रेगिस्तान की रातें दिन से कहीं अधिक जीवित लगती हैं। हवा, जो दिन में तमतमाकर चलती है, रात में रेंगने लगती है जैसे कोई अदृश्य साया रेत पर पाँव रखकर चल रहा हो। दूर-दूर तक पसरा सन्नाटा कभी-कभी टूटता है — किसी दूर के कुत्ते के भौंकने से, या फिर दरगाह के टूटे गुंबद से गिरती कोई पुरानी ईंट जब ज़मीन से टकराती है, तो लगता है जैसे किसी पुरानी आत्मा ने करवट ली हो।
दरियापुर... एक छोटा सा गाँव, जो अब नक्शों पर तो है, पर रूहों के लिए ज़्यादा मशहूर है। कोई सड़क सीधी नहीं जाती वहाँ, और जो जाती भी है, वो जैसे अधूरी रहती है — धूल में गुम, झाड़ियों में उलझी, या फिर रेगिस्तान के बीचोंबीच कहीं विलीन। रात के करीब तीन बजे का वक़्त था, जब आरव चौहान की जीप उस कच्चे रास्ते पर हिचकोले खाती आगे बढ़ रही थी। हेडलाइट की रोशनी में सामने सिर्फ़ रेत का समुंदर था और उन बीचोंबीच एक टूटी हुई दरगाह की परछाईं — काली और स्याह, जैसे रेत में कोई ज़हर घुला हो।
"इतनी रात को आने का कोई मतलब नहीं बनता," ड्राइवर हुसैन बड़बड़ाया, उसका माथा पसीने से भीगा था, जबकि बाहर की हवा बर्फ़ जैसी थी।
आरव ने उसकी बात अनसुनी करते हुए कैमरे की बैटरी चेक की। “जहाँ डर है, वहीं कहानी है, हुसैन। और कहानी बिना डर के बिकती नहीं।”
हुसैन कुछ बुदबुदाया — शायद ‘कहानी नहीं, मौत है’ — पर आरव सुन नहीं पाया। या शायद सुनकर भी नज़रअंदाज़ कर गया। उसके अंदर कोई पुराना ज़ख्म लगातार टीस रहा था, और यही टीस उसे यहाँ खींच लाई थी। उसका भाई रितेश, जो पाँच साल पहले दरियापुर की तरफ़ शूट पर गया था — बिना किसी सुराग के ग़ायब हो गया था।
जीप जैसे ही दरगाह के पास पहुँची, हुसैन ने ब्रेक मारा। गाड़ी रुकते ही उसके इंजन की आवाज़ भी डर से काँपने लगी। सामने जो दरगाह थी, वो कोई आम इमारत नहीं लगती थी। सफ़ेद गुंबद अब स्याह पड़ चुका था। दीवारें जगह-जगह से टूटी थीं, लेकिन उनका गिरा हुआ हिस्सा जैसे जानबूझकर वैसा ही छोड़ा गया हो। पास में एक पुराना कुआँ था — उसके ऊपर झुकी नीम की शाखें रात के अंधेरे में ऐसे हिल रही थीं जैसे किसी के बाल हवा में उड़ रहे हों।
आरव जीप से उतरा। कैमरा कंधे पर टाँगकर वह दरगाह की ओर बढ़ा। तभी हवा में एक अजीब सी गंध फैली — जलती हुई गंधक जैसी। और उस गंध के साथ ही वातावरण में एक हल्का कंपन शुरू हुआ। ज़मीन के नीचे कुछ हिलता-डुलता महसूस हुआ, जैसे वहाँ कोई साँस ले रहा हो।
"क्या तुमने सुना?" आरव ने मुड़कर हुसैन से पूछा।
"मैंने कुछ नहीं सुना, साहब… लेकिन कुछ… कुछ है यहाँ," हुसैन का चेहरा स्याह पड़ चुका था। "ये जगह ज़िंदा है… और हमें यहाँ नहीं होना चाहिए।"
आरव ने धीमी आवाज़ में कहा, "पाँच साल पहले मेरे भाई ने भी यहीं से वीडियो भेजा था… उसके बाद ग़ायब। अब मैं समझ रहा हूँ, क्यूँ।"
वो दरगाह की टूटी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। हर कदम पर सीढ़ी जैसे कराहती थी। हवा और भी भारी हो गई थी। जब उसने पहला दरवाज़ा खोला, तो एक अजीब सी सरसराहट उसके कानों में घुसी — जैसे सौ साँप एकसाथ फुफकार रहे हों। अंधेरे में उसे एक कमरा दिखा, जिसके कोने में एक पत्थर की मजार थी — झुकी हुई, धूल से ढकी। लेकिन कोई था वहाँ। कोई साया।
"कौन है वहाँ?" आरव की आवाज़ काँपती हुई गूंजने लगी।
अंधेरे से एक धीमी आवाज़ आई — इतनी धीमी कि उसे समझने में वक्त लगा: “तुम... भी... उसी की तलाश में आए हो... जिसे उसने निगला है।”
"तुम कौन हो?" आरव ने टोर्च की रोशनी उस दिशा में डाली, लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। दीवारें सूखी थीं, पर उन पर उंगलियों से खींची लकीरें थीं — जैसे किसी ने दीवारों को नोचा हो। तभी टॉर्च की रौशनी अचानक झपक गई। वह बंद नहीं हुई, पर उसकी रोशनी जैसे जलती-बुझती थी — बीच-बीच में कुछ चेहरों की झलक देती हुई।
आरव ने झटपट कैमरा ऑन किया और रिकॉर्डिंग शुरू की। "यहाँ कुछ है… किसी की मौजूदगी है। यह मजार… यह दीवारें… ये सब कुछ बोल रहे हैं… चीख रहे हैं…"
अचानक दरगाह के पीछे से किसी के रोने की आवाज़ आई — औरत की, धीमी, फूट-फूटकर, जैसे वह किसी को पुकार रही हो।
"रितेश?" आरव का कलेजा धड़कने लगा। वही आवाज़ थी — वही आवाज़ जो उसने अपने भाई की रिकॉर्डिंग में सुनी थी। आवाज़ उसी कुएँ की तरफ़ से आ रही थी।
वो भागता हुआ कुएँ तक पहुँचा। हुसैन जीप में बैठा दरवाज़ा पकड़े हांफ रहा था। उसने चीखकर कहा, "साहब, मत देखिए अंदर! उस कुएँ में कोई नहीं जाता… वो इफ़्रित का दरवाज़ा है… वहीं से वह आता है… वहीं से…"
लेकिन तब तक आरव झुककर कुएँ के भीतर देख चुका था। अंधेरे में कुछ नहीं दिख रहा था, लेकिन वो आवाज़… अब और साफ़ हो चुकी थी — जैसे कोई रूह पानी के नीचे से उसे देख रही हो… और उसे खींच रही हो।
"आरव... आरव..." एक फुसफुसाहट उसके कान में आई।
उसने झटके से मुड़कर देखा।
कोई नहीं था।
लेकिन रेत में उसके पीछे अब दो काले पैरों के निशान उभर आए थे… और वो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहे थे।
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