When the ghost came and helped. in Hindi Short Stories by Mohan Pathak books and stories PDF | जब भूत ने आकर मदद की।

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जब भूत ने आकर मदद की।

कभी कभी ज़िन्दगी में ऐसे अनुभव होते हैं जो विज्ञान, तर्क और अनुभूतियों की सीमाओं को पार कर जाते हैं। उनपर विश्वास करना कठिन हो जाता है। यह कहानी एक ऐसी ही रात की है, जब भूत ने आकर मदद की।यह बहुत पुरानी बात है। मैं तब लगभग सात आठ साल का हूंगा।तब हम अपने गांव में ही रहते थे।  हमारे घर के ठीक सामने घना जंगल था। सांझ होते ही उस जंगल में कुछ लोग मशाल लिए इधर उधर घूमते नजर आते थे।ऐसा लगता जैसे जंगल में कुछ खोज रहे हैं। कोई ऊपर की ओर जाता तो कोई नीचे की ओर आता।यह क्रम रात भर चलते रहता था। तब मुझे हमारे पड़ोस में रहने वाले हरका जी ने बताया था वे टोले(भूत) हैं। वे प्रायः शाम को हमारे घर में बैठने आते थे। पिताजी के साथ तम्बाकू का आनन्द लेते थे। तब उनके साथ उनका बेटा भी आता था। उन्हें बहुत सी भूतों की कहानियाँ आती थी। हम सुनाने के लिए जिद करते तो वे सुना देते थे सुनते सुनते हमें बहुत डर लगने लगता। कभी कभी तो मैं डर से दरवाजा खिड़की बन्द कर देता था। बीच बीच मैं सामने जंगल की ओर भी देख लेता। यह देखने के लिए कि टोले घूम रहे हैं कि नहीं। मुझे रोज रात को खिड़की के बाहर ऐसे टोले अक्सर दिखाई देते थे। कभी कभी  उस जंगल से अजीब सी आवाजें भी आती थी। मैं बहुत डर जाता था और अपने अन्दर छिप जाता था। उस वक्त मुझे लगता काश। मेरी माँ जिन्दा होती तो उसके आँचल में जा छिपता। क्योंकि माँ का आँचल हर मुसीबत से मुक्ति दिला देता है। बच्चा अपने को सबसे अधिक सुरक्षित माँ के आँचल में ही पाता है, अन्य चाहे कोई कितना ही प्यार, स्नेह रखे। संकट के समय वह माँ के आँचल में ही सुकून पाता है।                  इस डर के चलते मुझे उस जंगल से साथ में गुजरते हुए भी डर लगता था। मुझे  बचपन में अक्सर उसी जंगल से होकर अपनी पाठशाला पहुंचना होता था। अपने गांव की प्राथमिक पाठशाला उसी जंगल के पार थी। बड़ा हो जाने पर भी टोले का भय बना रहता था।  कुछ साल बाद  मैं शहर में रहने लगा।गाँव का घर खाली हो गया। हमारा गाँव जाना भी कम होने लगा। अब केवल शादी ब्याह में गाँव जाना होता था।  मैं अपने गाँव के बारे में लगभग सबकुछ भूल चुका था। रात में दिखने वाले टोले  को भी मैं कोरी कल्पना समझने लगा था। एक बार मेरे चाचा के लडके की शादी थी। मैं करीब 15- 16 साल बाद गाँव गया था। हमने अपना घर भी साफ़ करवा रखा था। हम अपने घर में ही रुके थे। एक रात अचानक मेरी नींद खुली। मैने खिड़की से बहार देखा तो मुझे वही टोले जंगल में नाचते नजर आए। अब जंगल काफी काटा जा चुका था।वह अब पहले जैसा घना नहीं रहा था। सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था। यद्यपि अब मैं बड़ा हो चुका था। इस बात पर भी विश्वास नहीं करता था कि भूत होते भी हैं। इसे कोरी कल्पना मानता था। तथापि उस रोज उन टोलों को नाचते हुए देख मैं बहुत डर गया था।  ऐसा लग रहा था जैसे वे हमारे घर की ओर ही आ रहे हैं। मुझे पहली बार मानना पड़ा कि भूत वास्तव में होते हैं। नाचने गाने की आवाजें साफ सुनाई दे रही थी। बचपन में सुनी भूतों की सभी कहानियां सच लगने लगी थी।भूतों को लेकर जो डर मन में बैठा हुआ था वह पक्का होता गया। ऐसे ही भूतों को लेकर बचपन में सुनी कुछ बातें जो मुझे आज भी याद हैं। गांव में प्रायः लोग आधी रात को इन भूतों की पूजा किया करते थे। जब कोई बच्चा बीमार पड़ता तो उसे सबसे पहले भभूत लगाई जाती थी।फिर भूत की पूजा होती थी । हमारे पर्वतीय गांवों में इन भूतों को मसाण या छव कहते हैं। इन मसणो के भी अलग अलग नाम होते हैं। जैसे लखी मसाण, लटिया मसाण, दूथि मसाण आदि । आज भी गांव में लोग इनकी पूजा करते हैं। जिसे ये मसाण लगता वे अजीब सी हरकत करते थे। एक दिन भूत से अपना प्रत्यक्ष सामना हो ही गया। उस दिन मुझे मानना पड़ा था कि भूत वास्तव में होते हैं। घटना कुछ इस प्रकार है।- दिन छिपने को आया था। हरिया अभी भी उस छोटे से स्टेशन पर किसी के आने का इन्तजार कर रहा था।उसे स्टेशन तो नहीं कहा जा सकता। हां, वह छोटा सा कस्बा ही उस क्षेत्र के चारों ओर के गांवों के लोगों के आने जाने का केन्द्र अवश्य था। जिसे भी कहीं जाना होता वे उसी स्थान से बस पकड़ते थे। अतः उस क्षेत्र के लिए वही उनका बस स्टेशन था। वास्तव में यह छोटा सा स्थान बस स्टॉप था जहां आने जाने वाली बसें रुकती, सवारियों को उतारती और बैठाकर ले जाती थी। उस छोटे से कस्बे में यही कोई कुल मिलाकर सात आठ दुकानें ही थी।  दिन छिपने को था। हरिया अभी भी किसी का इंतजार कर रहा था।  दूर गांव से रोज उस स्टेशन तक किसी न किसी का सामान पीठ पर लादकर यहां तक लाना किसी का सामान उनके गांव तक पहुंचाना उसका रोज का काम था। यही उसकी रोजी रोटी थी। सामान लाने लेजाने के बदले जो उसे मिल जाता उसे ही भगवान का प्रसाद समझ कर स्वीकार कर लेता था। वह कभी किसी से भी मोलभाव नहीं करता था। आने जाने वाले लोग भी हरिया को ही सामान के लिए बुलाया करते थे। हरिया सबका प्यारा था। आस पास के गांव वालों को जब कहीं जाना होता तो हरिया को चार पांच दिन पहले ही कह देते थे। शाम को जो कोई भी पहले आता वह हरिया को लेकर अपने गांव की ओर चल देता था। दूर से आने वाला इसी आशा में रहता काश हरिया मिल जाता तो अच्छा होता। हरिया के अलावा और भी गांव वाले कुछ लोग ऐसे ही सामान लाने लेजाने का काम करते थे।किन्तु लोगों की चाहत हरिया ही होती थी।  उस दिन हरिया को अपने गांव के आस पास के गांव वाले कोई भी नहीं मिला था। दुकानें बंद होने लगी थी।  उस कसबे में एक दो दुकानदारों को छोड़ कर सभी शाम को अपने अपने गांव चले जाते थे। एक दुकान वाले ने अपनी दुकान बढ़ाते हुए हरिया से कहा, "चलो हरिया अब कोई बस नहीं आने वाली।" हरिया ने कहा, "डाकगाड़ी अभी नहीं आयी।थोड़ी देर और रुकता हूं।" अंधेरा हो चला था। हरिया अपने घर चलने ही वाला था। इतने में उसे एक गाड़ी के रुकने की जोर की आवाज सुनाई दी।  गाड़ी में से एक फौजी अधिकारी अपनी सैन्य वर्दी में बाहर आया। उसने हरिया को पहचान लिया था। और हरिया को प्रणाम कर कहा चाचा अच्छा हुआ आप मिल गए। मैं बड़ी चिन्ता में था।पाटिया जाने वाला इतनी देर तक अब कोई नहीं मिलेगा। यह सुनते ही हरिया ने कहा, "बेटा मुझे क्षमा करना मैंने तुमको पहचाना नहीं। पाटिया वालों को तो मैं सबको जानता हूं। तुम पाटिया किसके बेटे हो।"  पाटिया गांव हमारे गांव के पास ही है।  यह तो बहुत अच्छा हो गया। मैं तुमको पाटिया  पहुंचा कर अपने गांव आसानी से जा सकता हूं। उसने खुश हो कर कहा, चलिए साब चलते हैं। उसने फौजी का सामान पकड़ा और चल दिया था। फौजी ने चलते हुए कहा, मुझे साब साब मत कहा करो। मैं आपका पंकिया हूं । चाचा भूल गए बचपन में पंकिया पंकिया कहकर जिसे अपनी गोद में खिलाते थे। इतना सुनते ही हरिया ने सामान नीचे रखकर पंकज को गले से लगा लिया। आंखों में आंसू भरकर भर्राई आवाज में बोला बेटा बूढ़ा हो चला हू। माफ़ करना पहचान ही नहीं पाया। फिर आज बहुत सालों बाद गांव आना हो रहा है ।  चलो चलते हैं।रात होने वाली है। घर जाकर ही बातें करेंगे। पाटिया गांव वहां से लगभग एक घंटे का रास्ता था। आधा रास्ता तय कर चुकने के बाद  घड़ी में देखा सात बज रहे थे। अंधेरा घना छाने लगा। आसमान में बादल छाए होने के कारण घुप्प अंधेरा हो गया था। थोड़ी ही दूर जाने तक जोरों से बिजली कड़कने लगी थी।कल कल जोरों की बारिश हो रही थी. घना अँधेरा था. बादल रह-रहकर गरज रहे थे. थोड़ी-थोड़ी देर पर बिजली चमकती तो आस-पास की चीजें दिखाई पड़ती थीं अन्यथा हाथ को हाथ दिखना भी मुश्किल लग रहा था।लोहागढ़ के इस जंगल में आगे कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। हरिया ने उजाले के लिए अपने थैले में से कुछ विशेष प्रकार की लकड़ियां निकली।  जिन्हें वहां की भाषा में छिलके कहा जाता है।ये चीड़ की लकड़ी के उस हिस्से से निकली जाती हैं जिस हिस्से ने चीड़ से निकलने वाला बिरोजा(लीसा ) भीगा होता है । यह किसी मशाल की तरह जलता है। उस पहाड़ी गांवों में रात्रि में चलने के लिए इन्हीं छिलकों का इस्तेमाल किया जाता है। तेज आंधी होने के कारण छिलके जल नहीं पा रहे थे।जंगल में गांव के लोगों ने ऐसे ही बारिश से बचने के लिए घास फूस की झोपड़ी बनाई हुए थी ताकि आते जाते लोग  बारिश से बच सकें।  हम दोनों  उसी झोपड़ी में जाकर बैठ गए थे। आंधी और बारिश के रुकने का इन्तजार करने लगे। हरिया ने कहा, बेटा डरना मत। मैं हूं। अभी बारिश रुक जाए तो जल्दी जल्दी चले चलेंगे। आधा घंटा ऐसे ही बैठे रहे।बारिश कम होने का नाम नहीं ले रही थी। झोपड़ी के अन्दर पानी आने लगा था। हरिया चाचा ने माचिस और छिलकों की मदद से आग जलानी चाही परन्तु माचिस जलने के बाद बुझ जा रही थी। पूरा माचिस का डिब्बा खाली हो गया था। हरिया चाचा ने ही बताया आग जल जाती तो अच्छा होता।बैठने लायक हो जाता। आग के पास भूत प्रेत और जंगली जानवर नहीं आते हैं।यह बात मैने बचपन में भी सुनी थी। पूरे जंगल से सांय सांय की आवाज आ रही थी। बिजली के कड़कने से एक क्षण के लिए सब कुछ दिखाई देता फिर घुप्प अंधेरा छा जाता। मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे। बचपन की टोलों वाली घटना भी याद आने लगी। मैं एक फौजी होने के बावजूद काफी डरने लगा था। अन्दर से डरा हुआ होने पर भी मै हरिया चाचा को हिम्मत दिलाता। हम फौजी ऐसे जंगलों में ही तो रहते हैं। इससे भी भयंकर  जंगलों  में रहते हैं। मैने अपना सामान खोलकर उसमें से टॉर्च और लाइटर निकाला। हरिया चाचा ने उस लाइटर से आग जलाने की बहुत कोशिश की किंतु लाइटर से आग की एक भी चिंगारी नहीं निकल रही थी। मैं आश्चर्यचकित था। लाइटर तो नया है। ऐसा कैसे हो सकता है उससे एक भी चिंगारी न निकले। टॉर्च भी जो अभी तक उजाला किए थी अचानक वह भी धीमी होती गई और बंद हो गई। जबकि टॉर्च में बैट्री बिल्कुल नई थी। गांव जाने के लिए खुद उसमें नयी बैट्री डाल कर निकला था। मेरे पास एक जोड़ी बैट्री अतिरिक्त थी। उसे निकालकर उसे डालकर देखा वह भी नहीं जल पाई थी। अब तो मुझे विश्वास होने लगा कि हम किसी भूत के साए में फंस चुके हैं । ऐसे किस्से बचपन में बड़ों से सुने थे ।जब भूत का साया साथ हो तो कुछ भी काम नहीं हो पाता है। अब तो डरना स्वाभाविक था । हरिया चाचा भी डरने लगे थे। उन्हें अपनी कम मेरी चिंता अधिक हो रही थी। वे अपने को दोषी मान रहे थे। इतनी रात को हमें नहीं चलना चाहिए था । आज की रात वहीं गुजारी जा सकती थी। मैं काफी डर जाने के कारण हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। बचपन में सुना था हनुमान चालीसा के पाठ करने से भूत पिचास सामने नहीं आते हैं।                            एक घण्टे बाद भी न तो बारिश कम हुई और न ही आंधी रुकी थी। अब क्या करें। वापस भी नहीं जा सकते थे।हम दोनों की हालत त्रिशंकु की जैसी हो गई थी।  हम दोनों बैठे सोच रहे थे कि क्या करें । इतने में दूर से किसी को रोशनी लिए आते देखा। मुझे तो बचपन की टोलों वाली घटना याद आने लगी थी । हो न हो यह भी कोई टोला ही होगा। इतनी रात को इस जंगल में कौन हो सकता है। वह रोशनी हमारी ओर ही आ रही थी। अब तो मेरी हालत काटो तो खून नहीं वाली हो गई थी । मुझे पक्का विश्वास हो गया था कि आज बचना मुश्किल है। हनुमान चालीसा के स्वर भी तेज तेज होने लागे थे। हरिया चाचा भी डरे हुए थे। किन्तु मैं अधिक न डर जाऊं इसलिए ना डरने का नाटक कर रहे थे। थोड़ी ही देर में  एक बूढ़ा सा व्यक्ति लालटेन लिए हमारे पास आकर बोला चलो सामने मेरी झोपड़ी है। वहां आराम करोगे। कल सुबह चले जाना। बारिश का रुकना मुश्किल लग रहा है। मुझे पता चला कि जंगल में किसी के खांसने ऑर बोलने की आवाज आ रही है। कोई यात्री समझ कर रोशनी लिए चला आया। हरिया चाचा ने सोचा जंगल में कोई चरवाहा झोपडी बनाकर रहता हो। उसकी बातों में आकर उसके साथ चलने को तैयार हो गए।किन्तु मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि वह रोशनी वाला बूढ़ा सत्य कह रहा है। मुझे तो वह कोई भूत ही लग रहा था जो हम  दोनों को अपने चंगुल में फंसना चाह रहा है। उसे कैसे पता हम उस जगह पर हैं। मैं इनकार करता रहा।मगर हरिया चाचा के कहने पर हम उसके साथ चल दिए थे।                       मन तो बहुत डर रहा था। न जाने यह कौन है । उसे कैसे मालूम कि हम वहां पर रुके हैं । परन्तु कोई दूसरा चारा भी हमारे पास नहीं था। या तो आर या पार सोच बजरंग बली को याद कर  चल दिए थे। थोड़ी दूरी पर एक झोपड़ी थी। उसमें एक कोने में आग जल रही थी। हमने सबसे पहले अपने कपड़े सुखाए। ठंडा भी हो रहा था। उस आग से थोड़ी जान में जान आयी । मैने अपना टॉर्च देखा अब वह भी जलने लगा था। अब तो मुझे पूरा विश्वास होता जा रहा था कि हम भूत के चंगुल में फंस ही गए हैं। थोड़ी देर में वह बुड्ढा एक प्लेट में कुछ फल खाने के लिए ले आया। मैं तो डरा हुआ था। खाने से मना कर दिया। हरिया चाचा ने भी पहले तो मना किया ।  बुड्ढे के बार बार कहने पर खाने को तैयार हो गए। हरिया चाचा ने कहा, लो खा लो  अब जो होगा देखा जायेगा। फल बहुत स्वादिष्ट हैं। भूख तो लगी ही थी। एक फल  उठाकर खाने लगा। ऐसा स्वादिष्ट फल मैंने आज तक नहीं खाया था । उस फल का स्वाद दिव्य था। एक के बाद तीन चार फल खा गया। उस प्लेट में फल अभी भी उतने ही थे जितने वह बुड्ढा लाया था  अजीब सी माया थी। खाने पर भी फल घट नहीं रहे थे । अब सब कुछ बजरंगबली के भरोसे छोड़ में निश्चिंत हो गया । थोड़ी देर में वही बुड्ढा हमें दो दो कम्बल दे गया और बोला। अब आप लोग आराम कीजिए । कल प्रातः चले जाना। यह कहकर वह भी एक कोने में सो गया था। मुझे तो यह कुछ अजीब सा लग रहा था। भय और आश्चर्य से नींद कहां से आती। हरिया चाचा भी नहीं सो पा रहे थे । अब बारिश कम हो चली थी। मैने सोचा हमें यहां से चल देना चाहिए। तब तक रात के दस बज चुके थे। हरिया चाचा ने कहा अब जो भी हो रात में जंगल के रास्ते जाने से अच्छा है यहीं रुक जाएं ।कल सुबह ही चल देंगे।मुझे डर तो बहुत लग रहा था। तरह तरह के विचार मन में आ रहे थे। बचपन में सुनी भूतों की सब कहानियां याद आने लगी थी। भूत खाने पीने की चीजें भी देते हैं। कभी कभी भूत मदद भी करते हैं। यही सोचकर कि यह भूत भी हमारी मदद के लिए ही आया हो। एक बार  दादा जी ने बताया था कि एक भूत ने उन्हें बीड़ी पीने को दी थी। तब दादा जी ने बताया था कि एक बार उन्हें कहीं से आते आते रात हो गई थी। अकेले ही  अपने इष्ट देव का नाम लेकर चल रहा था। इतने में पीछे से आवाज आयी, "दाज्यू इतनी रात कहां से आ रहे हो।" पीछे देखा कोई नहीं था। फिर सोचा मेरा भ्रम होगा। मैं आगे चलता रहा। किन्तु किसी के पीछे से चलने का आभास अब भी हो रहा था। दादा जी ने एक बार फिर मुड़कर पीछे देखा , वहां कोई नहीं था। डर भी लग रहा था परन्तु चलता रहा। कुछ आगे चलकर आवाज आयी,"दज्यू बीड़ी पियोगे।" मुझे बीड़ी की तलब तो लगी ही थी। और सोचा मेरे पास बीड़ी तो थी पर माचिस नहीं थी। सोचा माचिस मिल जाय तो उसे जलाने से भूत होगा भी तो भाग जाएगा।ऐसा माना जाता है भूत आग के पास नहीं टिक पाता है। मैने कहा बीड़ी तो है मेरे पास माचिस है तो दे दो। इतने में एक छाया सी सामने आयी,उसने दो बीड़ी माचिस से सुलगाई और एक मेरी तरफ बढ़ा कर बोला, " ये लो शंकर दा बीड़ी पियो।" मै आश्चर्य चकित था उसे मेरा नाम कैसे पता। उसने कहा, " शंकर दा डरो मत बीड़ी पियो । मैं हूं साथ ।आपको गांव तक छोड़ वापस आ जाऊंगा।" मैंने बीड़ी ली और बीड़ी पी। आगे बढ़ता रहा।अपने गांव की सीमा के पास पहुंचते ही वह बोला, " अब गांव की सीमा आ गई है। अब मैं आगे नहीं आ सकता हूं ।आप जाओ डरने की आवश्यकता नहीं।" अब तो में डर ही गया था। हिम्मत कर आगे बढ़ता रहा। अब पीछे चलने की आहट भी नहीं हो रही थी। थोड़ी देर में  ही अपने घर पहुंच गया। वह रात का सफर मैं कभी नहीं भुला सकता हूं। यही याद करते करते मुझे नीद आ गई।सुबह होने पर हरिया चाचा जी मुझे जोर से झकझोर कर  जगा रहे थे। असल में वे काफी डरे हुए थे। मैंने आंख मलते हुए उठने की कोशिश की। उठा तो हम जहां पर थे वहां न तो कोई झोपडी थी न कोई बूढ़ा ही था। न कम्बल थे जिन्हें लेकर हम सोए थे। वहां फलों की वह प्लेट भी नहीं थी।सबकुछ चमत्कार सा लग रहा था । मैं सोच रहा था क्या भूत ने कल हमारी मदद की।हमें बड़ी मुसीबत से बचा लिया था। मैंने हरिया चाचा से कहा, क्या वह बूढ़ा व्यक्ति भूत था या फिर कोई देवदूत जिसने कल हमारी मदद की। हरिया चाचा ने कहा, यह तो चमत्कार ही था। शायद बजरंगबली ने ही हमारी मदद की।हम अपना सामान लेकर अपने गांव की ओर चल दिए। आज जब भी उस रात की याद आती है  शरीर में एक अजीब सी दिव्यता का आभास होता है ।मुझे भी विश्वास हो रहा था कि हमारी मदद  बजरंगबली ने ही की थी। जय बजरंगबली हनुमान की। यह केवल डर की कहानी नहीं है — यह आस्था की भी कहानी है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि डर से नहीं, श्रद्धा और विश्वास से ही अंधेरे रास्तों में भी प्रकाश पाया जा सकता है।कभी-कभी… भूत भी देवदूत बनकर आते हैं।(मोहन पाठक)