पिछले कुछ महीनों में आरव और मायरा की दोस्ती अब रिश्ते की एक नयी परिभाषा बन चुकी थी। वो दोनों अब सिर्फ प्रोजेक्ट पार्टनर नहीं थे—वो एक-दूसरे की दुनिया बन चुके थे।
कॉलेज की छुट्टियाँ अब साथ बिताने का बहाना बन गईं। मायरा के लिए सुबह की शुरुआत आरव के “गुड मॉर्निंग” मेसेज से होती, और दिन का आख़िरी मेसेज भी उसी से होता:
"सो जा पगली, तुझे देखे बिना नींद नहीं आती।"
आरव के नोट्स अब मायरा के पसंदीदा रंगों में सजते थे, और मायरा के किताबों के पन्नों में छोटे-छोटे प्यार भरे नोट्स छुपे रहते। कभी कोई चॉकलेट, तो कभी कोई शायरी।
एक बार दोनों एक किताबों के मेले में गए थे। मायरा ने एक पुरानी डायरी खरीदी थी—सादी, बिना कवर की। उसने कहा था,
"इसमें मैं सिर्फ उन्हीं चीज़ों को लिखूंगी जो दिल के बेहद करीब हों।"
पहले ही पन्ने पर उसने लिखा—"A for आरव"
आरव के लिए ये पढ़ना किसी ख़ास इज़हार से कम नहीं था।
लेकिन जैसे-जैसे कॉलेज का आख़िरी साल नज़दीक आ रहा था, ज़िंदगी की हकीकतें दरवाज़ा खटखटाने लगी थीं।
एक दिन मायरा के हाथ में एक ऑफिशियल लेटर था। अमेरिका के एक टॉप यूनिवर्सिटी से स्कॉलरशिप मिल गई थी—फुल फंडिंग, दो साल का कोर्स।
वो ख़ुश थी, लेकिन भीतर कुछ कांप रहा था। उसने आरव को लेटर दिखाया, वो मुस्कराया और कहा:
"Wow… तुम तो सच में स्टार बनोगी!"
लेकिन मायरा ने उसकी आँखों में हल्की सी खामोशी पढ़ ली।
"डर लग रहा है," उसने कहा।
"किससे?"
"तुमसे दूर जाने से।"
आरव ने उसका हाथ पकड़ा और कहा,
"हमारा रिश्ता अगर वक़्त और दूरी से डर जाए, तो फिर ये प्यार नहीं आदत थी। और मुझे तुमसे आदत नहीं, मोहब्बत है।"
उनका इश्क़ जैसे और भी गहरा हो गया था उस दिन, लेकिन उस गहराई में एक डर छुपा था—"क्या प्यार सच में समय और दूरी झेल सकता है?"
मायरा अमेरिका चली गई। शुरू में रोज़ कॉल्स, वीडियो चैट्स, गिफ्ट्स और शायरी का आदान-प्रदान होता रहा। लेकिन धीरे-धीरे चीज़ें बदलने लगीं।
टाइम ज़ोन का फर्क, क्लासेस का दबाव, और थकावट ने बातों की जगह ख़ामोशियों से भर दी।
एक रात, मायरा ने कॉल पर कहा,
"तुम पहले जैसे नहीं रहे आरव।"
वो चुप रहा।
"पहले तुम मुझे बिना कहे समझ जाते थे। अब तो जवाब भी देर से आता है।"
आरव का जवाब कड़वा नहीं था, लेकिन सच्चा था:
"तुम्हें लगता है बस मैं बदला हूँ? क्या तुम वैसी ही हो जैसी पहले थी?"
उस रात दोनों ने घंटों बहस की—प्यार के नाम पर, भरोसे के नाम पर। और फिर मायरा ने कहा:
"शायद हमें थोड़ा वक़्त लेना चाहिए..."
आरव ने ना कुछ कहा, ना रोका। उसने सिर झुकाया और कहा:
"ठीक है... लेकिन अगर दिल से निकल पाई तो वापस मत आना।"
फोन कट गया।
उसके बाद दिन हफ्तों में, और हफ्ते महीनों में बदलते गए। मायरा अपने करियर में व्यस्त हो गई, और आरव ने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया। लेकिन हर किताब के आख़िरी पन्ने पर वो अब भी मायरा का नाम लिखता था।
कॉलेज के वो लॉन, वो कैंटीन की खिड़की, वो चाय की चुस्की—अब सब कुछ वैसा ही था, बस उसके साथ मायरा नहीं थी।
शायद यही होता है—जब सब कुछ दिखता है, लेकिन कुछ भी महसूस नहीं होता।
क्योंकि जो रिश्ता कभी ज़िंदगी भर की उम्मीद लगता था, वो अब सवाल बन चुका था:
"क्या हम कभी फिर से वैसे हो पाएंगे?"