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गजरा और गीत
मंजीत ने बहुत पहले से ही मंसूबा बाँध रखा था कि वह बसंत पंचमी पर यह मौका पा सकता है, जब दीना नगर के मेले में होने वाले कवि सम्मेलन के बहाने रागिनी को अपने साथ बाहर ले जाय! जो सपना दो साल से प्रतिदिन पल रहा था और एक प्लान बन रहा था उसे पाने का, वह इसी तरह पूरा हो सकता था...!
यह मेला उसके शहर पठानकोट से कोई चालीस-बयालीस किलोमीटर दूर दीना नगर में रावी-तट पर भरता था। मंजीत एक प्रतिष्ठित क्षेत्रीय कवि था इसलिए वह तो इस कवि-सम्मेलन में हर साल जाता ही, इस बार उसने बसंत पंचमी पर आयोज्य इस कवि-सम्मेलन का निमंत्रण रागिनी को भी दिलवा दिया था!
यों तो बसंत के इस कवि-सम्मेलन के बारे में रागिनी को उसने एक-दो महीने पहले ही बता दिया था। पर अब तक न तो मंजीत उसे यह बात कहने की हिम्मत जुटा पाया था कि इसमें तुम्हें चलना ही होगा और न ही रागिनी, खूब इच्छा होने पर भी उसे यह बात कहने की हिम्मत जुटा पाई थी कि हमें जरूर ले चलना।
रागिनी की खूब इच्छा इसलिए कि उसे काव्यपाठ के लिए बड़ा मंच मिलेगा, आगे की राह बनेगी। और मंजीत की बलवती इच्छा इसलिए कि रागिनी थी ही इतनी सुंदर और मनमोहक कि उसके साथ के लिए हर कवि लालायित।
मंजीत के मन में उमंग और बेचैनी दोनों थीं। जाना तो था ही, हर साल जाता था। रागिनी को तैयार करने आखिरकार उसने बसंत पंचमी की पूर्व संध्या पर बात कर ही ली, कहा, ‘रागिनी, ये मौका मत छोड़ो। वहाँ बड़े-बड़े कवि होंगे, तुम्हारी कविता को नई पहचान मिलेगी...। मैं तुम्हें लेने आऊंगा, बस थोड़ा बाहर तक आ जाना।’ और उसने हामी भर दी थी, क्योंकि उसे भी लग रहा था कि यह एक बड़ा मौका है...।
रागिनी की इस रजामंदी से मंजीत को जैसे सुर्खाब के पर लग गए! रात ज्यों-त्यों बीती, सुबह बसंत पंचमी का दिन आ गया। उसने अपनी काली पगड़ी को और सलीके से बाँधा, दाढ़ी को संवारा और नीली जींस पर हल्के पीले रंग का कुर्ता पहन लिया। उसे पता था कि आज का दिन उसके लिए खास होने वाला है। लेकिन मंजीत के साथ इतनी दूर जाना रागिनी को थोड़ा असहज कर रहा था। फिर भी, कविता के प्रति उसका जुनून और मंजीत के प्रति उसकी अनकही भावनाएँ उसे तैयार होने को मजबूर कर रही थीं। उसने दीदी की पीली साड़ी पहनी, और चोटी में चमेली के सफेद फूलों का गजरा लगा लिया। घर से निकलते वक्त मम्मी से कहा, ‘कवि सम्मेलन है, देर हो सकती है, चिंता मत करना।’
पहले से कुछ बताया न था, उन्होंने अचानक सुना और उसे निकलते देखा तो पूछना चाहा कि- कहाँ? लेकिन रागिनी, रोके जाने के डर से कुछ बताना नहीं चाहती थी, जल्दी से बाहर निकल आई।
तय जगह पर मंजीत स्कूटर लिए इंतजार कर रहा था। उसे दूर से ही देख आँखों में चमक आ गई। करीब आते ही प्रमुदित होते बोला, ‘वाह, रागिनी! आज तो तुस्सी साक्षात् बसंत लगदे ओ...’ और रागिनी शर्म से मुस्कुरा पड़ी क्योंकि साड़ी पहली बार ही बाँधी थी। दीदी से कहा था उसने, ‘गोष्ठियों की बात अलग है, सम्मेलन में छोकरी सी ना लागूं इसलिए तुम्हारी साड़ी पहन कर जाऊँगी।’ तब उन्होंने रात में ही उसे प्रैक्टिस कराई थी। सो बड़ी सजगता से साड़ी संभाल वह, बहुत सधकर स्कूटर पर बैठ गई...।
यह पहली बार था जब वह मंजीत के साथ इतनी लंबी यात्रा पर जा रही थी। स्कूटर चलाते वक्त हवा के झोंके रागिनी के गजरे की खुशबू को मंजीत तक पहुँचा रहे थे, और वह मन ही मन हुलस रहा था।
रास्ते में दोनों ने कविता, गीत और कवि-सम्मेलन की बातें कीं, लेकिन दिलों में कुछ और ही चलता रहा...।
मेले में पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गई थी। वहाँ रंग-बिरंगे झंडे, फूल मालाएँ, गजरे, बच्चों के झूले, खिलौनों की दुकानें, नाश्ते के भंडार, सॉफ्टी हाउस, लेडीज कलेक्शन शॉप और बाँसुरी, पीपियों, गुब्बारे वालों का शोर था। कवि सम्मेलन शाम को शुरू होने वाला था। मंजीत ने रागिनी को मेले में घुमाया, उसे बसंत के रंग दिखाए। उसने उसे पीले फूलों का गजरा भी दिलवाया और कहा, ‘ये तुम्हारी कविता को और सजा बना देगा।’
मेला दीना नगर से कोई पाँच-सात किलोमीटर की दूरी पर रावी तट पर लगा था। बड़े खूबसूरत दृश्य थे- कुछ लोग बोटिंग कर रहे थे तो कुछ नहा रहे थे, और कुछ तैराकी भी कर रहे थे। साथ की कवि टोली को झाँसा देकर वे लोग एक बोट ले दूसरे किनारे पर काफी दूर निकल आए। फिर नाविक से पीछा छुड़ाते कहा, ‘अब तुम निकल जाओ, हम लोग यहाँ से कोई दूसरी बोट पकड़ लेंगे।’
मैदानी इलाका होने से जनवरी के अंत में वहाँ खेतों में सरसों के बेशुमार पीले फूल खिले थे। प्रकृति के इस सुनहरे रूप पर वे दोनों दिलो-जान से निसार हुए जा रहे थे। यहाँ इस अपरिचित क्षेत्र में उन्हें कोई वॉच करने वाला भी न था, इसलिए बेझिझक एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले तट की भूमि पर खरामा-खरामा टहलते हुए मोहब्बत भरी बातें कर रहे थे। एक ओर चना-सरसों के हरे-भरे खेत लहलहा रहे थे तो दूसरी ओर नदी की स्वच्छ और ठंडी जलधार बह रही थी।
इलाका मैदानी था फिर भी उन्होंने एक स्वच्छ शिला खोज ही ली जिस पर चढ़ दोनों प्रसन्नता पूर्वक बैठ गए। उसके बाद उसने उसके पर्स से पीले फूलों का गजरा निकाल लिया और यत्न पूर्वक उसकी चोटी में गूँथने लगा।
बड़ा मनोहारी दृश्य था, यह। रागिनी ने पीली साड़ी से ही मैच करता ब्लाउज पहन रखा था, जो उसकी गोरी पीठ पर सूरज की कोमल और धवल धूप में पीली तितली-सा बैठा नजर आ रहा था। गजरा लगाने के बाद मंजीत ने रागिनी का हाथ अपने हाथों में लेकर एक गीत रचा:
जीवन की धार बन बहना है कलकल।
चाँदनी-सी चमक भर रागिनी-सी चंचल।।
सपनों के मेले में ख्वाबों ने रंग भरे,
कदम-कदम फूल खिले जीवन के राग सजे।
हवा संग नाच रहे पंछी अलबेले,
हर पल को गले लगा खुशियों की हलहल।।
गाते हुए नजरें उसकी आँखों से टकरा रही थीं, और दिल ही दिल में मुहब्बत के अदेखे-अनोखे फूल खिल रहे थे, जो खिलते रहे साँझ तलक। मगर कवि-सम्मेलन शुरू हुआ, वे उसके पहले ही वहाँ पहुँच गए। जबकि दूसरे कवि, कवयित्रियाँ अभी घूम ही रहे थे- कुछ मेले में, कुछ अपनी जान-पहचान वालों के यहाँ उस कस्बाई नगर में! तब तक मंजीत ने डायरी से पढ़ने के लिए अपनी कविताएँ छाँट लीं, और रागिनी ने अपनी।
शुरू हुआ सम्मेलन, सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण-दीप प्रज्वलन से। फिर बाँटे गए कवि-कवयित्रियों को बसंत के पीले पट्टे, पीले सरसों के फूल, मस्तक पर लगाया गया केसर का तिलक।
प्रफुल्लित थी रागिनी। मंजीत भी आह्लादित, ‘परंपरा है, बसंत ऋतु के आगमन की खुशी मनाई जाती है...’ फुसफुसा रहा था वह।
संचालक ने पहले कुछ स्थानीय कवियों को पढ़वाया, जिन्हें मंचासीनों ने तो ध्यान से सुना ही नहीं, पब्लिक ने भी घास न डाली। पर मंजीत ने अपनी कविता सुनाई तो उसकी पतली-सुरीली आवाज, पंजाबी लहजा और भावनाओं से भरे शब्दों ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। फिर और कवियों ने, और उसके बाद रागिनी की बारी आई। उसने प्रेम और प्रकृति से जुड़ी कई कविताएँ सुनाईं। मंच पर खड़े हो जब उसने अपने शब्दों को कविता में ढाला, स्वर में बाँधा- मंजीत ही नहीं बाहर से आये कई अखिल भारतीय कवियों की वाहवाही भी तेज थी:
‘आय, हाय-हाय...क्या कविता है!’
‘शाबाश! बहुत गहरी है, कविता!’
‘कविता नहीं, राग-रागनियों का संगम है, यह...।’
और पब्लिक बोल रही थी, ‘सरस्वती मय्या आज साक्षात् देह धरे गा रही हैं...’
तालियों सँग आवाजें गूँज रही थीं...।
खुशी से दिल में दर्द होने लगा, मंजीत के लिए प्यार और गहरा हो गया, जिसकी बदौलत आज यह अवसर मिला।
...
कवि सम्मेलन खत्म होने तक रात हो चुकी थी। भीड़ छँटने लगी तो रागिनी बोली, ‘चलो, चलें अब!’ और मंजीत ने मौके का फायदा उठाते कहा, ‘रागिनी, अब इतनी रात को स्कूटर से वापसी मुश्किल होगी। पास में एक धर्मशाला है, चलो, वहाँ रुक जाते हैं। सुबह जल्दी निकल लेंगे।’
रागिनी परेशान, बोली, ‘तुम कार लेकर क्यों नहीं आये! घरवालों को क्या कहूँगी? थोड़ी देर में सबके फोन आने लगेंगे!’
‘अभी तो मोबाइल स्विच्ड ऑफ कर लेना, समझ जायेंगे बैटरी चली गई होगी। पहुँच कर बता देना कि रात हो गई थी, क्या करते? मजबूरी में रुक गए नगर-पंचायत अध्यक्षा के घर...’
फिर भी उसने हिचकिचाहट तो दिखाई, क्योंकि उसे पता था कि मंजीत रात में बदमाशी किये बिना मानेगा नहीं! लेकिन ठंडी रात और थकान ने उसे मजबूर कर दिया। मुस्कान छुपाते उसने कहा, ‘ठीक है, लेकिन सुबह जल्दी चलना होगा।’
मंजीत का दिल खिल गया। मगर किस्मत यहाँ भी दगा दे गई। क्योंकि- अन्य बहुत से कवि-कवयित्रियों को भी, जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट से आये थे, वापसी का कोई साधन मिला नहीं। डेमू निकल चुकी थी और लम्बी दूरी की नाइट बसें यहाँ से सवारियाँ उठाती नहीं थीं। वे सब भी नगर की उसी एकमात्र धर्मशाला पर आ गए थे जहाँ मंजीत और रागिनी पहुँचे थे। और कमरे दो ही। तब महिलाओं ने तय किया कि एक में पुरुष और दूसरे में सभी महिलाएँ हो जाएँगी!
मंजीत का दिल बैठ गया। यों कहें कि खड़ी फसल पर पाला पड़ गया। अब रागिनी को अपनी मुस्कान छुपाने की जरूरत न थी। उसके दिल से रही-सही हिचक और डर भी निकल गया।
...
रात गहराने लगी थी। रागिनी महिलाओं वाले कमरे में थी, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। मंजीत की कविता, उसकी तारीफें, और दिन भर की नजदीकियाँ उसके मन में घूम रही थीं।
उधर, मंजीत भी पुरुषों वाले कमरे में बेचैन था। उसने सोचा कि आज मौका था जिसके लिए दो साल से वह तरस रहा था, पर हाथ से निकल गया! मगर फिर भी आधी रात के बाद जब कवियों की नाक बजने लगी, उसने हिम्मत जुटाई और महिलाओं वाले कमरे का दरवाजा धीरे-धीरे खटखटाया।
रागिनी अधजागी-सी सो रही रही थी। खटखट से दिल धड़कने लगा। सावधानी से उठ कर दरवाजा खोल दिया उसने। और मंजीत को सामने देख चौंकी नहीं, मुस्कुरा पड़ी।
‘क्या हुआ?’ उसने धीमे स्वर में पूछा।
‘रागिनी! बस थोड़ी-सी बात करनी है...’ उसने ऐसे कहा जैसे नाड़ी छूट रही हो!
‘वह तो सुबह भी...’ रागिनी को हँसी आ गई और मंजीत उसे सीढ़ियों पर खींच लाया...।
छत पर हवा ठंडी थी और आवाज काँप रही थी, पर उसने कहा, ‘आज का दिन इतना खास है कि अकेले म-म, मन नहीं मान रहा...था!’
सुनकर प्यार उमड़ पड़ा। और तब तोहफे स्वरूप अपनी सुडौल बाँहों का हार झट से डाल दिया उसके गले में। जैसे, मेले में नगर-पंचायत अध्यक्षा ने उसके गले में पहनाया था, पीला पुष्प-हार...।
मंजीत के लिए यह सचमुच अवार्ड था! वह तो डर रहा था कि वह झिड़केगी फिर अभी, कि तुमने खामख्वाह फँसा दिया! मगर इस अप्रत्याशित तोहफे ने उसके दिल को मानो पल भर में ही कहकशां की सैर करा दी! अरमानों को पंख गए। हवा में गोता-सा लगाते उसने उसका साँचे में ढला-सा स्तन छू लिया! और दिल धकधक कर उठा रागिनी का- कि कोई टोह लेता इधर आ न जाय! हार उतार लिया धीरे से। तब हाथ पकड़ ले आया जीने की गुमटी की आड़ में, बिठा लिया मुँडेर पर, शुरू कर दी कविता की तारीफ, फिर धीरे-धीरे बातों का रुख मोड़ दिया मोहब्बत की जानिब!
रागिनी चुप, मगर आँखें तो बोल रही थीं, तो हाथ रख लिया सीने पर धीरे से, और छुड़ाया नहीं तो ओठ भी जोड़ दिए ओठों से! और फिर दिल ने दिल से जो कहा, वह शब्दों से परे...।
छत के एकांत और तारों भरे ठंडे आसमान तले फैल उठी बसंत की गर्माहट। दो दिल जो कविताओं में एक-दूसरे को ढूँढते थे, उस रात साँसों में खोज उठे...।
लेकिन रागिनी के तईं मिलन जितना खूबसूरत, उतना ही खतरनाक भी। खुली छत पर यों प्रेमालाप से मन में भारी डर कि अगर किसी ने छुप कर देख लिया...हो, और बात फैल जाय शहर में, तो? और मंजीत के मन में भारी असंतोष कि मुलाकात अधूरी रही। दो साल की चाहत आज भी परवान न चढ़ी।
सुबह होने से पहले दोनों अपने शहर निकल पड़े। स्कूटर पर वापसी यात्रा चुपचाप थी, खामोश नहीं। देह देह से सटी थी तो मंजीत की पीठ में गुदगुदी और रागिनी के स्तनों में उद्वेलना हो रही थी। यानी यह यात्रा बाहरी तौर पर शांत और मौन थी, लेकिन भीतरी तौर पर विचार और भावनाएँ सक्रिय रहीं। यह एक ऐसी स्थिति थी जहाँ उन्होंने अपनी बाहरी शांति के पीछे भीतरी तूफान को छुपा रखा था!
गली के मोड़ पर उतरते वक्त उसने सिर्फ इतना कहा, ‘मंजीत, ये बसंत मुझे हमेशा याद रहेगा।’
मंजीत ने बुझे दिल से कहा, ‘मुझे भी।’
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