IMTEHAN-E-ISHQ OR UPSC - 2 in Hindi Love Stories by Luqman Gangohi books and stories PDF | इम्तेहान-ए-इश्क़ या यूपीएससी - भाग 2

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इम्तेहान-ए-इश्क़ या यूपीएससी - भाग 2

✨✏️ कलम से पहला संवाद🖊️✨

("कुछ रिश्ते कहने से नहीं बनते बस, कलम उठाने से बन जाते हैं।")

पटेल नगर की लाइब्रेरी में वो एक आम सी दोपहर थी। AC की मद्धम सी आवाज, कुछ पन्नों की खड़खड़ाहट और कुछ बेआवाज़ आँखों की लड़खड़ाती नजरें।

दानिश हमेशा की तरह अपनी टेबल पर बैठा था आज थोड़ी बेचैनी थी, किताबें खुली थीं लेकिन दिमाग कहीं और था। वो आज आरज़ू के बिल्कुल पास बैठा था बस एक कुर्सी छोड़कर। दोनों के सामने नोट्स, पानी की बोतलें और वही चुप्पी बिछी थी जो अब रुंटीन बन चुकी थी।

दानिश ने देखा उसका पेन के स्याही ख़त्म हो चुकी थी। किस्मत से या कहिए बहाने से आरज़ू का पेन टेबल पर रखा हुआ था, बिलकुल पास। उसने थोड़ी हिम्मत जुटाई... नज़रें नीचे रखीं, हाथ आगे बढ़ाया, और आरज़ू का पेन उठा लिया। पल भर में, जैसे किताबों के बीच कोई पंखा चल पड़ा।

आरज़ू ने देखा और हल्के से मुस्कुराई। फिर सिर हल्का सा झुकाकर बोली: "वो... पेन मेरा है।"

दानिश थोड़ा घबराया, फिर मुस्कुराते हुए बोला: "हां... पता है। पर इरादे नेक थे। सिर्फ़ लिखना था, चोरी नहीं।"

आरज़ू हँस दी और वो पहली हँसी थी जो सीधे दानिश के सीने में गूंज गई। एक छोटा सा पल... मगर इतना बड़ा कि शायद उससे पहले उन्होंने कभी इतना कहकर कुछ नहीं कहा था।

उस दिन के बाद से अब उनके बीच चीजें बदलने लगी थी। अब पेन सिर्फ लेखनी नहीं बचा था, बल्कि बातों की शुरुआत का एक माध्यम बन गया था।

उस दिन दोनों ने एक-दूसरे का नाम भी जाना। "मैं दानिश.."

"मैं आरज़ू... अच्छा नाम है तुम्हारा।" "तुम्हारा भी।"

अब टेबल पर किताबों के साथ हल्की-हल्की बातें भी बैठने लगी थीं। कभी कोई टॉपिक, कभी कोई करंट अफेयर्स का सवाल, और कभी बिना वजह के कोई पुरानी याद। चाय की टपरी पर अब बस खामोशी नहीं होती थी -

अब वो दोनों चाय का स्वाद बातों से महसूस करने लगे थे। फिर आए दोस्त, वो कहां पीछे रहने वाले थे। वो भी एंटर कर गए मज़े लेने को............ क्योंकि अब ये बदलाव औरों की नजरों में भी आने लगा।

एक दिन आरज़ू अपनी दो दोस्तों के साथ बैठी थी, उसकी कॉपी में दानिश के हाथ के नोट्स थे।

एक दोस्त ने चिढ़ाते हुए कहा: "ओहो... अब तो नोट्स भी दिल से मिलने लगे हैं?"

"कुछ चल रहा है क्या लाइब्रेरी में?" आरज़ू पहले तो मुस्कुराई, फिर किताब में छुप गई।

उधर दानिश भी बच नहीं पाया उसका रूममेट सुमित बोलाः "भाई, तुझे चाय अब मीठी लगने लगी है क्या? हरी कुर्ती वाली वजह तो नहीं?"

दानिश हँस पडा, पर कुछ भी बोला नहीं।

पर अंदर कहीं न कहीं ये मज़ाक उन्हें अच्छा लगने लगा था -क्योंकि शायद अब वो भी खुद से झूठ नहीं बोल सकते थे।

अब वो समय आ ही गया जब पटेल नगर की गलियां उनके लिए महकने लगी..

अब दोनों अक्सर लाइब्रेरी से साथ निकलते। कभी सब्जी मंडी तक पैदल चलते, कभी मोमोज खाते हुए बातों में खो जाते, तो कभी आइसक्रीम की चुस्की ले रहे होते।

दानिश धीरे-धीरे आरज़ू की आंखों को पढ़ना सीख रहा था कभी थकी होती तो बिना कहे पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ा देता।

आरजू भी अब दानिश की चुप्पियों को समझने लगी थी। जब उसका मन नहीं लगता, तो बस पूछतीः

"चाय पीने चले?" और बस चल पड़ते। एक दिन, रात को दानिश अपनी डायरी में लिख रहा थाः

"शब्द तो तब निकले जब पेन उठाया था, लेकिन शायद दिल उससे पहले ही गिरवी रख आया था।"

अब दोनों के बीच शब्द हैं, मुस्कानें हैं, और एक रोज़मर्रा की सहजता है जो धीरे-धीरे दोस्ती बन रही है.... और शायद उससे भी ज़्यादा।

(ये बस एक पेन था... या शायद शुरुआत की एक दस्तक।
अब देखना यह दिलचस्प होगा कि चाय के कप से उठती भाप, सिवइयों की मिठास तक  कैसे पहुँचने वाली थी —
क्या आप भी जानना चाहोगे इस रिश्ते ने कैसी शक्ल ली?"
यदि "हां" तो पढ़िए अगला भाग।)