"कैसी हो"
अचानक मोबाइल की स्क्रीन पर शेखर का मैसेज आया।
करीब दो साल बाद...
ना दिल धड़कता था अब उतना, ना उम्मीद बची थी। पर कुछ बातें कभी नहीं मरती।
छवि एकटक अपने मोबाइल को देखे जा रही थी। उसकी आँखें बस पथराई हुई थीं, लेकिन उसके हाथ कांप रहे थे। दिल में एक तूफान सा उठ रहा था। हजारों सवाल मन में थे।
आँखों में आँसू नहीं थे, लेकिन दो साल पहले की उस बारिश ने आज फिर से मन और बदन को भिगो दिया था।
छवि ने मोबाइल को तकिये के नीचे रख दिया और खुद भी बिस्तर पर लेट गई — बेजान सी। जैसे उस एक मैसेज का जवाब देने का मतलब फिर से जीना था। उस एक मैसेज ने फिर से छवि को दो साल पहले की बारिश में लाकर खड़ा कर दिया
आज से दो साल पहले...
छवि और शेखर आज से दो साल पहले ऑफिस के कैंटीन में मिले थे। दोनों एक दूसरे से अनजान।
सब कुछ बिल्कुल नया था। छवि के लिए नया शहर, नई नौकरी, नए लोग।
फिर चाय के कप और हँसी के कुछ पल, दोनों को करीब लाने लगे।
धीरे-धीरे वो शामें आदत बन गई। बिना कहे वो एक-दूसरे को समझ जाते। भीड़ में भी बस उसी की तलाश करना, वो दोनों अब एक-दूसरे की आदत बन गए थे।
एक दिन... बहुत बारिश हो रही थी। दोनों साथ थे।
छवि आँखें बंद किए ठंडी हवा
और बारिश की बूँदों की आवाज़ को महसूस कर रही थी। उसके खुले बाल उड़-उड़ कर शेखर के चेहरे को छू रहे थे।
शेखर बस एकटक उसके चेहरे को देखे जा रहा था। दोनों चुप थे।
लेकिन उनकी चुप्पी आपस में बातें कर रही थी।
नजदीकियां बढ़ रहीं थी दोनों एक दूसरे की बाहों में थे, बिल्कुल पास, बिल्कुल करीब। इतने करीब की उनकी साँसे और उनकी धड़कनें एक सी हो गई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे उनकी आत्मा एक हो रही थी।
"शेखर..."
"हम्म?"
"अगर हम इन सब को नाम दे दें तो?"
छवि की आवाज़ कुछ काँप रही थी। उसकी आवाज़ में एक अनकहा-सा डर था।
"नाम देने से अक्सर रिश्ते टूट जाते हैं छवि, हम इस पल में कितने खुश हैं"
शेखर ने छवि के चेहरे जो अपने दोनों हाथ में लेकर कहा
छवि चुप थी। बस शेखर की आँखों में देख रही थी। शायद कुछ कहना चाहती थी लेकिन शब्द नहीं थे। जैसे उसके होंठ तक आकर थम गए।
शायद डर से...
डर कि कहीं उसकी बातें सब कुछ खत्म न कर दें।
शेखर, जिसके नाम वो अपनी आत्मा तक कर चुकी थी, वो कहीं उससे दूर ना चला जाए।
लेकिन वक़्त नहीं रुकता... वो बस चलता जाता है अपनी गति से।
दिन बीत रहे थे...
छवि के घरवाले उसके शादी का दबाव बढ़ाने लगे थे।
और एक दिन, उसने शेखर को कह दिया।
"शेखर! ना तुम्हारे पास वक़्त है, ना हिम्मत। और मैं... अब इंतज़ार नहीं कर सकती। मुझे माफ़ करना।"
कोई लड़ाई नहीं हुई। बस एक चुप्पी,
एक चुप्पी... जो धीरे-धीरे दोनों के बीच से दीवार सी बन गई।
वो तड़पते थे एक-दूसरे के लिए, लेकिन दीवार शायद ज्यादा बड़ी थी।
अब ना पहले सा मिलना होता, ना पहले सी बातें। दोनों ने एक-दूसरे का चेहरा तक देखना बंद कर दिया था।
लेकिन वो बारिश, वो शाम, वो चाय के कप... रोज़ उनका इंतज़ार करते और कहते-
"ओ निष्ठुर समय, थम जा ना ज़रा"
दो पल की तो बात है
दो पल की ही तो है ये जिन्दगी
दो पल का तो साथ है
मिल जाने दे ना
इनकी आत्मा को एक दूजे के पनाह
जहाँ रूहें हों एक
ना कोई दूरियां ना कोई गुनाह
"ओ निष्ठुर समय, थम जा ना ज़रा"
शेखर ने ऑफिस छोड़ दिया। छवि ने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की ना मिलने की।
भूल गए थे शायद दोनों एक दूसरे को। या शायद भाग रहे थे सच से
वो सच्चाई जो बस उनकी आत्मा जानती है। जो शायद बस उनके मन, उनके दिल को पता है।
शेखर का मैसेज फिर आया —
"छवि, मैंने बहुत कुछ खोया... शायद सबसे ज़्यादा तुम्हें। लेकिन, तभी मैं डर गया था, अब नहीं।"
छवि ने जवाब लिखा:
"कभी-कभी सही वक़्त बहुत देर से आता है शेखर। अब सब कुछ बदल चुका है।"
उसने फोन बंद किया और लेटे-लेटे खिड़की की तरफ देखा।
अब भी बारिश हो रही थी,
बस उसके साथ अब वो नहीं था जिसके साथ होने से बारिश खास लगती थी।
उसने आँखें बंद कर ली।
उसकी आँखों से अब आँसू गिर रहे थे।लेकिन अब वो शांत थी, दिल में उठता तूफान अब धीरे-धीरे थम रहा था।
पूरे कमरे में सन्नाटा था।
सब कुछ रुक गया, सब कुछ शांत हो गया।
छवि की साँसे भी...
~ नैना