मा ने काटा, बाप ने खाया in Hindi Short Stories by BleedingTypewriter books and stories PDF | मा ने काटा, बाप ने खाया

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मा ने काटा, बाप ने खाया

आंगन में धूप की आखिरी किरण अब बुझने को थी।
फूलों से ज्यादा धूल उड़ रही थी इस घर में।
कोने में बंधी बकरी बार-बार मिमिया रही थी, और रसोई के चूल्हे से धुआं सीधा आकाश को चीरता जा रहा था।

श्यामा मिट्टी से सनी रोटी बेल रही थी — आँखों में चिड़चिड़ापन, चेहरे पर थकावट और भीतर बहुत कुछ जमा हुआ गुस्सा।
उसके लिए ये घर एक कैद था, और उसमें सबसे ज्यादा कसैला किरदार था — बिरजू।

बिरजू आज भी अपने उसी अंदाज़ में था —
कभी दीवार पर लात मारता, कभी बर्तन में पानी उड़ेल देता, तो कभी फुलवा की चोटी खींचकर भाग जाता।

> “बिरजू! चुप बैठ जा वरना चूल्हे में झोंक दूंगी तुझे!”



लेकिन बिरजू तो वही था — हँसता, उछलता, चिढ़ाता।

फुलवा कोने में बैठी थी — कपड़े तह कर रही थी, लेकिन उसकी निगाहें अपने भाई पर ही थीं।
वो उसे रोकती नहीं थी — शायद जानती थी कि ये शैतानी भी उसकी मजबूरी है।

> “जा अपने बाप से पूछ — आज क्या खाना है!”
श्यामा ने गुस्से से कहा।



बिरजू ने आंखें नचाई और बोला —

> “अगर वो बोले कि बकरी खानी है तो?”



> “जा! ज़बान न चलवा अब!”
श्यामा का गुस्सा अब आंखों से बरसने लगा था।



बिरजू भागा, दरवाजे से बाहर निकला और रामसरन के पास पहुंचा —
वो नीम के पेड़ के नीचे बीड़ी पी रहा था, आंखें सुर्ख और मुंह से तम्बाकू की गंध।

> “बाबूजी! माँ पूछ रही है — आज क्या खाना है?”



रामसरन ने लंबी बीड़ी खींची और कहा,

> “बोल दे अपनी माँ से — आज तो मांस का मन है।”



बिरजू की आंखें चमक उठीं —

> “मांस? वाह! आज तो मज़ा आएगा!”



वो दौड़ता हुआ घर लौटा —
रसोई में घुसते ही बोला:

> “माँ! बाबूजी बोले आज मांस बनाएँ!”



श्यामा जैसे पत्थर हो गई।
उसके चेहरे का रंग उतर गया — और फिर एक ज्वाला की तरह गुस्सा फूट पड़ा।

> “अब रोज़-रोज़ मांस चाहिए इस आदमी को? और तू क्या है — कोई जमाई? मांस चाहिए तुझे भी?
कहाँ से लाऊँ? खेतों में सोना उगता है क्या?”



बिरजू चुप खड़ा था, लेकिन उसकी शरारती मुस्कान अब बुझ चुकी थी।

> “तू और तेरी बहन — एक जले हुए किस्मत की राख हो।
न तो तुम मेरे खून के हो, न मेरे भाग्य के!”



श्यामा की आंखों में उस दिन कुछ अलग ही चमक थी —
न वो थकी हुई लग रही थी, न ही चिड़चिड़ी।
बल्कि जैसे किसी पुराने हिसाब-किताब को पूरा करने की तैयारी में हो।

रसोई में वो कुछ खोज रही थी — चाकू, हँसिया, नमक, मिर्च।
बिरजू वहीं पास में बैठा अपनी कटी पतंग को जोड़ रहा था।

> “चल, बिरजू... आज अपने बाप को मांस खिलाएंगे। तुझे ही तो उसका लाड़ला बनना है ना?”



बिरजू ने चौंक कर देखा —
माँ आज उसे डांट नहीं रही थी, बल्कि मुस्कुरा रही थी।
अजीब सी मुस्कान... सर्द... बर्फ जैसी।

> “सच में माँ? मांस?”



> “हाँ हाँ, चल! चल मेरे साथ! जंगल की ओर…”



फुलवा रसोई में बर्तन साफ कर रही थी।
श्यामा ने उसे आवाज दी —

> “फुलवा! तू जंगल से लकड़ी ले आ। शाम हो रही है, चूल्हा जलाना है।”



फुलवा ने सिर हिलाया और चुपचाप झोली उठाकर निकल गई।
उसके पैरों में फटे हुए चप्पल थे, लेकिन मन में चिंता —
भैया अकेले माँ के साथ क्यों गया?


---

जंगल की हवा ठंडी थी।
पेड़ झूम रहे थे, और पत्तियों की सरसराहट में कुछ डर छुपा था।

फुलवा धीरे-धीरे लकड़ियाँ चुनती रही।

जब वह घर लौटी, तब अंधेरा घिरने लगा था।
घर के अंदर से कुछ खुशबू आ रही थी —
मांस की।
तेज मसाले की, प्याज की, और... कुछ और।

रामसरन आंगन में बैठा खा रहा था —
उसके होंठों पर मांस की चर्बी चमक रही थी।

श्यामा ने थाली में परोसते हुए कहा:

> “खा लो जी, आज बहुत मेहनत से पकाया है...
खास आपके लिए... जो आप रोज़ मांगते हैं…”



फुलवा दरवाज़े के कोने से देख रही थी।
उसकी नजरें भाई को खोज रही थीं — बिरजू कहा है?

> “माँ... भैया कहाँ है?”
फुलवा ने धीमे से पूछा।



> “होगा कहीं... खेल रहा होगा... तू बैठ, खाना खा।”



> “नहीं, मैं भैया के साथ खाऊंगी।”



श्यामा ने थाली ज़ोर से रखी —

> “मर भूखी! मुझे क्या है! जब आए तेरा भैया, तब खा लेना!”



श्यामा का चेहरा फिर से वही हो गया था —
कठोर, कड़वा, और... अब शायद ख़तरनाक भी।


---

रात हो गई।

बिरजू नहीं आया।

फुलवा आंगन में बैठे-बैठे सो भी गई, फिर उठी, फिर दरवाज़े को देखती रही।

हर आहट पर लगता — अब भैया आएंगे।
लेकिन नहीं आया कोई।

श्यामा चूल्हा बुझाकर सो चुकी थी।
रामसरन खर्राटे ले रहा था।

अंत में, जब पेट में ज्यादा दर्द होने लगा —
फुलवा रसोई में गई, और धीरे से अपनी थाली में सब्ज़ी परोसी।
उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं।

जैसे ही उसने सब्ज़ी में चम्मच डाली —
कुछ ठोस टकराया।

उसने धीरे से अपनी उंगलियों से निकाला —
एक चीज़...
लाल मसाले में डूबी...
हड्डी जैसी...
लेकिन वो हड्डी नहीं थी।

वो एक उंगली थी।
छोटी... मगर साफ़ इंसानी।

बिलकुल वैसी... जैसी बिरजू की थी।

फुलवा की सांस रुक गई।
उसके हाथ से थाली गिर गई — आवाज नहीं आई, बस एक गूंज।

उसने फिर से उंगली को देखा —
उस पर एक पुराना चोट का निशान था।
वही निशान... जो कुछ महीने पहले बिरजू की उंगली पर हुआ था जब वो कांच से कट गया था।

उसी उंगली को आज उसकी थाली में देखा।


---

फुलवा ने उंगली को पकड़ा, और दरवाजे के पास बैठ गई।
वो कुछ नहीं बोल पाई।
गला सूख गया था।

उसने उंगली को सीने से लगाकर आँखे बंद कीं।

और वो रोई।

चुपचाप, धीमे, मगर पूरी रात।
क्योंकि आज वो भूखी नहीं थी —
आज उसका भैया उसके पास में था।


रात खत्म होने वाली थी।
आसमान हलका नीला होने लगा था और सर्द हवा में घास के पत्ते काँप रहे थे।

फुलवा आंगन में बैठी थी —
आंखें सूजी हुई थीं, और गोदी में एक फटी हुई चुनरी में लिपटी — वो चीज़ जो उसने थाली से उठाई थी…
बिरजू की उंगली।

उसने कुछ नहीं कहा, किसी को नहीं जगाया।

धीरे से वह उठी,
रसोई में गई, वही बर्तन जिसमें बची हुई सब्ज़ी थी, उसने उठा लिया।
अब उसमें कोई महक नहीं थी —
बस एक गुनाह की चुप साक्षी थी।

वो बर्तन थामे, खाली रास्तों से होती हुई जंगल की ओर चल पड़ी।


---

जंगल की मिट्टी गीली थी।
उसने एक नुकीली लकड़ी से ज़मीन खोदना शुरू किया।

सांस फूली हुई थी, हाथ काँप रहे थे —
पर वो खोदती रही।

जब गड्ढा बन गया, उसने बर्तन की सारी सब्ज़ी उसमें पलट दी।
फिर धीरे से वो उंगली, जिसमें एक पुराना चोट का निशान था — अपने भाई की पहचान,
उसने भी वही दफना दी।

घुटनों के बल बैठ कर उसने आंखें बंद कीं, और धीरे से बोली:

> “हे भगवान...
मेरा भाई बहुत अच्छा था।
मुझे डांटता था, हँसाता था, मेरे लिए जलेबी चुराता था।
लेकिन अब वो नहीं है...
मुझे उसकी बहुत याद आती है।



> अगर आप कहीं हैं,
तो प्लीज... उसे फिर से भेज दो।
जैसे भी हो —
चाहे तितली बनकर, पेड़ बनकर या पंछी बनकर...
लेकिन फिर से भेज दो।”



उसने मिट्टी वापस भर दी, और फूटी-फूटी सिसकियों के साथ जंगल से घर लौट आई।


---

🌿 एक महीना बाद...

कहीं दूर एक सड़क किनारे,
एक तोता पिंजरे में बैठा था —
हरी चमकदार पूंछ, लाल चोंच और एक आंख में छोटा सा निशान।

लोग उसे घेरे हुए थे।
एक आदमी बोला —

> “लाइए जनाब, ये तोता गाना भी गाता है, और आपको भविष्य भी बताता है!”



तोता पिंजरे से बाहर निकाला गया।
एक कंधे पर बैठाकर उससे गवाया गया:

> “पंख फैलाऊँ, गगन छू लूँ,
आज़ाद हो जाऊँ, उड़ जाऊँ…”



लोग ताली बजा रहे थे।
लेकिन तोते की आंखों में एक अजीब सा डर था —
जैसे कुछ खोया हुआ हो,
या कुछ अधूरा।

उस आदमी — गुरुदेव नाम का चतुर ठग, ने उस तोते को सिखा रखा था कि कैसे लाइन पर जाकर गाना गाना है, और फिर एक कार्ड उठाना है।
वो उससे कमाई करता था —
तोते का हर सुर उसके लिए एक रुपया था।

लेकिन वो तोता...

उसे खुद के अंदर कहीं एक अजनबी आवाज़ सुनाई देती थी।
धीरे-धीरे वो आवाज़ साफ होने लगी थी —

> “भैया...
मुझे बहुत याद आती है...
तुम फिर से आ जाओ...”



उसने सिर झटका।
फिर कानों में वही आवाज़ गूंज उठी।

फुलवा की आवाज़।

आंखों में चमक लौट आई —
और जैसे ही गुरुदेव ने फिर से उसे गवाने के लिए बढ़ाया,
तोते ने उसकी उंगली पर चोंच मार दी — इतनी तेज़, कि खून बह निकला।

> “अबे! ये क्या हुआ? तू तो मेरा पैसा छीन रहा है!!”



तोता पंख फड़फड़ाकर हवा में उठा —
पहली बार पिंजरे से बाहर,
पहली बार आज़ाद।


---

अब वो तोता हवा में उड़ रहा था,
हर पेड़, हर खेत, हर आंगन को देखता —
जैसे किसी चीज़ की तलाश में हो।

ऊँचे आसमान में, जब पंख थकने लगते हैं,
तो अक्सर दिल अपनी मंज़िल को याद करता है।

हरियाली तोता — जो अब अपने भीतर बिरजू की आत्मा को जागता हुआ महसूस कर रहा था,
आज़ाद हवा में उड़ते-उड़ते अपने अतीत के टुकड़े जोड़ने लगा था।

वो कौन था?
कहाँ से आया था?
और किसने उसे यूँ अधूरा बना दिया?

तभी एक मीठी ख़ुशबू हवा में तैरने लगी —
गर्मा-गर्म जलेबी की।

उसने नीचे झांका —
एक पुरानी सी मिठाई की दुकान थी।
चूल्हे पर देगची चढ़ी थी, और सुनहरी जलेबियाँ तली जा रही थीं।

तोते के दिल में एक मासूम ख्याल उठा —

> "इतने दिन बाद अपनी बहन से मिलूँगा...
खाली हाथ कैसे जाऊँ?
अगर मैं उसके लिए जलेबी ले जाऊँ, तो वो तो बहुत खुश हो जाएगी।"



वो मिठाई की दुकान की छत पर जा बैठा।
छोटी-सी चोंच में आवाज़ गूंजी:

> "मा ने काटा, बाप ने खाया,
बहन धड़धड़ रो पड़ी,
मैं हरियाली तोता बन बैठा..."



नीचे खड़े लोग ठिठक गए।
हलवाई ने मुस्कुराते हुए कहा:

> "अरे ओ मिठू मियाँ!
कितनी भाव भरी आवाज़ है! एक बार और सुनाओ ना!"



तोते ने गर्दन हिलाई:

> "पहले जलेबी दो, फिर सुनाऊँगा।"



हलवाई हँस पड़ा —

> "ये ले बेटा, पूरी गरम है!"



तोते ने थैली में जलेबी बांधकर चोंच से थामी और ऊँची उड़ान भर ली।


---

थोड़ी दूर पर उसे एक कपड़े की दुकान दिखी —
छोटे रंग-बिरंगे फ्रॉक हवा में झूल रहे थे।

तोते को फुलवा की फटी हुई पुरानी फ्रॉक याद आई।
वो हर त्योहार पर भी वही पहनती थी।

वो दुकान की छत पर बैठा और वही गाना फिर से दोहराया:

> "मा ने काटा, बाप ने खाया,
बहन धड़धड़ रो पड़ी,
मैं हरियाली तोता बन बैठा..."



नीचे दुकानदार चौंक गया —

> "कितना प्यारा गा रहा है! एक बार फिर से गाओ मिठू!"



> "अगर तुम मुझे वो लाल रंग की फ्रॉक दोगे, तो ही सुनाऊँगा।"



> "ठीक है बेटा, ले जा — गा फिर से!"



तोते ने गाया,
फ्रॉक थैली में बांधी गई,
और वह फिर आसमान में उड़ चला —
अब उसके पास बहन के लिए मीठा और वस्त्र दोनों थे।


---

कुछ दूरी पर मसालों की दुकान आई।
मिर्च, हल्दी, धनिया — हवा में तीखी खुशबू।

तोते ने फिर वही किया — दुकान की छत पर बैठा और गाना दोहराया।

दुकानदार मुस्कुरा उठा:

> "क्या बात है! एकदम दिल को छू गया।"



> "अगर तुम मुझे मिर्च दे दोगे... तो एक बार और सुनाऊँगा।"



> "ठीक है बेटा, ये ले — बहुत तीखा है!"



तोते ने मिर्च थैली में रखवाई और उड़ चला।


---

अब उसकी नज़र एक सिलाई की छोटी दुकान पर पड़ी।

कपड़ों के बीच में रखी थी — सुई की छोटी-छोटी डिब्बियाँ।

तोते ने फिर गाया:

> "मा ने काटा, बाप ने खाया,
बहन धड़धड़ रो पड़ी,
मैं हरियाली तोता बन बैठा..."



दुकानदार मुस्कराया:

> "तू तो गायक निकला रे!
क्या चाहिए?"



> "थोड़ी सुई... दे दोगे?"



> "ये ले बेटा — मुफ्त में ले जा, इतनी अच्छी आवाज़ के लिए!"



तोता सुई भी थैली में रखवाकर अब तेज़ी से उड़ने लगा।


---

अब उसके पास था:

अब वो अपने गांव के पास पहुँच चुका था।

नीचे दिखाई दिया —
पुराना नीम का पेड़, टूटा आंगन, और मिट्टी का घर।

उसकी आंखें नम थीं —
पर दिल में एक नई रौशनी थी।

अब वो एक भाई नहीं था,
न एक तोता ही...
वो भाई की आत्मा था,
जो अपनी बहन के आँसुओं की पुकार से लौट आया था।


गांव की मिट्टी वही थी —
वही खेत, वही पगडंडियाँ, वही टेढ़ी-मेढ़ी दीवारें।
पर हवा में अब कुछ बदल गया था।

हरियाली तोता, जो अब सिर्फ एक परिंदा नहीं बल्कि एक भाई की लौटी आत्मा था,
गांव की सीमाओं में लौट चुका था —
बिना कुछ कहे, लेकिन बहुत कुछ करने के लिए।


---

🌿 सबसे पहले — श्यामा

तोता धीरे-धीरे एक पहाड़ी पगडंडी से नीचे उतरते खेत की ओर गया।
वहाँ — एक औरत झुकी हुई, बकरियों को चरा रही थी।

वो थी — श्यामा।

धूप में झुकी कमर, चेहरे पर झल्लाहट, और हाथ में लाठी।
वो बकरियों को डांट रही थी, बिलकुल वैसे ही जैसे वो कभी बिरजू को डांटती थी।

तोते की आंखों में गुस्से की आग चमक उठी।
वो फड़फड़ाता हुआ नीचे आया,
धीरे से उड़ता हुआ उसके पीछे पहुंचा।

उसकी चोंच में अब वही सुई थी,
जो उसने सिलाई की दुकान से ली थी।

चुपचाप,
उसने एक सुई उठाई — और...

> “छप्प!” —
वो सीधा **श्यामा की दाईं आंख में घुसा दी।



श्यामा ज़ोर से चीखी —

> “आय हाय! कौन है? क्या कर दिया? आँख... मेरी आँख!”



उसने इधर-उधर देखा —
पर वहाँ कोई इंसान नहीं था,
बस एक हरा तोता उड़ता जा रहा था।


---

🚬 अब बारी थी — रामसरन की

गांव के सिरे पर एक खेत के किनारे,
एक आदमी पीपल के नीचे बैठा बीड़ी फूंक रहा था — आँखें बंद, पैर फैलाए हुए।

वो था — रामसरन।

धूप में उसका चेहरा शांत लग रहा था,
पर तोते के मन में उसकी यादें आग की तरह जल रही थीं —

बिरजू को अनदेखा करना,
फुलवा को भूखा सुलाना,
और... माँ को गँवा देना।

तोता उसके पास चुपचाप आया।

इस बार उसकी थैली से निकली —
लाल मिर्च।
पिसी हुई, बहुत तीखी।

उसने एक झोंक लिया,
और पंखों की फुर्ती से मिर्च सीधा रामसरन की आँखों में झोंक दी।

> “आग लग गई! कौन है रे?” —
रामसरन ज़ोर से चिल्लाया,
आँखें मसलता रहा, ज़मीन पर लोट गया।



पर तोता बिना रुके उड़ता चला गया —
अब उसे किसी को सज़ा नहीं देनी थी...
अब उसे सिर्फ अपनी बहन से मिलना था।


---

🏠 और अब — उसका घर

तोता जैसे ही अपने टूटे हुए आंगन के ऊपर पहुंचा,
वहाँ एक हल्की रोशनी दिखी।

वो खिड़की से झांका —
फुलवा अकेली थी,
घुटनों में सिर छुपाए, धीरे-धीरे रो रही थी।

उसकी आंखें लाल थीं, और हाथ में था — वही फटा हुआ फ्रॉक।

वो बुदबुदा रही थी —

> “भैया... तुम सच में चले गए?
अब कोई मुझे चिढ़ाने नहीं आएगा क्या?
कोई जलेबी चुराकर नहीं देगा?”



तोता चुपचाप खिड़की से अंदर आया।

उसकी चोंच में थी —
लाल फ्रॉक, जलेबी की पुड़िया, और उसकी बहन के लिए चुपचाप भरा हुआ प्रेम।

वो फुलवा के पीछे पहुंचा —
धीरे से सामान ज़मीन पर रखा...
एक झलक उसकी बहन को देखा...

और फिर...

उड़ गया।

क्योंकि वो जानता था —
अब वो इंसान नहीं है,
अब वो उसकी दुनिया में नहीं रह सकता।

वो न उसे बता सकता है,
न गले लगा सकता है,
बस देख सकता है... दूर से।


---

🧵 फुलवा का एहसास

कुछ पल बाद, फुलवा ने अपनी आँखें खोलीं।

उसकी नज़र सामने ज़मीन पर पड़ी —
लाल रंग की फ्रॉक, और जलेबी की पुड़िया।

वो चौंक गई।
धीरे से फ्रॉक उठाई —
उसके अंदर बंधी थी वही कढ़ाई वाली पट्टी,
जिसे बिरजू हमेशा अपने कंधे पर बाँधता था।

वो समझ गई।

उसकी आंखों से आंसुओं की धार बह निकली।

> “भैया...
तुम आए थे ना?
मैंने महसूस किया...”



वो लाल फ्रॉक को गले से लगाकर रो पड़ी।
जलेबी का एक टुकड़ा मुंह में डाला,
जैसे भाई की यादों को स्वाद में बदल रही हो।


---

🕊️ और उस समय...

तोता आसमान में उड़ रहा था,
फूलों से लदी किसी अमलतास की डाल पर बैठा था।

उसके मन में कोई ग़म नहीं था,
ना कोई शिकायत।

उसने बहन की मुस्कान देख ली थी —
और वही उसके लिए सबसे बड़ी मुक्ति थी।


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