चाई,,।


पूर्वी समुद्र तट पर स्थित और बंगाल की खाड़ी से दूर।

यह समुद्र तट हर समय बदलते मौसम के लिए जाना जाता है। कभी लहरें किनारों से टकराती हैं, फिर लौट जाती हैं... जैसे किसी अनकही बात को कह कर वापस जा रही हों।

इस समुद्र की खासियत है कि जो भी इसके पास कुछ पल बिताता है, वह इसका मुरीद बन जाता है।

समुंद्र तट से थोड़ी सी दूरी पर एक छोटा और बेहद सुन्दर गाँव है, इस गांव की सुन्दरता उसके शांत वातावरण से और भी बढ़ जाती है। इस गांव के लोग मिलजुल कर हंसी खुशी से रहते हैं।

उसी गांव के एक छोटे से घर में एक परिवार बहुत प्यार से रहता है। इस घर की सबसे प्यारी सदस्य है- तृषा, एक चंचल, मासूम सी बच्ची  जिसे सब बहुत प्यार करते हैं।                                                          तृषा अपने माता - पिता और दादी के साथ रहती है।    वह अपने परिवार में सबसे ज्यादा प्यार दादी से करती है।

गाँव में रोज़ शाम के समय सभी लोग समुद्र तट पर समय बिताने जाते हैं। दिन भर की थकान और उलझनों को वे लहरों की आवाज़ में बहा देते।
तृषा भी अपनी दादी के साथ हर शाम समुद्र किनारे घूमने जाती थी। 

एक दिन सभी अपना काम पूरा करने के बाद रोज की तरह समुंद्र किनारे घूमने गए।

उस शाम की हवा भी कुछ खास थी - ठंडी, नम, और मन को सुकून देने वाली। लेकिन उस दिन तृषा का ध्यान लहरों पर नहीं था। वह कहीं खोई हुई थी। 
उधर सब लोग ठंडी हवाएं और शान्त वातावरण का आनंद ले रहे थे।
दादी भी पानी की लहरों को देखती और तृषा से बातें करती। बहुत देर तक जब तृषा ने किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया।

तब दादी ने पूछा, "क्या हुआ तृषा? कहाँ खोई हो?" तृषा कुछ देर चुप रही, फिर बोली,
"दादी, समुद्र के उस पार क्या है?"
दादी थोड़ा चौंक गईं।  फिर बोली "तुम्हें वहाँ क्या देखना है बच्ची? वहाँ कुछ नहीं है, बस पानी ही पानी।"

"नहीं दादी," तृषा जिद करती रही, "जब भी मैं उस ओर देखती हूँ, एक द्वीप नज़र आता है और एक रोशनी सी दिखाई पड़ती है। 
क्या सच में वहाँ कुछ है?" 

दादी के चेहरे पर हल्की चिंता उभर आई। कुछ देर चुप रहकर बोलीं, "लोग कहते हैं वहाँ एक राक्षक रहता है। वो किसी को उधर जाने नहीं देता... जो भी गया, लौटकर नहीं आया।"
तृषा चुप हो गई, वापस घर लौटने पर उस रात नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।
 
अगली सुबह सब अपने-अपने काम में लग गए। तृषा स्कूल चली गई।
शाम को फिर सब तट पर घूमने गए... और तृषा की नजरें फिर उसी रोशनी की ओर टिक गईं।
इस बार वो ज़िद नहीं करती, लेकिन भीतर एक बीज बो चुकी थी - समुद्र के उस पार जाने का बीज।***

समय के साथ तृषा बड़ी होती गई। अब वह एक समझदार लड़की बन चुकी थी, जिसे प्रकृति से गहरा लगाव था। उसने इंटर की पढ़ाई अपने गाँव के ही स्कूल से की और अब आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना तय हुआ। 
दादी अब बूढ़ी हो चली थीं।

शहर जाने से पहले की रात, तृषा अपनी दादी के साथ समुद्र किनारे घूम रही थी।
हवा अब भी वैसी ही थी - नम, ठंडी और कहानियाँ सुनाती हुई।
तृषा ने फिर एक बार उस पार देखा। जहाँ हल्की रोशनी थी-जिसे देखकर उसके बचपन के सवाल फिर जाग उठे।
लेकिन अब वह जान चुकी थी कि "राक्षस" जैसे डर असल में अंधविश्वास होते हैं।
उसने ठान लिया कि एक दिन वह उस पार ज़रूर जाएगी - क्योंकि जो लोग डरते हैं, वो सच को नहीं खोजते।

अगले दिन तृषा शहर पढ़ने चली गई।

शहर पहुँचकर तृषा ने वनस्पति विज्ञान में दाखिला लिया। वो अब और गहराई से प्रकृति को समझना चाहती थी, ताकि अपने गाँव के लोगों को सच्चाई से जोड़ सके। 

तृषा अपने सपनों को सच करने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही थी। अब कॉलेज में उसके कुछ दोस्त भी थे।

एक दिन कॉलेज के पुस्तकालय में वह कुछ किताबें ढूंढ रही थी, तभी उसकी नज़र एक पुरानी - सी किताब पर पड़ी।
उस किताब का विषय था - समुद्र, पारिस्थितिकी और आदिवासी लोककथाएँ। वहीं किताब का नाम लिखा था, "प्रकृति की पुकार" ।
उसने किताब को उठाया और 
तृषा ने जैसे ही उस किताब के पन्ने पलटे, उसे लगा जैसे किसी ने उसकी भूली हुई जिज्ञासाओं को फिर से जगा दिया हो। 

"रात को जब तृषा लाइब्रेरी से किताब लेकर आती है, तभी रवि उसे देखकर मुस्कुराता है। ( रवि तृषा के साथ उसी कक्षा में पढ़ता है ) जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर रुक जाता है।"
तृषा किताब अपने होस्टल ले आती है।

रात को अपने सारे काम निपटाने के बाद, वह उस किताब को पढ़ने बैठी।
हर पन्ने के साथ उसे समुद्र के उस पार की दुनिया और भी खींचने लगी।
किताब में बताया गया था कि
कैसे वर्षों पहले समुद्र के उस पार एक समृद्ध और हरियाली से भरा मौनद्वीप था, जहाँ प्रकृति और मनुष्य के बीच अद्भुत संतुलन था।
पर समय के साथ, जब कुछ लोग वहाँ लालच लेकर पहुँचे, तो उस द्वीप की आत्मा घायल हो गई।
पेड़ों की कटाई, जीवों का शिकार, और खनिजों का दोहन शुरू हो गया।
तब से, वहाँ एक 'रक्षक' के होने की कहानी फैलने लगी - जो दरअसल प्रकृति की चेतावनी थी, न कि कोई असली राक्षस।

तृषा यह पढ़कर चौंक गई। 
उसे समझ आया कि उसके गांव के लोगों का डर असल में एक प्रतीक था - एक संदेश, कि जब हम प्रकृति का दोहन करते हैं, तो वह हमें चेतावनी देती है।

अब तृषा का सपना सिर्फ उस पार जाना नहीं था, बल्कि वह उस पार की सच्चाई जानकर लोगों को जागरूक करना चाहती थी।
वह जानती थी कि अगर समय रहते हम नहीं समझे, तो वह राक्षक' हर जगह होगा - समुद्र के पार ही नहीं, हमारे अपने गांवों, शहरों और जीवन में भी।

तृषा ने जैसे ही वह किताब आगे पढ़नी शुरू की, शब्दों ने मानो उसकी चेतना को झकझोर दिया।
किताब में लिखा था कि - "प्रकृति जब टूटती है, तो सबसे पहले वह मौन होती है।
फिर धीरे-धीरे वह इंसानों से अपना नाता तोड़ने लगती है।"
हर पन्ना जैसे समुद्र की उस पार की सच्चाई बता रहा था - कटी हुई ज़मीन, विलुप्त होते पक्षी, प्लास्टिक से भरे तट और पेड़, जिन्हें अब कोई पानी नहीं देता।

तृषा के भीतर कुछ टूट रहा था। उसे पढ़ने के बाद वह सो नहीं पा रही थी। रातभर वह छत को ताकती रही।

सुबह होने पर , वह फिर से पुस्तकालय लौट आई। उसे जानना था उस लेखक के बारे में जिसने इतने गहरे शब्दों में उसकी आत्मा को छू लिया था।

उस लेखक का नाम था - "प्रोफेसर नैनी", 
जिन्होंने कई वर्ष आदिवासी समुदायों और समुद्री जीवन के साथ बिताए थे। 
उनकी किताब "प्रकृति की पुकार" एक चेतावनी थी - पर चुपचाप, संवेदनशील लहजे में।

जब तृषा को पता चला कि "प्रकृति की पुकार" किताब किसी प्रोफेसर नैनी ने लिखी है, तो उसने ठान लिया कि उसे किसी भी तरह उनसे मिलना है।

उसे यक़ीन था इस रहस्य से जुड़े हर जवाब उन्हीं के पास होंगे।
प्रोफेसर नैनी समुद्र विज्ञान, वनस्पतियों और पारिस्थितिकी के विशेषज्ञ थे,   
और उन्होंने वर्षों तक आदिवासी जीवन और लोककथाओं पर काम किया था।

कॉलेज पहुंचकर तृषा ने लाइब्रेरी और रजिस्ट्रेशन ऑफिस में प्रोफेसर नैनी की जानकारी जुटाने की कोशिश की, पर निराशा ही हाथ लगी।
उन्हें रिटायर हुए सालों बीत चुके थे, और अब उनके बारे में कोई भी ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं थी।

थकी-हारी तृषा अपने कमरे में आकर चुपचाप बैठ गई। उसे लगने लगा, 
शायद ये सपना... सपना ही रह जाएगा। 

उसी वक्त उसका फ़ोन बजता है "दादी" की कॉल थी।

"क्या बात है मेरी गुड़िया? लगता है किसी सोच में डूबी हुई है।, नहीं तो आज दादी का हाल-चाल भी पूछती !" तृषा मुस्कुराते हुए कहती है, "ऐसा कुछ नहीं है दादी, यहां प्रोजेक्ट का काम बहुत ज़्यादा है।"
तभी 
दादी हँसकर कहती हैं, "मैं तुझे बचपन से जानती हूं, कुछ न कुछ ज़रूर चल रहा है।
बता, क्या बात है?"
थोड़ी देर चुप रहने के बाद तृषा एक ही सवाल पूछती है: "दादी, क्या मैं कभी अपने सपने को पूरा कर पाऊंगी?"
दादी का जवाब उसकी आत्मा को छू जाता है
दादी कहती हैं...
"जो भी हम सच्चे दिल से चाहें, वो एक दिन ज़रूर पूरा होता है। बस राह थोड़ी लंबी हो सकती है, लेकिन मंज़िल कहीं नहीं जाती।"

दादी की बात तृषा के भीतर उम्मीद की एक नन्ही लौ जला देती है।
अगली सुबह कॉलेज में, तृषा अपनी कक्षा में थी"
जब तृषा कक्षा में समुद्र, आदिवासियों और पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक सवाल पूछती है,
तो रवि कुछ देर शांत रहकर उसका उत्तर देता है... उसका जवाब किसी किताब जैसा नहीं, किसी अनुभव जैसा लगता है।
तृषा थोड़ी देर उसे देखती रहती है - सोच में पड़ जाती है कि ये लड़का इतना कैसे जानता?",

थोड़ी देर बाद जब बगल में बैठे रवि की नज़र उसकी किताब पर पड़ी। "अरे, ये किताब?" 
रवि ने पूछा, "तुम इसका क्या कर रही हो?" 
तृषा ने बिना झिझक के कहा, "ये मेरे अध्ययन का हिस्सा है। पर सच कहूं, तो मुझे इसके लेखक - प्रोफेसर नैनी से मिलना है।"

रवि थोड़ी देर चुप रहा, फिर मुस्कुराया। "तो ये बात है।" "क्या तुम उन्हें जानते हो?" तृषा ने उत्साहित होकर पूछा। "हाँ," रवि बोला...

आगे क्या होगा?

आगे...