The Mansion of Cages in Hindi Horror Stories by Ashutosh Moharana books and stories PDF | पिंजरे वाला कोठा

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पिंजरे वाला कोठा

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से कुछ किलोमीटर भीतर जंगलों से घिरा एक उजड़ा हुआ गाँव था — पिपरा कटरा। नाम सुनने में मासूम, पर इतिहास में दर्ज एक ऐसा स्थान, जहाँ इंसान होने का मतलब भूल जाना पड़ता था। कहते हैं, वहाँ एक कोठा था — “पिंजरे वाला कोठा”, जो अब भी वैसा ही खड़ा है जैसे आखिरी बार छोड़ा गया था, मगर अब उसमें कोई जाता नहीं… या यूँ कहिए, कोई लौटकर नहीं आता।

दिल्ली के एक खोजी पत्रकार विवेक माथुर को जब उस कोठे की पहली तस्वीर और चिट्ठी मिली, तब उसने इसे अफवाह समझा। लेकिन उसके भीतर की जिज्ञासा ने चैन छीन लिया। चिट्ठी में लिखा था:

"विवेक, अगर तुम वो देखना चाहते हो जो आम लोग सिर्फ महसूस कर पाते हैं… तो पिंजरे वाला कोठा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। सच की कीमत कभी-कभी पिंजरा होती है।"

विवेक ने इसे अपने नए प्रोजेक्ट का हिस्सा बना लिया। डर उसे कभी रोक नहीं पाया था — लेकिन ये कोठा, ये कहानी… कुछ अलग थी।


जुलाई की गर्म रात में वो बहराइच पहुँचा। वहाँ के लोकल ड्राइवरों से जब उसने पिपरा कटरा का नाम लिया, तो सबने इंकार कर दिया। एक बूढ़े ने बस इतना कहा:

“बेटा, वहाँ पिंजरे नहीं… आत्माएँ हैं। जो तुम्हारे अंदर उतर जाएँगी।”

विवेक अकेले ही निकल पड़ा। अगली दोपहर वह एक सुनसान रास्ते से होते हुए जंगल में घुसा। जीपीएस ने भी सिग्नल छोड़ दिया। लेकिन पुराने नक्शे और गाँव की कहानियों के सहारे, दो घंटे की यात्रा के बाद वह उस कोठे के सामने खड़ा था।

कोठा देखना अपने आप में एक श्राप था — जर्जर दीवारें, टूटी खिड़कियाँ, और दरवाजों पर जंग लगे मोटे ताले जो खुद ही टूट चुके थे। लेकिन सबसे डरावनी चीज़ थी — लोहे के पिंजरे — जो बाहर बरामदे से लेकर हर कमरे में लटके हुए थे, जैसे उन्हें किसी मकसद से कभी सजाया गया हो।


कोठे में कदम रखते ही जैसे हवा बदल गई। भीतर एक अजीब सी गंध थी — जैसे पुराने खून, लोहे और सड़ी हुई आत्माओं की मिली-जुली गंध। हर कोने में धूल जमी थी, पर कुछ जगहों पर अजीब तरह से जमीन साफ़ थी — जैसे अभी-अभी कोई वहाँ से गुज़रा हो।

विवेक ने कैमरा ऑन किया और रिकॉर्डिंग शुरू की। सामने एक बड़ा सा पिंजरा था, जिसमें खून से सने कपड़े पड़े थे। पास में एक छोटा नोट चिपका था —
“पिंजरे में वो नहीं जो तुम सोचते हो… पिंजरे में तुम हो।”

उसे समझ नहीं आया, ये किसी पागल की हरकत थी या… सच?

हर कमरे में कुछ न कुछ अजीब था — दीवारों पर उंगली के निशान, ज़मीन पर खरोंचें, और पिंजरों के भीतर पड़े इंसानी बाल और टूटी हुई गुड़िया। एक पिंजरे में तो एक पुराना टेप रिकॉर्डर रखा था, जिसे चालू करते ही आवाज़ आई:

"मैं रीता हूँ… मुझे मत देखो… पिंजरे के बाहर मत आना… पिंजरे के अंदर ही सुरक्षित हो..."

टेप धीमी होती गई और फिर एक जोर की चीख़ में खत्म हो गई।

विवेक का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाने की सोची। ऊपर की मंज़िल अंधेरे में डूबी थी। मोबाइल की टॉर्च से उसने रास्ता बनाया।


ऊपर पहुँचते ही उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा हो। पलटकर देखा — कोई नहीं।

मगर सामने जो हॉल था… वहाँ कुछ था। वहाँ एक बड़ा पिंजरा था, जो बाकी सबसे नया लग रहा था। उसमें एक लकड़ी की कुर्सी थी — जिसके चारों तरफ रक्त से बने तांत्रिक चिन्ह बने थे। पिंजरे के बाहर एक पंक्ति दीवार पर खुदी हुई थी:

"जो सच के करीब आता है, वो खुद सच में तब्दील हो जाता है।"

उसे अचानक ऐसा महसूस हुआ जैसे कुछ उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। उसे दिखने लगे वो लोग — जो इन पिंजरों में बंद थे। किसी के गले में जंजीर थी, किसी के हाथों को बांधकर उल्टा टांगा गया था। किसी के मुँह से खून बह रहा था और आँखें… आँखें सीधी उसकी तरफ देख रही थीं — जैसे वो अभी भी यहीं हों।

एक पिंजरा अपने आप खुला… और कुर्सी पर कोई बैठ गया।

कोई आवाज़ नहीं… सिर्फ साँसों की गूँज।

और फिर किसी ने कहा:

"तू आया है… अब तू नहीं जाएगा। तेरे लिए भी पिंजरा बना है। अंदर बैठ।"

विवेक ने दौड़ लगाई — पर हॉल का दरवाज़ा बंद हो चुका था। वो ज़ोर से चिल्लाया — मगर आवाज़ खुद में गूँजकर रह गई।

फिर हर पिंजरा एक-एक कर अपने आप हिलने लगा। जैसे सैकड़ों अदृश्य आत्माएँ उसमें कसमसा रही हों।

विवेक ज़मीन पर गिर पड़ा, उसकी आँखों से खून बहने लगा। उसे लगा, जैसे उसकी रूह खींची जा रही हो… और वो खुद एक पिंजरे में बंद हो गया है।


सुबह हुई।

एक स्थानीय आदिवासी चरवाहा वहाँ से गुज़रा। उसने देखा — कोठे के बाहर एक आदमी बेहोश पड़ा है। कपड़े गंदे, चेहरा पीला, और आँखें खुली — पर जीवन से रहित।

विवेक अस्पताल में होश में आया, लेकिन उसकी जुबान लड़खड़ाने लगी। मानसिक रूप से वो अब पहले जैसा नहीं रहा।

जब उसने अपने कैमरे की रिकॉर्डिंग चेक की, तो उसमें कुछ नहीं था — बस एक तस्वीर: एक पिंजरे की… जिसके पीछे खड़ा था एक धुंधला, बिना चेहरे वाला काला साया।


अब वो पागलों के अस्पताल में भर्ती है।
रोज़ एक ही पंक्ति बोलता है —

“हर सच की एक कीमत होती है… मेरा सच अब एक पिंजरा है।”


क्या आप भी सच देखना चाहते हैं? तो जाइए… पिंजरे वाला कोठा आपका इंतज़ार कर रहा है। लेकिन याद रखिए —
जो अंदर जाता है… वो कभी बाहर नहीं आता।
या अगर आता है… तो फिर वो इंसान नहीं रहता।